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यहां या वहां… हल्ला हर तरफ है।
महिला अधिकारों के नाम पर की गई आस्था के केन्द्रों की घेराबंदी ने एक बहस छेड़ दी है। जब-तक मामला सिर्फ हिन्दू मंदिरों तक था तब तक वामपंथी, सेकुलर ब्रिगेड उत्साह में थी। हिन्दू समाज की परंपराओं को बंधन बताने वाले उन्मुक्ततावादी एक साथ मैदान में कूद पड़े। उनके लिए यह इस देश की सनातन संस्कृति पर हमले का मौका था। कोई इस बात की चर्चा नहीं चाहता था कि सनातन संस्कृति में वेद की रचना से लेकर मंदिर में स्थापित ममतामयी मूर्तियों तक 'मां' हर कहीं है। विभिन्नताओं को आश्रय देते चलने वाली सनातन संस्कृति में चिर नूतनता के सूत्र और बदलाव की भरपूर गुंजाइश है।
लेकिन मुंबई की हाजी अली दरगाह में भीतर तक प्रवेश की मांग सेकुलर राजनीति के लिहाज से शायद एकदम गलत वक्त पर आई। शनि शिंगणापुर से सिर्फ 250 किलोमीटर दूर हुई इस एक घटना ने प्रगतिशील बिरादरी का क्रांतिकारी उत्साह छीन लिया।
क्या महिला समानता के भी दो पैमाने होते हैं?
शनि शिंगणापुर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर तो राजनीतिकों से लेकर परंपरावादियों, धर्माचायार्ें, और स्वयं हिन्दू समाज के भीतर से समयानुसार परिवर्तन की आवाजें सुनाई भी पड़ीं, लेकिन दूसरी तरफ…!!
हाजी अली पर इतना सन्नाटा क्यों है भाई!
क्या अधिकारों के तर्क के आधार भी अलग-अलग हो सकते हैं? क्या एक का धर्म सार्वजनिक बहस का विषय और दूसरे का मजहब निजी आस्था का मामला हो सकता है? बहरहाल परिवर्तन के लिए छाती पीटने वाले परिवर्तित स्थिति में जड़ हैं। वे नहीं चाहते कि महिला अधिकारों की बात यदि हो तो समग्रता से हो। वे नहीं चाहते यदि आस्था को तकार्ें के तराजू पर तौलने की बात हो तो इसमें सभी मतावलंबियों को शामिल किया जाए। सुविधा की राजनीति करने और समाज को तोड़ने के वैचारिक षड्यंत्र रचने वालों से परदा हट गया है।
दो अलग-अलग स्थानों पर, अलग-अलग समुदायों की महिलाओं का, चाहे संयोग से ही, प्रदर्शन के लिए इस प्रकार सामने आना कई विचारधाराओं का दोमुंहापन और सुविधा की राजनीति करने वालों का सच उजागर कर गया।
एक घटना होती तो किसी एक पाले में बैठा जा सकता था। शनि शिंगणापुर वाले तो हल निकाल लेंगे, सेकुलर बिल्ले वाले क्या करेंगे?
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