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दाएश भारत के ज्यादातर हिस्से को 'खुरासान' का हिस्सा मानता है जिसे यह गजवा-ए-हिन्द अभियान के हिस्से के तौर पर फिर से पाना चाहता है। भारत की सुरक्षा एजेंसियों को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है
ले. जनरल (रिटा.) सैयद अता हसनैन
विभिन्न देशों की सीमाओं के आर-पार फैले आतंकवाद के जगत में अजीबोगरीब चीजें देखने में आती हैं। दिसम्बर 2008 के बाद से भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने देश को बड़े आतंकी हमलों से तकरीबन मुक्त ही रखा है। इसके पीछे ठीक समय पर मिलने वाली गुप्तचर सूचनाओं और आतंक निरोधी कार्रवाइयों का सटीक क्रियान्वयन ही है। हालांकि पिछले कुछ हफ्तों में इस्लामी आतंक में कहीं-कहीं उभार भी दिखा है। इसके साथ ही, जरूरी नहीं कि सीमापार से प्रायोजित तत्वों के तार पठानकोट हमले से ही जुड़ें हों, बल्कि हमें इस्लामिक स्टेट (दाएश) से जुड़ी आतंकवादी गतिविधियां का अलग से एक सूत्र भी सामने दिखाई देता है।
इस तथ्य के प्रकाश में यह देखना अहम होगा कि ज्यादातर विश्लेषणों में भारत में दाएश के शुरुआती प्रवेश की संभावनाओं को अलग ही रखा गया था। सोशल मीडिया के जरिए छिटपुट मामले प्रकाश में आए हैं और कुछ ने तो दाएश का हिस्सा बनने के लिए देश से बाहर जाने की कोशिशें भी की हैं। ऑनलाइन उकसावे और तकनीकी सहयोग से यह खतरा इंडियन मुजाहिदीन द्वारा गढ़े गए आतंकी मॉड्यूल्य के चलन की तरफ बढ़ा है। देशभर से 14 युवा मुसलमान दाएश से जुड़ी गतिविधि में शामिल होने के संदेह के चलते पकड़े गए हैं। उनके आका, माना जाता है कि, मध्यपूर्व में हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि दाएश भारत के ज्यादातर हिस्से को 'खुरासान' का हिस्सा मानता है जिसे यह गजवा-ए-हिन्द अभियान (हिन्द या भारत के लिए अभियान/जंग) के हिस्से के तौर पर फिर से पाना चाहता है। दाएश ने बाकी जगहों पर जिस विचार को अपनाया है वह है पूरी निष्ठा रखने वाले भाड़े के भरोसेमंद लोगों को जमाना और वृहद् सलाफी झंडे के तहत उनको नैतिक समर्थन देना; सोमालिया, सूडान, सीनाई, लीबिया और नाइजीरिया आदि, ये सारे दाएश की विस्तारवादी योजनाओं के हिस्से हैं जहां ये ऐसी परिस्थितियां पैदा कर रहे हैं कि उसे आगे चलकर पूरी तरह से समर्थन हासिल हो सके। बंगलादेश की परिस्थिति पर गौर करें तो वहां के लिए एक पश्चिमी सोच है कि बंगलादेश घुटने टेकने वाला है और दाएश ने वहां अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। मैं ऐसा इस आधार पर कह रहा हूं कि दाएश एक 'सीमा' से ज्यादा बढ़ना चाहेगा, क्योंकि वह इस अभियान के चलते रहने की काबिलियत पर गहरा असर डालेगा।
हरिद्वार में माघ मेले को निशाना बनाने की कोशिश करने वाले मॉड्यूल के ध्वस्त होने के साथ ही 'दाएश रणनीति में सीमाओं' का विचार पुष्ट होता दिखता है। यह भी दिखता है कि देशभर में मॉड्यूल्स स्थापित करने की कोशिशें लगातार हो रही हैं जिसमें ज्यादातर जोर साम्प्रदायिक दृष्टि से नाजुक राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और आंध्र प्रदेश पर दिया जा रहा है। यह बेहद खतरनाक चलन है। दाएश के अपनी पहुंच और मारक क्षमता दिखाने से पहले पूरी तरह सुदृढ़ हो जाने तक इंतजार करने की संभावना कम है। इसलिए समस्या ठीक सामने है और हमें डटकर खड़े रहने की जरूरत है।
भारत के 18 करोड़ मुसलमान नि:संदेह दुनिया के सबसे शांतिपूर्ण वर्ग से जुड़े हैं। फिर भी एक बहुत छोटी संख्या में ऐसे मतांध लोग हैं जो दाएश के बड़े पैमाने पर मतांधता रोपने और हलचल फैलाने के लिए पर्याप्त हैं। दाएश की रणनीति है समाज में अफरा-तफरी और गड़बड़ी फैलाना ताकि इसे इस्लामी विचार के आधार पर बदला जा सके। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इसकी अल्पकालीन रणनीति, जिसमें है इसकी उपस्थिति और पहुंच उन इलाकों तक एक जैसी फैलाना जिसे ये संवेदनशील इलाके मानता है क्योंकि वहां अलग-अलग तरह के समुदाय रहते हैं।
दोनों रणनीतियों का सामना करने के लिए जरूरी है गुप्तचरी। हमें खासकर तकनीकी क्षेत्र में गुप्तचरी को मजबूत करना होगा क्योंकि ज्यादातर सुराग सोशल मीडिया पर होने वाले आदान-प्रदान में से उभरेंगे। हमें डाटा को गहराई से खंगालने की सुघड़ काबिलियत चाहिए और इसके लिए हमारे सॉफ्टवेयर उद्योग को कमान संभालनी होगी, क्योंकि विदेशों से साझा की गयी तकनीक गुणवत्ता में औसत से हमेशा कम ही रहेगी। हमें अल्पसंख्यक समूहों के बीच जाने की जरूरत है और इसमें बहुत ही कुशल सर्वेक्षण तकनीकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, टेक्नोलॉजी और मानवीय, दोनों स्तरों पर, ताकि उभरते हुए मॉड्यूल्स के शुरुआती संकेत पकड़े जा सकें। जहां उन्माद पैदा करना अपने आप में खतरा है, वहीं यह उन्मादी विचारधारा के क्रियान्वयन की काबिलियत पर सवाल खड़े करने का प्रदर्शन भी है। सरकार इस उन्माद का सामना करने की तरफ कदम बढ़ा चुकी है, यह एक दीर्घकालिक रणनीति है और नई-नई तकनीकों के साथ जारी रहनी चाहिए, जिससे संबंधित सूचनाएं साझा हों और समस्या से जूझते दूसरे देशों के साथ समन्वय स्थापित हो। इंडोनेशिया ऐसा ही एक देश है जिसके साथ ऐसा सहयोग बेहद जरूरी है।
बेशक भारत के मुसलमान युवा मजबूती के साथ दायश के विरुद्ध संदेश देते नजर नहीं आए। जबकि ऐसे अवसर पर खुले रूप से उन्हें विरोध में आना चाहिए। हमें इन सूचनाओं को तेजी के साथ फैलाने की जरूरत है ताकि इन्हें मतांध इस्लाम से अलग रखा जाए। हमें विशेषकर शुक्रवार को होने वाली नमाज पर ध्यान देना पड़ेगा। इसमें मीडिया का सहयोग भी जरूरी है क्योंकि पीडि़तों की स्थिति को बयां करने में वह ज्यादा समय नहीं लगाता। दाएश का खतरा वास्तविक है और हम सबके सामने है। हमें मादक द्रव्यों के नेटवर्क को खत्म करना होगा। इस आतंक के मुकाबले के लिए शिक्षा से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। भारत के मुसलमानों को यह बताना होगा कि वे विश्व में सबसे अधिक समरस स्थितियों में रह रहे हैं। दाएश जैसी विनाशकारी विचारधारा हमारे देश की समरसता और एकता को ही बाधित करेगी। प्रगति और विकास के लिए शांति, प्रेम और एकता से बड़ा कोई रास्ता नहीं है। यह संदेश प्रसारित करने में मीडिया की भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह भी अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ प्रबुद्ध लोगों में सामाजिक समरसता का व्यापक संदेश देने में सहयोगी सिद्ध हो सकता है। सरकार को तमाम सुझावों पर जरूर विचार करना चाहिए। हम सबको साथ आकर साम्प्रदायिक बिखराव की चुनौतियों को एकता और समरसता में बदलने में जुट जाना चाहिए।
आतंक का गढ़ बनता बेंगलुरू
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बेंगलुरू में भारत की तीसरी सबसे बड़ी शहरी आबादी बसती है। यहां कुल 85 लाख लोग रहते हैं। यह शहर आईटी कंपनियों के आकर्षण के चलते प्रतिभाशाली नौजवानों के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। 2000 में एक व्यक्ति ने बेंगलुरू के चर्चों को बम से उड़ाने की धमकी दी थी जो स्वयं को अंजुमन दीनदार संगठन से जुड़ा हुआ बताता था। दिसंबर 2005 में बेंगलुरू के आईआईएससी कैंपस में विज्ञान कांग्रेस पर आतंकी हमला हुआ था जिसमें प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. मुनीष चंद्र पुरी मारे गए व कई अन्य लोग घायल हो गए। 25 जुलाई 2008 को अमदाबाद में बम धमाकों से एक दिन पहले बेंगलुरू में कम तीव्रता वाले बमों से नौ धमाके किए गए। अप्रैल 2013 में राज्य में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के समय राज्य भाजपा कार्यालय के बाहर बम धमाका हुआ। उसके बाद पुन: दिसंबर 2014 में नववर्ष समारोह से कुछ दिन पहले बेंगलुरू के चर्च स्ट्रीट इलाके में बम धमाका हुआ जिसमें एक महिला मारी गई व तीन लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। आठ जनवरी 2016 को जब एनआईए पठानकोट हमलों की जांच में जुटी थी तब बेंगलुरू से अलकायदा से जुड़े हुए मौलाना अंजार शाह कासमी को गिरफ्तार किया गया। 22 जनवरी 2016 को एनआईए ने फिर से चार संदिग्ध आतंकियों सोहेल, अहमद, मोहम्मद अफजल, मोहम्मद आसिफ अली को गिरफ्तार किया। इसी प्रकार 23 जनवरी को तेलंगाना स्पेशल ब्रांच ने रफीक खान नाम के संदिग्ध को गिरफ्तार किया। उसे 2008 में अमदाबाद में हुए बम धमाकों का मुख्य सूत्रधार माना जा रहा है। समाचार पत्रों की मानें तो इन सभी संदिग्धों के पास विस्फोटक सामग्री, एके-47 राइफलें भी मिली हैं। विशेषज्ञों के अनुसार बेंगलुरू एक ऐसा शहर है जहां इंटरनेट सुविधाएं व अन्य 'कम्युनिकेशन नेटवर्क' बेहद चुस्त हैं। ऐसे में आतंकी इस शहर में रहकर इसे अपनी पनाहगाह बनाने में जुटे हैं।
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