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ज्यादातर फिल्मकारों के लिए यह आसान नहीं है कि वे 'पराक्रम' या 'शौर्य' की किसी ऐसी गाथा को अच्छे से संभाल ले जाएं जिसका मकसद यह दिखाना हो कि जब हम भारतीय संगठित और एकजुट होकर एक ही दिशा में जोर लगाते हैं तो कुछ भी हासिल कर लेते हैं। एयरलिफ्ट इस पर केन्द्रित है कि अगर आम इंसान खुद में सैन्य किस्म का दुस्साहस भर ले तो कैसे चौंकाने वाले नतीजे दिखते हैं।
अमिताभ पाराशर
बॉलीवुड में सिनेमाई शैली, विषयों के चुनाव और कहानी कहने की समग्र शैली में पिछले कुछ वषोंर् में काफी बदलाव आया है। बात देशभक्ति की करें तो एक विषय के रूप में यह हिंदी सिनेमा का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री ने 'मदर इंडिया' के दिनों से आगे बढ़कर एक लम्बा सफर तय किया है। स्वतंत्रता संग्राम की कहानियां कहती 'द लीजेंड्स ऑफ भगत सिंह' से लेकर शहरी युवा विद्रोह पर कुछ साल पहले की 'रंग दे बसंती' या हाल ही में 'ए वेडनेसडे' और 'बेबी' जैसी फिल्मों में यही दिखा है। पिछले हफ्ते रिलीज हुई अक्षय कुमार की 'एयरलिफ्ट' एक गुमनाम हीरो के जरिये देशभक्ति का जज्बा जगाती है।
ज्यादातर फिल्मकारों के लिए यह आसान नहीं है कि वे 'पराक्रम' या 'शौर्य' की किसी ऐसी गाथा को अच्छे से संभाल ले जाएं जिसका मकसद यह दिखाना हो कि जब हम भारतीय संगठित और एकजुट होकर एक ही दिशा में जोर लगाते हैं तो कुछ भी हासिल कर लेते हैं।
सौभाग्य से अक्षय कुमार की नई फिल्म 'एयरलिफ्ट' के लेखक और निर्देशक राजा कृष्णा मेनन ऐसी किसी समस्या से ग्रसित नहीं हैं। उन दु:खद घटनाओं, जिन्होंने अंतत: भारतीय नागरिक उड्डयन इतिहास के सबसे शानदार अध्यायों में से एक को जन्म दिया, के चित्रण में राजा मेनन के कथ्य और फिल्मांकन के शिल्प की कारीगरी में संयम और संतुलन की गहरी भावना दिखती है। कुवैत में फंसे 1,70,000 भारतीयों को निकालकर भारत लाने के इस बचाव मिशन की गाथा, जिसको गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड्स ने भी जगह दी है, को देखते हुए कई बार आपका दिल अपने देश के लिए प्रेम पैदा करता है लेकिन कहीं भी कट्टर देशभक्ति या अंधराष्ट्रवाद की ओर झुकता नहीं दिखता। देशभक्ति के हमारे जज्बातों को उभारने की कोशिश के तहत गणतंत्र दिवस के पहले रिलीज की गयी इस फिल्म की यह विशेषता है। 'एयरलिफ्ट' की कहानी दरअसल इस पर केन्द्रित है कि अगर आम इंसान खुद में सैन्य किस्म का दुस्साहस भर ले तो उसके किस किस्म के चौंकाने वाले नतीजे दिखते हैं।
1990 के अगस्त महीने में सद्दाम हुसैन की इराकी रिपब्लिकन गार्ड ने कुवैत पर हमला कर दिया था। इस हमले से कुवैत में रहने वाले 1,70,000 हिन्दुस्तानी बेघर ही नहीं हुए बल्कि पर देश की बदली परिस्थितियों में भारी परेशानियों से घिर गए जबकि उन्मादी इराकी सेना चुन-चुन कर कुवैतियों को मार रही थी।
एक अमीर और राजनीतिक तौर पर ऊंचे ताल्लुकात रखने वाला भारतीय व्यवसायी रंजीत कात्याल (अक्षय कुमार) इस खतरे से बचने के लिए अपनी पत्नी और छोटी बेटी के साथ लंदन भाग जाने का शुरुआती फैसला लेता है लेकिन बाद में इस आसान रास्ते को छोड़ देता है़ वह कोई बेदाग किस्म का भारत प्रेमी नहीं है जैसा कि शुद्घ मुनाफे के लिए जीने वाले इस व्यवसायी के शुरुआती भारत (जहां वह पैदा हुआ है) विरोधी टिप्पणियों से पता चलता है। लेकिन अपनी पत्नी अमृता (निमरत कौर) के विरोध करने के बावजूद वह फैसला लेता है कि संकट में फंसे बाकी हिन्दुस्तानियों को यहां छोड़कर वह नहीं जाएगा। वह कुवेत में एक शरणार्थी शिविर स्थापित करता है, उनके लिए खाने का भी इंतजाम करता है और उनकी सुरक्षा के लिए तत्कालीन इराकी विदेश मंत्री तारिक अजीज से भी बात करता है। वह इस विपरीत परिस्थिति में, जब कि फंसे भारतीयों को उनके हाल पर छोड़कर कुवैत स्थित भारतीय दूतावास के सारे अधिकारी पहले ही भाग चुके हैं, निश्चित भाव लिए हुए भारत के विदेश मंत्रालय और उसके एक अधिकारी संजीव कोहली (कुमुद मिश्रा) से बातचीत का एक चैनल भी खोलता है। 'एयरलिफ्ट' की कहानी में आई नाटकीयता की जड़ में नौकरशाही की जड़ता महत्वपूर्ण है।
फिल्म के निर्देशक ने 'एयरलिफ्ट' के ज्यादातर हिस्से को इस नाटकीय निकासी के पहले के उन तनावपूर्ण क्षणों पर केन्द्रित रखा है और उन वास्तविक उड़ानों (एयर इंडिया के कुल 488 उड़ानों की मदद से इसे अंजाम दिया गया था) को तेजी से समेट दिया हैं जिनके जरिये 1,70,000 हिन्दुस्तानियों को वहां से निकाला गया था़ भव्यता दिखाने से परहेज करने के निर्देशक के फैसले से दरअसल फिल्म को फायदा मिला है और यह पूरी तरह से एक विश्वसनीय मानवीय कहानी बन के उभरी है। ऐसा नहीं कि फिल्म में ऐसे नाटकीय क्षण नहीं हैं जो थोड़े से अतिरेक की ओर जाते दिखते हैं, लेकिन वे नगण्य हैं।
फिल्म के कई दिलचस्प तत्वों में से एक यह है कि फिल्म के लेखक और निर्देशक ने कात्याल (अक्षय कुमार) और उनकी पत्नी के बीच के संबंधों का बहुस्तरीय निर्माण किया है वे एक आदर्श, एक दूसरे पर जान न्यौछावर करने वाले बॉलीवुडी शैली के पति-पत्नी नहीं हैं बल्कि अक्सर एक दूसरे की गर्दन पर सवार लेकिन आपसी प्रेम से भरे और नाजुक मौकों पर साथ खड़े होने वाले विश्वसनीय से दिखने वाले पति-पत्नी हैं।
कहना न होगा कि यह अक्षय कुमार की श्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक है। ज्यादातर जगहों पर वे संघर्षरत लेकिन मजबूत दिल वाले रंजीत कात्याल के तौर पर इतने सहज दिखते हैं कि लगता नहीं कि अभिनय कर रहे हैं। अक्षय ने बड़ी ही सक्षमता से रंजीत कात्याल नाम के ऐसे चरित्र को विश्वसनीय बनाया है जो एक बुरे दुश्मन से ज्यादा इतिहास और नियति की ताकतों से लड़ रहा है।
अपनी पहली बड़ी फिल्म 'लंचबॉक्स' से दुनिया भर में प्रसिद्घि बटोर चुकी निमरत कौर ने अक्षय की पत्नी के तौर पर दमदार परफारमेंस दिया है। एक दृश्य में जब वह शरणार्थी शिविर के एक हमेशा चिड़चिडे़ से दिखने वाले व्यक्ति (प्रकाश बेल्वाड़ी) की क्लास लेती है तो उस दृश्य में निमरत की नियंत्रित संवाद अदायगी और भाव भंगिमाएं, अभिनय की बारीकियों में उनकी निपुणता की ओर इशारा करती हैं। बॉलीवुड के बड़े स्टार वाली फिल्मों के विपरीत 'एयरलिफ्ट' की खासियत यह है कि एक बड़े स्टार के चुम्बकीय आकर्षण के बावजूद फिल्म में कहीं भी हर फ्रेम में अक्षय को लादने की कोशिश नहीं है। एकाध छोटी क्षम्य गलतियां (जैसे विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव को भीड़ में एक टेबल कुर्सी पर बैठा दिखाना) या एक उस दृश्य को छोड़कर जहां, अम्मान एयरपोर्ट पर तिरंगा लहराता हुआ दिखता है, फिल्म के निर्देशक ने मेलोड्रामा से परहेज किया है और एक अविश्वसनीय से लगने वाले मानव निकासी अभियान को उसकी वास्तविकता की तह तक जाकर फिल्माया है।
निर्देशक ने फिल्म में मानवता की खुराक भी खूब डाली है जो भारतीयों में महज गर्व भाव भरने की तुलना में उससे अधिक एक मानवीय गाथा के तौर पर फिल्म को फायदा पहुंचाती हैं। ऐसे कई क्षण हैं जिनमें से एक इराकी आक्रमण की शिकार युवा कुवैती महिला और उसके बच्चे को अपने एक साथी इब्राहिम दुर्रानी (पूरब कोहली) की सहायता से चुपचाप शरणार्थी शिविर में आश्रय देना और उससे जुडी घटनाएं हैं़ इस तरह के क्षण सिर्फ हीरो की आकस्मिक वीरता के बजाय उसके अन्दर छिपी मानवीयता को सामने लाते हैं।
देशभक्ति या शौर्य की कहानियां कहने के जिस नए अंदाज की बात है, तो वह 'एयरलिफ्ट' में भरपूर दिखती है। यह बदला अंदाज दरअसल देशभक्ति और राष्ट्रवाद को लेकर समाज में बदलती धारणा को ही दर्शाता है। 'मंगल पांडे' और हाल में 'मांझी-द माउंटेन मैन' जैसी फिल्में बनाने वाले केतन मेहता कहते हैं, ''आजादी के बाद की हमारी फिल्मों में वह दिखना स्वाभाविक था जो हमने अंग्रेजों के शासन के दौरान भुगता है। लेकिन आज का दर्शक 'रंग दे बसंती',' मांझी' या 'एयरलिफ्ट' जैसी फिल्मों से खुद को ज्यादा जोड़ता है क्योंकि ये फिल्में देशभक्ति की एक अलग भाषा बोलती हैं।''
अक्षय कुमार के साथ कई फिल्में कर चुके निर्देशक विपुल शाह कहते हैं, ''फिल्मों में देशभक्ति को दिखाने का तरीका बदल रहा है। नए फिल्मकार इस दिशा में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। उग्र राष्ट्रवाद या अंधराष्ट्रीयता की भावना को नियंत्रण में रखकर देशभक्ति की अच्छी फिल्में बन रही है। ''एयरलिफ्ट'' जैसी फिल्में बेहतरीन उदाहरण हैं जो दरअसल देश प्रेम के जज्बे को और बढाती हैं लेंकिन बिना किसी शोर शराबे के।
अभिनेता अनुपम खेर भी इस फिल्म के प्रशंसकों में से हैं़ वे कहते हैं, ''फिल्म में देशभक्ति को एक वास्तविक दिखने वाले सच्चे नजरिये से दिखाया गया है जो जबरदस्त है। फिल्म देखते हुए कई बार मैं भावुक हुआ और कई बार देश के लिए मेरी भावनाएं उद्वेलित हुई। यह निर्देशक की सफलता है। 'ए वेडनेसडे' और 'बेबी' ने भी देशभक्ति को उसके वास्तविक अंदाज में दिखाया।''
'एयरलिफ्ट' के प्रमोशन के लिए दिल्ली आये फिल्म के निर्देशक राजा मेनन ने एक अच्छी बात कही। उन्होंने कहा कि 'देशभक्ति दरअसल हमारी पहचान (आइडेंटिटी) की भावना है। सच्ची देशभक्ति प्राप्त करने का सही रास्ता उन बातों का पता करना है जो हमारे अनुकूल हो रही हों। सरकारें अपनी गति से काम करती रहेंगी। चीजों को सही बनाने के लिए हमें अपनी पहल शुरू कर देनी चाहिए।'
मेनन ने अपनी इस भावना को फिल्म के हीरो रंजीत कात्याल (अक्षय कुमार) के मुंह से फिल्म के आखिर में कहलवाया है जहां वह कहता है कि ''भारत में अभी भी बहुत समस्याएं हैं। सिनिकल (सनकी) मैं अभी भी हूं लेकिन अब के बाद यह कभी नहीं कहूंगा कि भारत ने मेरे लिए क्या किया?''
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