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मध्य भारत की नक्सली समस्या का समाधान अगर हम चाहते हैं तो उसके लिए सबसे पहले हमें नक्सली और नक्सल समर्थक के बीच के अंतर को समझना होगा।
शुभ्रांशु चौधरी
जंगल में हरी वर्दी पहने बन्दूक लिए जो दिखता है उसे ही आज हम नक्सली कहते हैं। पर असली नक्सली अक्सर वर्दी नहीं पहनता और बंदूक तो बहुत कम ही पकडे़ दिखाई देता है। नक्सली वह है, जो हिंसा के रास्ते से व्यवस्था परिवर्तन के अगुआ माओ के सिद्धांत पर विश्वास करता है। गांधीवाद, समाजवाद, पूंजीवाद की तरह यह भी एक विचार है जिसकी समयसापेक्ष कमजोरियां और ताकतें हैं।
माओवादी राजनीति पर विश्वास करने वाले लोग शहरों में अधिक पाए जाते हैं। पर यह समस्या आज मध्य भारत के वनवासी इलाकों में ही अधिक जटिल हुई है। ऐसा क्यों है? जब मीडिया किसी नक्सली हमले की चर्चा करता है जिसमें सैकड़ों लोग शामिल हुए होते हैं तो मीडिया कहता है सैकड़ों नक्सलियों ने फलां जगह हमला किया पर उसमें दरअसल नक्सली इक्का-दुक्का ही होते हैं, अधिकतर नक्सल समर्थक होते हैं।
हमें यह भी समझने की जरूरत है कि नक्सल समर्थक उस इक्का-दुक्का नक्सली का समर्थन आखिर क्यों करते हैं, उसके साथ बंदूक क्यों उठाते हैं। इस समझ में ही नक्सली हिंसा के समाधान का रास्ता छिपा हुआ है। ये नक्सल समर्थक आज अधिकतर वनवासी ही हैं, जो नक्सल सेना के पैदल सैनिक हैं और आज हो रहीं अधिकतर हिंसक वारदातों को अंजाम देते हैं। पर इन्हें माओवाद की अधिक समझ नहीं है।
माओवादियों की भाषा-शैली में बात करें तो आज के ये हरी वर्दीधारी नक्सल समर्थक अधिकतर वनवासी समाज के निचले वर्ग के लोग हैं। वनवासी समाज के इस वर्गभेद को समझना भी इस समस्या के समाधान के लिए उतना ही जरूरी है।
2005 के बाद छत्तीसगढ़ में जब सलवा जुडूम का प्रयोग चल रहा था, उस समय मैं जब भी किसी वनवासी गांव में जाता था तो एक सवाल जरूर पूछता था कि ''आप के गांव से कितने लोग सलवा जुडूम में शामिल हुए और कितने नक्सलियों के साथ गए हैं?'' उत्तर मिलने के बाद मैं उन दोनों तरह के लोगों की पारिवारिक स्थिति का विश्लेषण करता। लगभग शत प्रतिशत मामलों में मैंने यह पाया कि जिस घर में अधिक जमीन है, जो आठवीं से ऊ पर तक पढ़े हैं वे अक्सर सलवा जुडूम के साथ गए और जिन परिवारों के पास कम जमीन है और जो पांचवीं से नीचे पढ़े हैं या बिलकुल नहीं पढे़ वे नक्सलियों के साथ गए। इस विवेचना में भी इस समस्या का समाधान छिपा हुआ है।
आजादी के बाद देश में एक अर्र्द्धशिक्षित वनवासी समाज तैयार हो गया है। इसमें ऐसे कम ही हैं जो हिन्दी में बात कर सकते हैं। वह मुख्यधारा के भारत से जुड़ा है और संविधान द्वारा दी गयी कुछ सुविधाओं का लाभ उठाकर बाकी समाज का पिछलग्गू बना है। वनवासी समाज के निचले वर्ग, जो सड़क पर नहीं रहता, जो हिन्दी नहीं बोलता सो हमने कोई संपर्क नहीं किया। पर नक्सलियों ने किया, ईसाई मिशनरियों ने किया और कुछ व्यापारियों ने भी किया।
जून, 1980 में 7-8 नक्सलियों के सात टोले लगभग उन्हीं इलाकों से दंडकारण्य में घुसे, जिन रास्तों से ब्रिटिश सैनिक 19वीं सदी में बस्तर आये थे। माओवादी मूलत: यहां अपनी विचारधारा का प्रचार करने नहीं आए थे, यह उनके लिए छिपने की जगह थी। वे लिखते हैं कि इस इलाके के लोगों में विश्व राजनीति की समझ बहुत कम है, इसलिए क्रान्ति की शुरुआत तो यहां से नहीं हो सकती। उस समय वे स्वयं को माओवादी कहते थे।
1990 के आते-आते 49 में से सिर्फ 25 ही माओवादी दंडकारण्य में रह गए और बहुत कम वनवासी उनसे जुड़े। बाकी हताश होकर अपने-अपने घर वापस चले गए। पर 1990 के बाद सरकार ने सलवा जुडूम की तरह जन जागरण अभियान शुरू किया और उपरेले वनवासियों की मदद से नक्सल समर्थकों पर हमला शुरू किया।
अब वनवासियों के लिए पक्ष लेना जरूरी हो गया था और निचले वर्ग ने नक्सलियों का साथ चुना। उसे नक्सलियों की तरफ धकेला गया था वह अपनी मर्जी से उनके साथ नहीं गया था, यह समझना जरूरी है। नक्सली उसके साथ रहता था, उसकी भाषा बोलता था और पटवारी, जंगल, थानेदार और व्यापारी के खिलाफ उसकी लड़ाई भी लड़ता था। नक्सलियों ने बहुत से ऐसे हक वनवासियों को दिलाए, जो आज संवैधानिक रूप से वनवासियों को मिले हुए हैं और इसके लिए उनको लड़ने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
क्या आज वे संवैधानिक हक हम उनको दिलवा सकते हैं? क्या सम्मानपूर्वक हम उनके साथ उनकी भाषा में बराबरी की बातचीत कर सकते हैं? हो सकता है आज नक्सलवादियों की तरह बहुत से अंदरूनी जंगली इलाकों में वर्तमान में उनके साथ रहना संभव न हो पर बातचीत की शुरुआत तो की जा सकती है। विज्ञान हमें इसमें अत्यधिक मदद कर सकता है। धुर वनवासी इलाकों में जहां सड़क और बिजली की भी पहुंच नहीं है। वहां भी रेडियो की तरंगें पहुंचती हैं पर सरकार ने आज भी गोंडी जैसी वनवासी भाषाओं में रेडियो में अधिक कार्यक्रम शुरू नहीं किये हैं। लेकिन ईसाई मिशनरी ईसाइयत के प्रचार के लिए शार्ट वेव रेडियो का बखूबी इस्तेमाल करते हैं। पर यह बातचीत सम्मानजनक और बराबरी की होनी चाहिए। रेडियो यदि गोंडी और कुडुक जैसी भाषाओं में बात करने लगे लेकिन सिर्फ दिल्ली और रायपुर से ही एकतरफा बात करे, तब भी बात नहीं बनेगी।
जिस तरह से हमारी राजनीति धीरे-धीरे लोकतांत्रिक हो रही है, उसी तरह से मीडिया को भी लोकतांत्रिक होना होगा। उसमें सभी की समान भागीदारी पक्की करनी होगी। मोबाइल और इंटरनेट जैसे यंत्रों के आविष्कार के बाद अब यह करना सरल हो गया है। अब वनवासी क्षेत्रों में गांवों में भी धीरे-धीरे मोबाइल पहुंच रहा है। सामुदायिक रेडियो को मुक्त करते हुए हमें बहुत सारे वनवासी ब्राडकास्टिंग को-ऑपरेटिव शुरू करने पर विचार करना होगा।
इस मुक्त रेडियो में गांव-गांव से लोग अपनी भाषा में अपनी बात बोलेंगे, अपने गीत सुनाएंगे, अपनी समस्याएं रखेंगे। अनुवाद के बाद हमारे सरकारी अधिकारी उन समस्याओं को संविधान के अनुसार हल भी करेंगे। बातचीत के साथ-साथ हमें शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी जरूरी चीजों की उपलब्धता सुदूर जंगलों से सटे गांवों में भी पहुंचाने की व्यवस्था करनी होगी।
(लेखक पत्रकार और मोबाइल-इंटरनेट पोर्टल 'सीजीनेट स्वर' के संपादक हैं)
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