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सबरीमला 'महिला' प्रवेश प्रकरण पिछले दिनों राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों में छाया रहा था। देखते ही देखते 'रूढि़वाद' और 'प्रगतिशील' के बीच बहस का मुद्दा बन गया। ऐसे बहुत से हैं जो चीजों को बिना लाग लपेट के जस का तस देखना चाहते हैं, जबकि हमारी मान्यताओं के संबंध में हम सबको पूरी आजादी है। लेकिन क्या हम तथ्यों के साथ ढील बरत सकते हैं?
सबरीमला का तथ्यात्मक पक्ष
– हर साल दसियों हजार महिलाएं सबरीमला आती हैं। (इससे 'महिलाओं को प्रतिबंधित करने की संवैधानिकता' का तर्क ध्वस्त हो जाता है।)
– सिर्फ दस से पचास आयु वर्ग की महिलाओं के लिए नियम है।
– यह मासिक धर्म की वजह से नहीं है।
– यह यात्रा में कष्ट की वजह से नहीं है। (अगर ऐसा होता तो पचास की उम्र से ऊपर की महिलाएं कैसे प्रवेश कर सकती थीं, दस से कम की लड़कियां कैसे आ सकती थीं।)
असली कारण क्या है?
यह मंदिर और मंदिर अनुष्ठान के मौलिक सिद्धांतों से जुड़ा गहरा सवाल है। एक बार विवेकानन्द से पूछा गया था,'अगर भगवान सब जगह है तो मंदिरों की जरूरत ही क्या है'। उनका जबाव था, 'हालांकि हवा सब जगह है, पर इसे महसूस करने के लिए पंखे की जरूरत पड़ती है।' 'तंत्र शास्त्र' के अनुसार, मंदिर एक यंत्र- तंत्र-मंत्र का समुच्च अथवा इन तीनों का मेल है। हर मंदिर में देव प्रतिमा का एक अनूठा सिद्धांत, प्रतिष्ठा संकल्प या मंदिर दर्शन होता है।
उदाहरण के लिए, महिलाओं के लिए सबरीमला है, अट्टुकल देवी मंदिर, जहां 30 लाख महिलाएं पोंगल अर्पित करती हैं और यह गिनीज बुक ऑफ बर्ल्ड रिकार्ड्स में महिलाओं के सबसे बड़े एकत्रीकरण के रूप में दर्ज है। अट्टुकल पोंगल में पुरुष पोंगल अर्पित नहीं करते क्योंकि यह महिलाओं को ज्यादा सुहाता है। इसी तरह चक्कुलतु कावू देवी मंदिर में नारी पूजा प्रचलित है जिसमें पुरुष भाग नहीं लेते। मन्नरसला मंदिर में मुख्य पुजारी ही महिला होती है। चेंगनूर देवी मंदिर में देवी के मासिक धर्म के काल खंड को उत्सव सहित मनाया जाता है।
यह भारत और भारतीय व्यवस्था की अन्तर्निहित विविधता ही तो है। हमें इस बहुलवाद का सम्मान करना चाहिए। कई
लोगों को इस पर भरोसा ही नहीं आता कि सबरीमला मंदिर परिसर में अयप्पा के पक्के दोस्त बावर की इस्लामी दरगाह भी है। बावर डॉ. अब्दुल कलाम जैसा ही राष्ट्र भक्त था। बावर ने अपने जमाने की देश विरोधी ताकतों से लड़ाई लड़ी थी।
आज वक्त है कि अयप्पा के ऐतिहासिक व्यक्तित्व को याद करें। अयप्पा यानी अय्या+अप्पा अर्थात विष्णु+शिव। दक्षिण भारत के हिन्दू जब वैष्णववाद और शैववाद के बीच बंटे हुए और कमजोर थे तब यह बालक मणिकान्ता सामने आया और इसने दोनों वादों का मेल कराया। यह सी.ई. 1050 के आस-पास की बात है उसने हिन्दुओं में एकजुटता पैदा की बावर जैसे देश भक्त मुसलमानों की मदद ली और वेलुताचन सरीखे भारतीय ईसाइयों का भरोसा जीता। इतिहास बताता है कि अयप्पा ने उस जमाने के डकैतों और उदयनन जैसे लोगों की अगुआई वाले नक्सलियों से युद्ध किया था।
कई लोगों को अयप्पा की कहानी हैरान करने वाली लगती है और उन्हें इस पर भरोसा ही नहीं आता, खासकर उस दौर में हिन्दू धर्म को बर्वाद करने पर तुले डकैतों के खिलाफ सभी मत-पंथ वालों का एकजुट होने का किस्सा। एक बार मेरे भाषण के बाद कॉलेज के छात्र ने मुझसे पूछा, 'अयप्पा के बारे में यह जानना तो कमाल की बात रही। इस पर यकीन नहीं होता। कहीं आप अयप्पा की कहानी को भारत की परिस्थिति के हिसाब से घुमा तो नहीं रहे?' मैं हंसा और बोला, 'नहीं, मैं तो सच बयां कर रहा हूं, मेरे पास दस्तावेजी सबूत और इसी को साबित करते उपलब्ध परिस्थिति जन्य साक्ष्य हैं।' और जहां तक 'अयप्पा और 2016 के आधुनिक भारत' की बात है, अयप्पा 1 हजार साल पहले हमें बता रहे थे कि सब धर्मावलंबियों को भरोसे में लेकर, साथ ही एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति को भी सर्वोपरि रखते हुए कैसे हिन्दुओं और हिन्दुत्व को बचाया जा सकता है, और नक्सलियों, डकैतों, राष्ट्रविरोधियों के खिलाफ युद्ध लड़ा जाता है।
स्वामी शरणम्, वंदे मातरम्
(लेखक लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में ग्लोबल लीडरसिप के अध्येता रहे हैं और सबरीमला के सर्वोच्च पुजारी कन्दरारू महेश्वरारू के परपोते हैं।)
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