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दण्डकारण्य की ऐतिहासिकता ओढ़े साल वनों का सन्नाटा और दिल्ली तक थर्राहट पैदा करने वाली नक्सली हिंसा की कहानियां… ये बस्तर की दहलीज है।
हितेश शंकर, बस्तर से लौटकर
अबूझमाड़, कांकेर, बस्तर… सारा फैलाव दण्डकारण्य का हिस्सा है। महानदी के बहाव वाले कांकेर से आगे बढ़ते ही पड़ती है केशकाल घाटी। कांकेर से निकलने तक रात के आठ बज गए। घाटी के हर तीखे मोड़ के साथ नक्सली बर्बरता और मुठभेड़ की वह कहानियां दिमाग में ताजा होने लगीं जो शहरों में मीडिया के जरिए मुझ तक पहुंची थीं। अंधेरी घाटी से गुजरते हुए ख्याल आया…वामपंथी उग्रवाद का दंश झेलते इस इलाके की तस्वीर वास्तव में इतनी ही स्याह है या कहीं उम्मीद की रोशनी बाकी है? घाटी के निकलते ही पहाड़ी सिरे पर जमा था केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल का शिविर। मानो मुनादी कर रहा हो…स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में है।
कांकेर की सीमा खत्म खत्म होते ही जो पहली जगह दिखी वह अंधेरे को चुनौती देने के अंदाज में ताल ठोक रही थी। फ्लड लाइट की रोशनी में फरासगांव का राष्ट्रीय राजमार्ग से लगता मैदान किसी छोटे स्टेडियम सा दृश्य पैदा कर रहा था। रात साढ़े दस बजे टीमें मैदान में जमी थीं। लाउड स्पीकर पर मैच का आंखों देखा हाल सुनाया जा रहा था। सड़क किनारे अपने स्कूटर-बाइक के साथ खड़ी नौजवानों की टोलियां तालियां पीट रही थीं। लोगों को डराने की कोशिशें हार रही हैं। आशा का एक उजाला उठा और भानुपुरी के पार जगदलपुर तक हमारे साथ चलता गया।
राज्य में नक्सली हिंसा का जवाब हमने प्रशासनिक चुस्ती और विकास से दिया है। विकास के यह प्रतिमान इस बात का उदाहरण हैं कि दृढ़ संकल्प और सकारात्मकता के बूते बड़ी से बड़ी लड़ाई जीती जा सकती है
—रमन सिंह, मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़
हमारे यहां हर बच्चा खास है और हम उन्हें उनकी विशेष योग्यता को उपलब्धि के तौर पर हासिल करते देखना चाहते हैं।
— मोनिका साहू, प्रधानाचार्य, सक्षम, दंतेवाड़
मुठभेड़ और पोस्टमार्टम के आंकड़े असली बस्तर नहीं हैं। यहां की कला और परंपरा में हिंसा और भड़कावे का कोई भी उफान ठंडा करने की ताकत है
— अमित कटारिया, कलेक्टर, बस्तर
मेहनत बहुत है लेकिन हमारे पुरखे हमें हमारी तरक्की का गुर दे गए हैं। —तीजू विश्वकर्मा
राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शिल्पकार, किड़ईछेपड़ा गांव
देश की सबसे पुरानी नगरपालिकाओं में से एक जगदलपुर नए चलन से अछूता नहीं है। बिनाका मॉल में अमिताभ बच्चन की नई फिल्म 'वजीर' लगी है। अंतिम 'शो' रात साढ़े ग्यारह बजे तक चलता है। रात गहराने लगी लेकिन बाजार बता रहे कि उन्हें देर तक जागने की आदत है।
हमारी कार जगदलपुर से ४०-४५ किलोमीटर दूर चित्रकोट की ओर बढ़ गई पहला ठहराव यहीं तय था।
सुबह बहुत जल्दी हुई। उस नजारे के साथ जिसकी आवाज ने रात भर सोने नहीं दिया था। खिड़की से पर्दा हटाते ही फैलाव के लिहाज से भारत का सबसे बड़ा जलप्रपात स्वागत कर रहा था। भारत के 'नियाग्रा' की गूंज अद्भुत थी।
वनवासी समुदाय के स्थानीय युवक विष्णु ने बताया, 'अभी इंद्रावती में पानी कम है। बरसात में झालर तीन-साढ़े तीन सौ मीटर तक खिंच जाती है।' नक्सली गतिविधियों के बारे में पूछा तो जवाब मिला, 'यहां ज्यादा हरकत नहीं है। वो लोग भीतर जंगल कब्जाए हैं।' घाट पर साल का खुशबूदार गोंद बेचती बुजुर्ग वनवासी महिला का उत्साह बिक्री और मोलभाव से ज्यादा यह बताने में था कि यह जगह ऐसी है जहां बारहों महीने, हर दिन सूयार्ेदय से सूर्यास्त तक हर समय इन्द्रधनुष दिखता है। वास्तव में शांति की तलाश और फोटोग्राफी के शौकीनों के लिए यह जगह स्वर्ग है। लेकिन सैलानी इतने कम क्यों? 'एक तो नक्सली का हल्ला फिर प्रचार भी ज्यादा नहीं है न.. लेकिन तब भी बंगाली काफी आते हैं। यहां पखानजोर में भी ७१ की लड़ाई के बाद बहुत बंगाली बसे हैं।' गोंडी, हलबी या छत्तीसगढ़ी? जबाव जिस भी भाषा में मिला मेरा स्थानीय ड्राइवर उसे समझने लायक बना देता।
चित्रकोट का चित्र दिल में रखे आगे बढ़ लिए…अगला मुकाम दंतेवाड़ा। इंद्रावती की सहायक डंकिनी और शंकिनी नदियों के पार है मां दंतेश्वरी का मंदिर। इस क्षेत्र का नामकरण शक्ति के इसी रूप से हुआ। कई दुकानों (और पता चला ज्यादातर स्वसहायता समूहों) का नाम 'दंतेश्वरी' देवी पर ही रखा गया है।
यहीं है चिंतलनार गांव जहां अप्रैल २०१० में नक्सली हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के ७६ जवानों के प्राण गए थे। गहरे जमे नक्सलवाद के लिए बदनाम दंतेवाड़ा में इससे निपटने की सबसे जोरदार तैयारी भी की गई है। कुख्याति और भय के पहाड़ बीते पांच वर्ष में विकास से पाटे गए हैं। मुख्य सड़क देश की राजधानी की ज्यादातर सड़कों से अच्छी है। नक्सलवादियों द्वारा स्कूल उजाड़ने से विस्थापित हुए बच्चों की पढ़ाई पोर्टा केबिन में चल रही है। धूल,धूप, पानी से बेअसर इन विद्यालयों के सात हजार बच्चों के पोषण के लिए 'क्षीरसागर' दुग्ध योजना चल रही है।
सिक्किम के देश का पहला पूर्णत: जैविक कृषि राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ का दंतेवाडा राज्य का ऐसा ही पहला जिला बनने की राह पर है। रासायनिक खाद की खपत प्रति हेक्टेयर ग्यारह किलो से घटकर ५०० ग्राम पर आ चुकी है। किसान जैविक कृषि के फायदे जान रहे हैं। इसका प्रशिक्षण ले रहे हैं।
प्रशिक्षण और संभाल की दृष्टि से विशेष आवश्यकता वाले 'दिव्यांग' बच्चों के लिए राज्य का पहला 'अड़चन मुक्त'संस्थान दंतेवाड़ा में ही खोला गया है। नाम है सक्षम। एक ऊंची निश्छल तान उठती है…'मेरे देश की धरतीऽऽऽ… ऐसा सधा हुआ बाल स्वर! पांव अपने आप उस कमरे की ओर मुड़ जाते हैं। गणतंत्र दिवस समारोह प्रस्तुति की तैयारियां हो रही हैं। अपने मित्र गौतम और घासीराम के साथ अंजन आलाप ले रहा है। गाने के अलावा कांगो बजाने में सिद्धहस्त अंजन देख नहीं सकता लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद उसकी कला देख-सराह चुके हैं। विद्यालय की प्रधानाचार्य मोनिका साहू कहती हैं, 'हमारे यहां हर बच्चा खास है और हम उन्हें उनकी विशेष योग्यता को उपलब्धि के तौर पर हासिल करते देखना चाहते हैं।'
पास ही है सौ एकड़ में फैला अत्याधुनिक शिक्षण परिसर 'एजुकेशन सिटी'। वैश्विक लेखा और सलाहकार फर्म केपीएमजी ने इस सुनियोजित परिसर को विश्व की सौ आधारभूत संरचनाओं में जगह दी है। करीब 800 कुर्सियों वाला इसका सभागार देश के शीर्ष शिक्षण संस्थानों के मुकाबले किसी भी दृष्टि से इक्कीस ही ठहरे तो आश्चर्य मत कीजिए।
व्यावसायिक और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवाओं के लिए यहां पहले रायपुर और दिल्ली जैसे दुर्लभ विकल्प ही थे। इस गंभीर समस्या को हल करने के लिए स्थानीय स्तर पर 'कोचिंग' उपलब्ध कराने की एक पहल 'लक्ष्य' नाम से हुई है जिसके परिणाम जोरदार हैं। पता चला कि कलेक्टर केसी देवसेनापति ने एक जर्जर पड़ चुके भवन का जीर्णोद्धार कराते हुए जो अत्याधुनिक सुविधा युक्त शिक्षण केंद्र आरंभ कराया वहां अब तक 600 विद्यार्थियों का पंजीकरण हो चुका है। यहां के कई छात्र पटवारी बने हैं और एक का चयन तो डिप्टी कलेक्टर के पद पर हुआ है। क्षेत्र में हुए विकास कायार्ें की बारीक जानकारी रखने वाले सौरभ कहते हैं, 'दंतेवाड़ा में पिछले कुछ वषार्ें में इतना विकास हुआ है जितना पहले दशकों में नहीं हुआ। अगर नक्सली पिछड़ेपन को हिंसा की वजह बताते हैं तो इस जिले ने उनसे यह बहाना छीन लिया है।'
बात ठीक है, इसकी पुष्टि पास ही स्थित एक और संस्थान करता है। लाइवलीहुड कॉलेज के जरिए स्थानीय युवाओं को तिमाही प्रशिक्षण के बाद ड्राइविंग, सिलाई, कम्यूटर हार्डवेयर जैसे क्षेत्रों में सीधे रोजगार से जोड़ने की यह मुहिम पूरे राज्य में शुरू की गई है। कॉलेज की गतिविधियों का परिचय देते हुए कौशल विकास मिशन के संयुक्त निदेशक शरद कुमार कहते हैं, 'हालांकि हमारे पास अलग-अलग कोर्स और प्रशिक्षण सुविधाएं हैं लेकिन अपनी जगह न छोड़ने वाला स्थानीय वनवासी स्वभाव अपनी जगह कायम है।' जाहिर है, इन युवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के और मौके जुटाने होंगे। कॉलेज के बाहर हमें मिले प्रबीर यादव। काला चश्मा लगाए इस स्थानीय नवयुवक की दिलचस्पी कॉलेज के पाठ्यक्रम में थी और वह इसी सिलसिले में जानकारी लेने पहुंचा था। नक्सल समस्या डराती नहीं? क्या रोजगार या पढ़ाई के लिए यहां से दूर जाना पसंद करोगे? सवाल का सीधा दिल से निकला जवाब मिलता है- मां दंतेश्वरी है न.. सब यहीं ठीक है।
विकास पथ पर बढ़ते हुए भी विश्वास पथ पर अडिग दंतेवाड़ा की इस झलकी के बाद हमारी गाड़ी अगले दिन के प्रवास के लिए बढ़ चली जगदलपुर की ओर।
कभी बस्तर रियासत की राजधानी रहा जगदलपुर आज भी बस्तर जिला और प्रमंडल (जिसमें बस्तर के अलावा दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, सुकमा और कांकेर का क्षेत्र आता है) की शासकीय गतिविधियों का केंद्र है। जगदलपुरी 'बेलमैटल' की दुकानें, बांस से बना सामान और वनवासी जीवन की आकृतियां समेटे काष्ठशिल्प…यहां आप बस्तरी हस्तशिल्प की झांकी ले सकते हैं। इस हुनर को और करीब से परखने के लिए हम पहुंचे एर्राकोट गांव। एक संयुक्त वनवासी परिवार का यह आंगन गतिविधियों से भरपूर था। आंगन में बच्चों की चहल-पहल थी और बुजुगार्ें की बैठकी भी। एक तरफ धातु को गलाने की भट्टी थी तो दूसरी तरफ मोम का आवरण लपेटे मिट्टी की आकृतियां धातु का पतरा ओढ़ने के लिए तैयार रखी थीं। यह पूरी प्रक्रिया खासी जटिल, श्रमसाध्य और दिलचस्प है।
बस्तर के कलेक्टर अमित कटारिया इस कला साधना को ही क्षेत्र की पहचान मानते हैं और उनकी राय में नक्सलवाद, कम से कम बस्तर अंचल में, पीछे धकेल दिया गया है। वे कहते हैं, 'बस्तर अच्छी चीजों के लिए जाना जाता था और यही होना भी चाहिए। मुठभेड़ और पोस्टमार्टम के आंकड़े असली बस्तर नहीं हैं। यहां की कला और परंपरा में हिंसा और भड़कावे का कोई भी उफान ठंडा करने की ताकत है।
जगदलपुर में वनवासी शिल्प साधना की झांकी और आधुनिक मॉल का संगम देखने के बाद हमने राह पकड़ी कांगेर घाटी और दरभा की। सुकमा जिले की दरभा घाटी कांगेर वनक्षेत्र से सटी है। २०१५ में यहां दुर्दांत नक्सली हमले में प्रदेश कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं सहित 28 लोगों की जान गई थी। इसी वनक्षेत्र में हैं विश्व की दूसरी सबसे लंबी 'पाताल गुफाएं।' रिसते पानी से कटती-घिसती अजब आकृतियों वाली इन लाखों वर्ष पुरानी लाइमस्टोन गुफाओं का नाम वनक्षेत्र के भीतरी गांव कुटुमसर पर रखा गया है।
जंगल में रास्ता बताने के लिए साथ आए नवयुवक बासुकी (नाम परिवर्तित) से जब कोटमसर गांव के बारे में जानना चाहा तो वह बस मुस्करा दिया। जब दोबारा पूछा कि यहां तक कौन-कौन आता है तो चौंकाने वाला जवाब मिला, 'ईसाई मिशनरी और कभी-कभी वो (नक्सली)भी …सब आते हैं।'
बासुकी के अनुसार, 'लोग कनवर्ट हो रहे हैं। कुछ नक्सली भी बनते हैं लेकिन शुरू में दोनों का ही कुछ पता नहीं चलता। बाद में रंग-ढंग हरकतों से खुलासा चलता है।' वनवासी इन लोगों से घबराते हैं। इनसे शादी ब्याह भी नहीं करना चाहते मगर परिस्थितियों के कारण साथ फंसे हैं। थोड़ा ओर जोर देकर पूछा -नक्सली पहले से कमजोर हुए हैं या ताकतवर। मुंह पर उंगली रखे बासुकी ने जोर से बोलने को मना किया। श..श्..श्.. (नक्सली शब्द का इस्तेमाल किए बिना जवाब दिया) चोट लगी है मगर धमका-चमका के उनका काम चल रहा है। लोग डरे हुए हैं लेकिन मात खाने वाले हमले की घात में हैं।
यह अनुभव तस्वीर का दूसरा रुख बताता था। जंगल से कोंडागांव के लिए निकले तो संकरी सड़क पर एक वैन दिखी… पूछा तो पता चला '१०८' है। १०८ यानी निशुल्क स्वास्थ्य सेवा। कहीं भी, कभी भी बस फोन घुमाओ वैन पहुंच जाती है। जंगल-पठार के इलाके में लोगों के लिए यह सबसे बड़ी राहत है।
जगदलपुर से ८० किलोमीटर दूर कोंडागांव पहले बस्तर प्रमंडल का ही हिस्सा रहा है। प्रशासनिक सुगमता के चलते जनवरी २०१२ से इसे अलग जिला बना दिया गया है। यह इस अंचल की घोषित शिल्प नगरी है। मुख्य राज्यमार्ग पर ही दिखा झिटकू-मिटकी कांस्य कला केंद्र। झिटकू और मिटकी बस्तर की प्रसिद्ध प्रेमकथा के नायक नायिका है। वनवासी शिल्पकार इन्हें आधार बनाकर खूब कलाकृतियां गढ़ते हैं।
कला केंद्र बीस शिल्पकार टोलियों के सहकार से चलता है जिनमें सौ से ज्यादा लोग जुड़े हैं। पास ही है किड़ईछेपड़ा गांव। पहला राज्य पुरस्कार प्राप्त करने वाले और अब राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके तीजू राम विश्वकर्मा यहां दो दर्जन शिल्पकारों की टोली के साथ कला साधना में जुटे हैं। तपते लोहे की महक और हथौड़े की चोटों से प्रतिस्पर्धा की सकारात्मक गूंज पैदा हो रही है। अपने पड़ोसी की उपलब्धि से प्रेरित तातीराम और सुनील विश्वकर्मा का परिवार राज्य स्तरीय प्रतिस्पर्धा के लिए कलाकृतियां तैयार कर रहा है। पूरे परिवार की यह मेहनत परिवार की महिला मुखिया को समर्पित है जो पास बैठकर पूरे काम को तल्लीनता से देख रही हैं। तीजू कहते हैं, 'मेहनत बहुत है लेकिन हमारे पुरखे हमें हमारी तरक्की का गुर दे गए हैं।'
कोंडागांव के भूपेश तिवारी करीब तीन दशक से इस क्षेत्र के मिट्टी, धातु और काष्ठ शिल्पकारों को अपने गैर सरकारी संगठन 'साथी' के माध्यम से पहचान दिलाने की मुहिम में जुटे हैं। उनकी संस्था के प्रयासों से इन कारीगरों का काम इटली, यूरोप और अमेरिका के बाजारों तक पहुंचा है और यहां के कारीगरों ने लंबी विदेश यात्राएं की हैं। जहां रायपुर तक जाने पर भी चर्चा होती हो वहां के शिल्पकारों के लिए विदेश यात्रा बड़ी बात है।
स्थानीय हुनर को गैर सरकारी संस्थाओं से इतर प्रशासनिक मदद की पहल कोंडागांव में हो चुकी है। कलेक्टर शिखा तिवारी राजपूत बताती हैं कि यहां हस्तशिल्प प्रशिक्षण केंद्र के लिए सिद्धातंत: सहमति है और इसके लिए सर्वेक्षण को मंजूरी मिल भी चुकी है। जाहिर है, बस्तर बाहर से जैसा दिखता है भीतर वैसा नहीं है। अगर था भी तो चीजें ठीक रूप ले रही हैं बदल रही हैं।
बस्तर से लौटते वक्त सोचता हूं तो फरास गांव की वह रोशनियां, दंतेवाड़ा का विकास, जगदलपुर और कोंडागांव के शिल्प कौशल की ताकत महसूस होती है। लेकिन तभी कुटमसर के जंगलों में मिले बासुकी की बात भी जेहन में कौंध जाती है…मात खाने वाले आज भी घात में हैं।
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