सत्य की अधूरी खोज
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सत्य की अधूरी खोज

by
Jan 18, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Jan 2016 12:21:03

जून 2011 में पेनांग, मलेशिया में 'हमारे विश्वविद्यालयों की उपनिवेशीकरण से मुक्ति' विषय पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था, जिसमें पश्चिम से बाहर के विश्वविद्यालयों को पश्चिमी संस्थानों द्वारा पहंुचाई गई हानि चर्चा का मुख्य विषय रही। 'पश्चिम की सांस्थानिक घुसपैठ' पर चर्चा करते हुए वक्ता इस निष्कर्ष पर पहंुचे -' हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि यूरोप केन्द्रित प्रत्येक बिन्दु हमारे विश्वविद्यालयों की कई अंतर्निहित विधाओं में झलकता है। पश्चिम ने हमारे प्रकाशन, सिद्धांतों, अनुसंधान के आदर्शों को भी प्र्रभावित किया है जो हमारी संास्कृतिक और बौद्धिक परंपरा के लिए उचित नहीं है।' सांस्कृतिक समालोचक प्रो. एडवर्ड सैद ने कहा कि 'पश्चिम ने बर्बरता, जनजातीयता और आदिम व्यवस्थाओं को विकसित किया।' वास्तव में सैद उन कुछ अध्येताओं में थे जिन्होंने पश्चिम के सांस्कृतिक आक्रमण से पूर्वीय संस्कृति को पहुंचे नुकसान की चर्चा की। जाने-माने समाजशास्त्री जे.पी.एस. ओबेराय ने विज्ञान पर पश्चिमी प्रभुत्व के विभिन्न प्रभावों की चर्चा की। हाल ही में भारत में विज्ञान पर यूरोप केन्द्रित विचारों और यूरो मार्क्सवाद का प्रतिवाद करने के लिए भगवाकरण के आरोप उछाले गए। 
3 से 7 जनवरी 2016 तक मैसूर विश्वविद्यालय में भारतीय विज्ञान कांग्रेस भगवाकरण के इन आरोपों की साक्षी बनी। भारत में जन्मे नोबल पुरस्कर्ता वेंकटरमन रामकृष्णन ने भारतीय विज्ञान के बारे में कहा कि भारतीय विज्ञान कांंग्रेस ने बहुत कम लक्ष्यों को प्राप्त किया और यह 'दरअसल एक सर्कस थी जिसमें विज्ञान पर बहुत कम चर्चा हुई।' बी.एम. बिरला विज्ञान केन्द्र, हैदराबाद के बी.जी. सिद्धार्थ ने इसे 'विज्ञान का कुंभ मेला' बताया, जिसका पूरा ध्यान प्रधानमंत्री की यात्रा पर केन्द्रित रहा। महाराष्ट्र में पिछले साल हुई राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में प्रधानमंत्री द्वारा अपने उद्घाटन भाषण में भगवान गणेश का संदर्भ लेने पर ही वामपंथियों और सेकुलर लॉबी ने इसे फासीवाद और भगवाकरण का नाम दे दिया था। 
बाद में इस 'भगवाकरण' को गाढ़े वैचारिक रुझान और अलगाववादी प्रवृत्तियों वाले वैज्ञानिकों के एक समूह ने देश में कथित तौर पर बढ़ती 'असहिष्णुता' के साथ संस्थागत रूप दे दिया। सेन्टर फॉर सेल्यूलर एंड मोलिक्यूलर बायोलॉजी के संस्थापक निदेशक पी.एम. भार्गव ने अपना पद्मभूषण सम्मान देश में बढ़ रही इस 'असहिष्ण्ुाता' के विरोध में लौटा दिया था। 29 अक्तूबर 2015 को हिन्दुस्तान टाइम्स से बातचीत में भार्गव ने रा.स्व. संघ पर उसके कथित अल्पसंख्यक विरोधी रुख के लिए पाबंदी लगाने की मांग तक कर डाली। इससे यह स्पष्ट हो गया कि यह समूची चर्चा विज्ञान के विषय से संबंधित नहीं बल्कि पूरी तरह से रा.स्व. संघ के विरुद्ध अपनी भड़ास मिटाने की सोची-समझी नीति थी। भार्गव जैसे वैज्ञानिकों का यह समूह वास्तव में संघ के प्रति अपने पूर्वाग्रहों की अभिव्यक्ति करना चाहता था। प्रिंस्टन के गणितज्ञ मंजुल भार्गव, जो फील्ड्स मेडल, नोबल प्राप्त करने वाले भारतीय मूल के पहले वैज्ञानिक हैं, ने कहा कि भारतीय विज्ञान कांग्रेस में कई सकारात्मक चीजें हासिल हुईं। उनका कहना था कि विज्ञान कांग्रेस का यह लक्ष्य सफल रहा कि सुदूर देशों से आए वैज्ञानिकों ने एक जगह एकत्रित होकर विज्ञान पर चर्चा की और कांग्रेस में उभरे विभिन्न आम सहमति के क्षेत्रों में रुचि दिखाई। शीर्ष अंतरिक्ष वैज्ञानिक जी. माधवन नायर ने वैज्ञानिकों द्वारा सम्मान वापसी के निर्णय को गलत बताया। उनके शब्दों में, देश में बढ़ती 'असहिष्णुता' उन वैज्ञानिकों के मन की कल्पना थी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलूरु के पूर्व निदेशक जी. पद्मनाभन ने कहा कि बढ़ती 'असहिष्णुता' का विवाद और उसे लेकर पूर्वाग्रह से ग्रस्त आक्रोश खतरनाक साबित हो सकता है। भारत में हो रहे आतंकी हमले उसी जिहादी आंदोलन का नतीजा हैं। ऐसे प्रकरणों में बुद्धिजीवी लोग या तो मौन धारण कर लेते हैं या फिर कह दिया जाता है कि आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता। लेकिन जब कोई हिन्दू समूह छोटी गतिविधि में भी संलिप्त मिलता है तो जरा भी समय गंवाए वे उसे 'हिन्दू आतंकवाद' की संज्ञा देने से नहीं चूकते।
इससे पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में 2014 में हुई भारतीय इतिहास कांग्रेस में एक प्रस्ताव पारित कर मिथकों को भारतीय विज्ञान का अंग बनाए जाने और उनको इतिहास के रूप में स्थापित करने की कोशिशों का विरोध किया गया था। ऐसी चीजों को इतिहास से जोड़ने पर जोर दिया गया। पारंपरिक भारत पर वामपंथी इतिहासकारों  द्वारा लिखी गई मुख्यधारा की इतिहास पुस्तकें, जैसे डी.एन. झा की 'प्राचीन भारत' अथवा रोमिला थापर की 'पेंग्विन हिस्ट्री ऑफ अर्ली इंडिया' भारतीय वैज्ञानिक उपलब्धियों पर पूरी तरह से मौन दिखाई पड़ती हैं। आर्यभट्ट के बाद वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य की एक लंबी परंपरा में भारत में गणित और चिकित्सा के क्षेत्र में कई व्यक्तित्व आते हैं। उनमें वटेश्वर, मंजुला, आर्यभट्ट द्वितीय, श्रीपति, शतानन्द, महावीर, श्रीधर, नारायण पंडित, माधव तथा चक्रपाणि दत्त शामिल हैं। नटराज की प्रतिमा, जो सृष्टि के निर्माण और विनाश को प्रदर्शित करने वाले शिव के तांडव नृत्य को दिखाती है। 2004 में भारत सरकार ने  'यूरोपियन सेंटर फॉर रिसर्च इन पार्टिकल फिजिक्स' (सीइआरएन) जेनेवा को भेंट की थी।
ऐसे गंभीर आरोप लगाए गए हैं कि मैसूर विज्ञान कांग्रेस में भगवान शिव को पारिस्थितिकी के संरक्षक के रूप में प्रदर्शित किया गया था। यजुर्वेद के तैत्तरीय संहिता के शतरु द्रीय प्रकरण में रुद्र को पर्यावरण के कई रूपों के संरक्षक के रूप में वर्णित किया गया है। लेकिन भगवाकरण का आरोप लगाने वाले वास्तविक पक्ष की अनदेखी करते हैं। आवश्यकता है कि वे और पक्षों को भी देखें।
रोमन कैथोलिक द लिटिल फ्लावर चर्च और सेंट जार्ज चर्च केरल के कोझिकोड जिले में स्थित पश्चिम घाट क्षेत्र में बड़ी मात्रा में खनन का काम करवा रहे हैं। प्रो. माधव गाडगिल के नेतृत्व वाले वेस्टर्न घाट्स इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल (डब्ल्यूजीइइपी) का मालाबार कैथोलिक चर्च के लोगों ने काफी विरोध किया था। वे लोग जो विज्ञान कांग्रेस में शिव के नाम पर भगवाकरण की बात कर रहे हैं, जबकि पश्चिम घाट क्षेत्र में कैथोलिक चर्च द्वारा किए जा रहे विध्वंसकारी कृत्यों का समर्थन करते रहे हैं।
सेकुलर वैज्ञानिक समुदाय की यह दोमुंही और गिरगिटिया चाल कई परिप्रेक्ष्यों में दखल की मांग करेगी। वे तब मौन धर लेते हैं जब दिल्ली का एक वैज्ञानिक मारा जाता है और पांच लोग घुसपैठियों की खुली गोलीबारी में 28 दिसम्बर 2005 को इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में घायल हो जाते हैं। पुलिस ने इसमें पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा का हाथ होने से इनकार नहीं किया था।
नवम्बर 2007 में जब एक मौलवी ने कोलकाता में लेखिका तस्लीमा नसरीन के खिलाफ फतवा जारी किया था तो उन्हें कोलकाता छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा था और वाममोर्चा सरकार ने उनको सुरक्षा देने से इनकार कर दिया था। 2010 में केरल में कथित मजहब विरोधी कृत्य का बदला लेने के लिए न्यूमैन कालेज के एक प्रोफेसर टी.जे. जोसफ का हाथ कलाई से काट दिया गया। इसमें एक मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन पोपुलर फ्रंट के सदस्यों की संलिप्तता उजागर हुई थी। इतिहासकार श्रीधर मेनन और अमलेन्दु डे को वाम तत्वों द्वारा धमकी दी गई क्योंकि उन्होंने उनकी पार्टी लाइन के आगे झुकने से मना कर दिया था। वैज्ञानिक समुदाय को केरल और पश्चिम बंगाल में, जहां मार्क्सवादी सरकारें उनकी संरक्षक थीं, कोई असहिष्णुता नजर नहीं आई। रेशनलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष सानल इदामरुकु मुम्बई में एक चर्च में कथित चमत्कार पर प्रश्न उठाते हैं। अप्रैल 2012 में कैथोलिक चर्च सानल के विरुद्ध मुम्बई के कई पुलिस थानों में शिकायतें दर्ज करा देता है, उन्हें कई पुलिसथानों में अपमानित किया जाता है और धमकाया जाता है। अंत में 31 जुलाई 2012 को सानल भारत छोड़ देते हैं और फिनलैंड में जा बसते हैं। भारत के वैज्ञानिक समुदाय ने इसके विरोध में कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया, क्योंकि तब की केन्द्र सरकार उनके वैचारिक संरक्षक दलों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर देती थी।  इसी तरह मुंबई में जब विभिन्न कैथोलिक चर्च संगठन कैजाद कोतवाल द्वारा निर्देशित 'एग्नेस ऑफ गॉड' नामक नाटक पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं तो सेकुलर वैज्ञानिकों का समूह कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता। अंतत: अक्तूबर 2015 में भयभीत कोतवाल को मैरिन ड्राइव पुलिस थाने में अपनी सुरक्षा की गुहार लगानी पड़ती है।
असहिष्णुता के विरोध में और सेकुरवाद के लिए मशाल उठाने वाले भारत के इस वैज्ञानिक समुदाय की प्रतिबद्धता और पारदर्शिता को दिवंगत डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम से जुड़ी एक घटना से समझा जा सकता है। राष्ट्रपति के रूप में डॉ. कलाम ने 2006 में नालंदा विश्वविद्यालय का गौरव एक प्राचीन विश्वविद्यालय के रूप में पुनर्जीवित करने का सुझाव दिया था। बाद में डॉ. कलाम ने पूर्व विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा को लिखा कि इसे डॉ. अमर्त्य सेन के नेतृत्व में जिस तरीके से चलाया गया उससे वे बहुत क्षुब्ध हैं।     -डॉ. वी.एस. हरिशंकर

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