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मालदा में मुस्लिम दंगाइयों के कोहराम ने सेकुलर पत्रकारों और मीडिया के चेहरों पर से नकाब उतार दिया। ढाई लाख दंगाइयों ने सड़कों पर हिंसा का नंगा नाच किया, लेकिन ज्यादातर न्यूज चैनल तय कर चुके थे कि वो यह जानकारी बाकी देश तक नहीं पहुंचने देंगे। न्यूज चैनल ही नहीं, अखबार भी लगभग मौन रहे। मीडिया द्वारा सेंसरशिप का यह अपने आप में अनोखा मामला रहा। दादरी में दो परिवारों के झगड़े के लिए पूरे हिंदू समुदाय को कसूरवार ठहराने वाला मीडिया मालदा में हिंसा को रफा-दफा करने में जुटा रहा।
सिर्फ जी न्यूज ने मालदा का सच लोगों तक पहुंचाया। इतना ही नहीं, उसने बाकी मीडिया के दोहरे रवैये पर भी खुलकर टिप्पणी की। चार दिन बाद कुछ चैनलों ने मानो सकुचाते हुए खबर दिखाई। एबीपी न्यूज ने बहस कराई कि क्या मुसलमानों की कट्टरता को नजरअंदाज किया जाता है? लेकिन बहस में बड़ी सफाई से मुद्दे को मालदा से भटकाकर कहीं और पहुंचा दिया गया। बहस में 2 मुसलमान विधायकों ने पैगंबर की आलोचना करने वालों को मौत की सजा की मांग की, मानो यह भारत नहीं बल्कि पाकिस्तान हो। इसी बहस में सपा के विधायक ने आजाद मैदान में मुस्लिम हिंसा के लिए भी संघ को जिम्मेदार ठहरा दिया। जब भाजपा के प्रवक्ता ने जवाब देने की कोशिश की तो एंकर ने उन्हें चुप कराकर एक और झूठ को स्थापित करने में मदद की। आश्चर्य इस बात का है कि मीडिया ऐसे झूठ और गैरजिम्मेदाराना बयानों को बहुत सहज ढंग से लेता है।
बंगाल के मदरसे में राष्ट्रगान सिखाने पर मौलवी की पिटाई की खबर भी सुर्खियों में रही। लेकिन इसे भी टीवी चैनलों ने अनमने ढंग से दिखाया। लगभग हर चैनल ने उन कठमुल्लाओं के बयानों को प्रमुखता से सुनाया, जिन्होंने मौलवी की पिटाई को सही ठहराया।
एनडीटीवी की प्रतिक्रिया बाकी चैनलों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही 'शुतुरमुर्गी' रही। दादरी हत्याकाड़ के वक्त सबसे ज्यादा मातम मनाने वाले पत्रकारों की पूरी टोली 2-3 दिन तक गायब रही। इस बार कोई मालदा नहीं गया और किसी ने वहां के पीडि़तों का दर्द देश तक नहीं पहुंचाया। चैनल पर कुछ नोबेल विजेताओं को बिठाकर वैश्विक समस्याओं के समाधान तलाशे जा रहे थे। इतना ही नहीं, चैनल की वेबसाइट पर एक लेख के जरिए बेहद बचकाने तर्क दिए गए कि उन्होंने मालदा की खबर क्यों नहीं दिखाई। इस लेख के नीचे यह भी स्पष्ट कर दिया गया था कि यह लेखक का निजी विचार है। इस लेख को चैनल में काम करने वाले पत्रकारों ने फेसबुक और ट्विटर पर फैलाने की भरपूर कोशिश की।
दरअसल, जाने-अनजाने कुछ पत्रकारों ने खुद को नैतिकता का पहरेदार घोषित कर दिया है। लेकिन दोहरे रवैये के साथ। इन्हें बुरके का विरोध करने पर केरल के मिुस्लम फोटोग्राफर का स्टूडियो जलाने में कुछ गलत नहीं दिखता। लेकिन हिंदुत्व को लेकर सीधे बयानों को भी उलटा करने का उतावलापन रहता है। इनके लिए आजम खान जैसे लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी सर्वोपरि है, लेकिन जवाब में मुंह खोलने वाले का गला काटने की मांग में इन्हें कुछ गलत नहीं दिखता। ये संविधान और कानून के राज की वकालत करते हैं, लेकिन एक 'अराजकतावादी' मुख्यमंत्री के हर छोटे-बड़े फैसले में संविधान को ठेंगा दिखाने को सही ठहराते हैं। जब कोई नक्सली या उसका मददगार पकड़ा जाता है तो ये लोग इसी भारतीय कानून को तनमफम और जरूरत से ज्यादा सख्त करार देते हैं।
पठानकोट में वायुसेना के स्टेशन पर आतंकी हमले का मामला सबसे ज्यादा सुर्ख्िायों में रहा। टीवी चैनलों ने फिर से वो सारी गलतियां कीं, जो उन्होंने मुंबई हमलेे के वक्तकी थीं। ट्विटर पर एक सेवानिवृति सैनिक अधिकारी ने एनडीटीवी की 'लाइव कवरेज' का समयवार वर्णन दिया कि कैसे इस चैनल पर दी गई जानकारियां आतंकवादियों के काम आई होंगी। दूसरे चैनलों का रवैया भी कम गैरजिम्मेदाराना नहीं रहा। ऑपरेशन के बारे में नियमित प्रेस ब्रीफिंग में सेना के अधिकारी ने कहा कि अभी संख्या के बारे में बात न करें, क्योंकि मुठभेड़ अभी जारी है, तो कई चैनलों ने खबर चलाई कि 'सेना को नहीं पता कि कितने आतंकवादी हैं'।
पठानकोट हमलेे पर मीडिया और कुछ संपादकों का रवैया मोदी सरकार को 'सबक सिखाने' वाला रहा। पहले ही दिन सभी चैनलों ने शहीदों की संख्या बढा-चढाकर बताई। जबकि सेना या सरकार की तरफ से ऐसी कोई जानकारी नहीं दी गई थी। जब जवान आतंकवादियों से लोहा ले रहे थे, उसी समय संपादकों और पत्रकारों की एक जानी-पहचानी टोली प्रधानमंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और सेना पर छींटाकशी में जुटी थी। नवभारत टाइम्स अखबार सोशल मीडिया के जरिए अफवाहें उड़ा रहा था। इसने ट्विटर पर खबर दी कि भाजपा ने कहा है कि सिर्फ एक हमले से बातचीत रद्द नहीं होगी। जबकि किसी भाजपा नेता ने ऐसा कुछ नहीं कहा था।
दरअसल ऐसी गलतियां करके मीडिया खुद अपनी विश्वसनीयता को खत्म कर रहा है। लोग अब उन संपादकों और पत्रकारों को पहचानने लगे हैं जो खबरों के चुनाव में भी 'खेल' कर रहे हैं। -नारद
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