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वास्तव में एक जीवन्त व्यक्तित्व और स्मरण शक्ति के धनी थे डॉ. नित्यानंद। 1990 में डॉ. नित्यानंद से पहली बार मिला था जब में माख्ती प्रोजेक्ट को कवर करने एक रिपोर्टर के तौर पर में देहरादून के जौनसार क्षेत्र में गया था। इसके बाद एक बहुत बड़े लम्बे अन्तराल के बाद मैं उनसे 2013 में देहरादून में मिला। वह अस्वस्थ थे और आंखों में कुछ समस्या के कारण पूरी तरह नहीं देख पा रहे थे। इसके बावजूद उन्होंने न केवल मुझे ही पहचाना बल्कि कई ऐसे प्रसंगों की भी चर्चा की जो मैंने 1990 में पहली मुलाकात में उनसे कही थी।
डॉ. नित्यानंद के पास अद्भुत स्मरण शक्ति थी। उनका व्यवहार एक संत की तरह था और व्यक्तित्व विराट था। वे संघ के लाखों स्वयंसवकों और विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए एक विशिष्ट आदर्श थे। यही श्रद्धा और प्रेमभाव 9 जनवरी को हजारों की संख्या में उमड़ी भीड़ से दिखा जब देहरादून संघ कार्यालय में अंतिम दर्शनों के लिए उनका पार्थिव शरीर रखा गया था। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री श्री हरीश रावत उन्हें श्रद्धाञ्जलि देने संघ कार्यालय पहुंचे। अगले दिन हरिद्वार के खडखड़ी घाट में जब उनका अन्तिम संस्कार हो रहा था तो हजारों लोगों ने उनको श्रद्धाञ्जलि दी। अत्येष्टि क्रिया को एक स्वयंसेवक रमेश ने सम्पन्न किया। जिन्होंने लगभग 3 दशक तक उनकी सेवा की थी। उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्रियों श्री भगत सिंह कोश्यारी और डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' सहित अनेक विशिष्ट लोगों ने पावन आत्मा को श्रद्धासुमन अर्पित किए।
डॉ. साहब के नाम से लोकप्रिय नित्यानंद जी का स्वास्थ्य पिछले 3 वर्षों से ठीक नहीं था। इसी कारण 2013 में उनको उत्तरकाशी जिले के मनेरी गांव से देहरादून लाया गया था। लगभग 2 दशकों तक मनेरी उनकी कर्मभूमि रही और इसी कारण 13 जनवरी को भागीरथी में उनकी अस्थियों का विसर्जन किया गया।
20 अक्तूबर, 1991 को जब उत्तरकाशी में आए विनाशकारी भूकम्प से आस-पास को क्षेत्रों में हजारों लोग मारे गए और 20 हजार से भी अधिक मकान ध्वस्त हो गए तो डॉ. नित्यानंद पुनर्निर्माण कार्य में सहायता के लिए मनेरी पहुंचे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने उत्तराञ्चल दैवीय आपदा पीडि़त सहायता समिति स्थापित की। मनेरी में उन्होंने स्थानीय लोगों के बीच रहकर नि:स्वार्थ सेवा द्वारा लोगों को जो स्वयं को इस बड़े विनाश के बाद असहाय और अनाथ समझ रहे थे। 1926 में आगरा में जन्मे नित्यानंद जी 1940 में रा.स्व.संघ के प्रचारक श्री नरहरि नारायण के सम्पर्क में आकर स्वयंसेवक बने थे। वे श्री भाऊराव देवरस एवं पं. दीनदयाल उपाध्याय की प्रेरणा से 1944 में प्रचारक बने। वह दो बहनों में अकेले भाई थे। आर्थिक दबावों के चलते उन्हें परिवार में वापस लौटना पड़ा। उन्होंने परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आगरा में स्थित अपने पुश्तैनी मकान को बेच दिया। इसके बाद वे अध्यापन से जुड़ गए। 1965 में वे डीबीएस स्नातकोत्तर महाविद्यालय, देहरादून में भूगोल विभाग के प्रभारी के नाते आए और सेवानिवृत्ति तक यहीं रहे। उसके बाद उन्होंने पुन: संघ के उसी कार्य को पकड़ा। जो उनका पहला प्रेम था। वे 20 वर्ष तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के, जिसमें तब उत्तराखंड राज्य भी था, प्रांत कार्यवाह रहे।
अंतरराष्ट्रीय ख्याति के भूगोलविद् डॉ. नित्यानंद के कई शोध पत्र और लेख ऐसोसियशन ऑफ अमेरिकन ज्योग्राफर्स मैगजीन में प्रकाशित हुए। आपातकाल के 18 महीनों की अवधि में उन्होंने स्मारकों पर केन्द्रित कार्य किया जो 'दि होली हिमालया ज्योग्राफिकल इंटरप्रीटेशन ऑफ गढ़वाल' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वे भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के सदस्य भी रहे। उन्होंने इतिहास पर कई पुस्तकें लिखीं। 1980 में उन्होंने साक्षरता के लिए गढ़वाल कल्याण संस्थान की स्थापना की। जौनसार भाबर क्षेत्र में शिक्षा के साथ वहां की लोकसंस्कृति के प्रचार प्रसार का भी उन्होंने कार्य किया।
2001 में पृथक राज्य उत्तरांचल की स्थापना में उनकी निर्णायक भूमिका रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को प्रभावी बताया कि उत्तर प्रदेश जैसे विशालकाय राज्य का हिस्सा रहते पर्वतीय क्षेत्र का अपेक्षित विकास नहीं हो पाएगा। और बिना विकास के यहां से पलायन को रोक पाना कठिन है। इसी कड़ी में उत्तरांचल उत्थान परिषद के माध्यम से उन्होंने प्रवासी पंचायत की अवधारणा दी। जिसके परिणामस्वरूप प्रवासी लोग अपने गांव के विकास में हाथ बंटाने लगे।
डा. नित्यानंद को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए राज्यसभा सांसद श्री तरुण विजय ने कहा कि वे संघ विचार के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनके जीवन से ही संघ कार्य को समझा जा सकता था। डॉ. नित्यानंद ने आजीवन अविवाहित रहकर केवल संघ कार्य के लिए सर्वस्व अर्पित करने का संकल्प लिया था। उन्होंने हजारों स्वयंसेवकों के जीवन को आकार दिया और भावी पीढ़ी के लिए एक नया रास्ता बनाया।
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