|
कुछ मौके होते हैं जब तटस्थता के कोई मायने नहीं होते। दिसंबर 2015 की आखिरी तारीख को जब ढाका न्यायालय ने इस्लामी कट्टरता मुक्त बंगाल का सपना देखने वाले सेकुलर ब्लॉगर अहमद रजीब हैदर के दो हत्यारों-फैसल दीन नईम और रिद्वानुल आजाद राणा को फांसी की सजा सुनाई तो देश में दो ही प्रकार की प्रतिक्रियाएं थीं। एक तरफ थे अहमद रजीब हैदर को श्रद्घांजलि देने वाले और दूसरी तरफ थे इस्लाम के नाम पर हत्यारों की पैरवी करने वाले। बीते साल यहां ऐसे पांच ब्लॉगर्स की हत्या हुई है। लेकिन कानून तेजी से अपना काम कर रहा है। एक जनवरी 2016 को ढाका मेट्रोपोलिट पुलिस के संयुक्त कमिश्नर ने मीडिया के समक्ष बयान दिया कि 'मारे गए पांच ब्लॉगरों में से चार-वशीकुर रहमान बाबू, अविजित राय, अनंत बिजय और नीलाद्रि की हत्या की गुत्थी सुलझा ली गई है। जबकि ब्लॉगर और प्रकाशक फैसल अरेफिन दीपान की हत्या की जांच जारी है।
बंगलादेश में आज दो ही पक्ष हैं, या तो आप काजी नजीरुल इस्लाम के साथ हंै अन्यथा जनरल नियाजी के साथ खड़े हंै। या तो आप बंगलादेश के मानवतावादी ब्लॉगर्स के साथ हैं अन्यथा उनके हत्यारों के साथ। फिलहाल बंगलादेश की सरकार और कानून अपनी धरती को नियाजी और टिक्का खान के प्रेतों से मुक्त करवाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि विपक्षी पार्टी बीएनपी और जमात ए इस्लामी समेत उसके अन्य सहयोगी दल बंग्लादेश मुक्ति संग्राम की बुनियाद को झुठलाने और वहशी हत्यारों की विरासत का फख्र कर रहे हैं।
यह सारा घटनाक्रम बंगलादेश के जन्म, पाकिस्तानी फौज के वहशीपन और तब से चली आ रही साजिशों की शृंखला से जाकर जुड़ता है। 1971 के कातिलों को फांसी देने की मांग को लेकर फरवरी 2013 में ढाका के शहबाग चौक पर एक विशाल जन आंदोलन का जन्म हुआ था जिसका नेतृत्व युवा मानवतावादी ब्लॉगर्स कर रहे थे। फिर इन ब्लॉगरों की हत्या का सिलसिला शुरू हुआ। हत्या करने वाले जमात ए इस्लामी बंगलादेश की छात्र इकाई इस्लामी छात्र शिविर और उससे संबद्घ अंसारुल्ला बंगला टीम के गुर्गे थे। अमरीका से प्रकाशित 'आईएचएस जेन्स 2013 ग्लोबल टेररिज्म एंड इन्सर्जेन्सी अटैक इंडेक्स' में इस्लामी छात्र शिविर को दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सशस्त्र समूह बतलाया गया है। जमात ने 1971 में बंगालियों की हत्याएं और बलात्कार करने वाले पाक फौजियों का साथ दिया था। उस समय के युद्घ अपराधी आज इसके शीर्ष पदों पर बैठे हैं। जिन पर मुकदमे चल रहे हैं और सजाएं सुनाई गई हैं। अंसारुल्ला और जमात मिलकर काम कर रहे हैं। अंसारुल्ला का संबंध अलकायदा से भी है और इसकी वेबसाइट का सर्वर पाकिस्तान में स्थित है।
बंगलादेश की वर्तमान उथल-पुथल की प्रति, मूलत: राजनैतिक-सामाजिक और सियासी इस्लामी जड़ों वाली है। कौन कहां खड़ा है इसे अतीत में झांके बिना नहीं समझा जा सकता। 1970 के ऐतिहासिक चुनावों में जब शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के 70 प्रतिशत वोट अपनी झोली में करके 300 में से 288 सीटों पर कब्जा कर लिया था तब जमात ए इस्लामी ने पांच प्रतिशत वोटों के साथ एक सीट जीती थी। ताकत के मद में डूबे पाकिस्तानी राष्ट्रपति याहिया खान और जुल्फिकार अली भुट्टो ने शेख मुजीबुर्रहमान को उनका हक देने से मना कर दिया। जमात पाक फौज के साथ हो गई। उसे उम्मीद थी कि पाकिस्तानी फौजी बंगाली विद्रोह, आवामी लीग और मुक्ति वाहिनी को कुचल डालेंगे। तब पूर्वी पाकिस्तान में जो राजनैतिक रिक्तता पैदा होगी उसमें फौज के समर्थन से वह पूरी तरह छा जाएगी, सत्ता की सूत्रधार बन जाएगी। बंगाल में खूंरेजी करने के लिए पाक सेना ने रजाकार , अल बद्र और अल शम्स नामक सशस्त्र गिरोह तैयार किये। जिनमंे जमात के युवा नेतृत्व ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जमात की युवा इकाई के तत्कालीन प्रमुख मतीउर रहमान निजामी ने अल बद्र का नेतृत्व किया। निजामी जमात ए इस्लामी बंगलादेश का वर्तमान प्रमुख है और उसे 71 के युद्घ अपराधों के सिलसिले में अक्तूबर 2014 में मौत की सजा सुनाई गई है।
भारत के हस्तक्षेप और मुक्तिवाहिनी के शौर्य से जमात के मंसूबे अधूरे रह गए। पाकिस्तानी फौज की शर्मनाक हार हुई। आरोपों के बीच मुजीब 1975 में एक पार्टी शासन लेकर आए और उसी साल उनकी हत्या हो गई। एक के बाद एक कई सैन्य विद्रोह और तख्तापलट हुए। फिर बीएनपी की वर्तमान अध्यक्षा और पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के पति मेजर जनरल जियाउर रहमान सर्वेसर्वा बन गए। उन्होंने सभी राजनैतिक दलों पर से (मुजीब के लगाए) प्रतिबन्धों को हटाया। धीरे-धीरे जमात और उसके जैसी जमातें एक बार फिर छुट्टा हो गईं। खूनी अल बद्र इस्लामी छात्र शिविर के नाम से फिर सक्रिय हो गया। जमात का जनसामान्य में विरोध था क्योंकि उसने बंग्लादेश के निर्माण का हिंसक विरोध किया था। 1986 में जमात ने अवामी लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। 1990 में जमात, हुसैन मोहम्मद इरशाद को सत्ता से हटाने के लिए निर्मित अवामी लीग, बीएनपी और वामपंथी गठबंधन का हिस्सा थी। 1991 में जमात ने बीएनपी के साथ मिलकर सरकार बनाई। बीएनपी से मनमुटाव होने के कारण उसकी नजदीकियां अवामी लीग के साथ बढ़ीं और अंतत: 2001 में एक बार फिर बीएनपी और जमात ने मिलकर सत्ता संभाली।
सत्ता की सौदेबाजी में जमात ने खालिदा जिया से दो मांगंे मनवाईं। एक, अल बद्र के पूर्व प्रमुख मतीउर रहमान निजामी के लिए रसूखदार पद और जमात में दूसरे क्रमांक के अली अहसान मुजाहिद के लिए सामाजिक कल्याण मंत्रालय। सामाजिक कल्याण मंत्रालय हथियाने के बाद सारा एनजीओ तंत्र और सामाजिक संस्थाएं जमात के हाथ आ गए और पूरे बांग्लादेश में कट्टरपंथी इस्लामी संस्थाओं की फसल लहलहाने लगी। उदार और प्रगतिशील मुस्लिम-संस्थाओं, अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिन्दुओं के विरुद्घ हिंसा और बलात्कार की बाढ़ आ गई। खालिदा जिया इस ओर से आंखें फेरे बैठी रहीं। भारत के विरुद्घ भी जमात ए इस्लामी बंग्लादेश के मन में जहर पालता आया है क्योंकि भारत के सैन्य हस्तक्षेप ने ही उसके सपनों को चकनाचूर कर दिया था। इसलिए उसके इस्लामी छात्र शिविर ने भारत से सटे जिलों पर विशेष रूप से ध्यान देना शुरू किया, जो आजतक जारी है। शिविर पाकिस्तान की आईएसआई के साथ मिलकर भारत में इस्लामी जिहाद के प्रसार के लिए काम कर रहा है। दूसरी जिहादी तंजीमें और पैसे वाले सऊदी अरब के शेख उसे मदद मुहैया करवा रहे हैं।
अच्छी बात है कि शेख हसीना की वर्तमान अवामी लीग सरकार जमात के पर कतरने के लिए प्रतिबद्घ दिख रही है। 1अगस्त 2013 को बंग्लादेश सवार्ेच्च न्यायालय ने जमात के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इसका सबसे बड़ा नेता मतीउर रहमान निजामी फांसी से बचने के लिए न्यायालय के सामने गिड़गिड़ा रहा है। इसके अनेक बड़े नेता 1971 में, जबरन इस्लाम में कन्वर्जन, बंगालियों की नृशंस हत्याओं और बलात्कारों के लिए सजा पा चुके हैं या कतार में हैं। पूर्व अमीर, गुलाम आजम कारावास भुगतते हुए मर चुका है। देलवार हुसैन सैय्यदी आजीवन कारावास भोग रहा है। अब्दुल कादर मुल्ला को दिसंबर 2013 में, मोहम्मद कमरुज्जमां को अप्रैल 2015 में और अली अहसान मुजाहिद तथा सलाहुद्दीन चौधरी को नवम्बर 2015 में फांसी हो चुकी है।
सो, जमात के नेतृत्व की पहली पंक्ति तो सूली पर लटक चुकी है, और दूसरी पंक्ति इन मुकदमों और सजाओं के खिलाफ खूनखराबा और आगजनी करके जेल पहुंच चुकी है। प्रशासन के दबाव में बचा-खुचा संगठन भी छिन्न-भिन्न हो रहा है। जमात ए के इस्लामी राजनैतिक साथी बीएनपी की हालत भी पतली हो रही है। दिसंबर 2015 में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में उसे मुंह की खानी पड़ी है। अवामी लीग ने 177 और बीएनपी ने मात्र 22 निकाय जीते हैं। सत्ताधारी अवामी लीग को आम चुनावों से भी चार प्रतिशत अधिक 52 फीसद वोट मिले हैं। इन चुनावों में लगभग 80 प्रतिशत मतदान हुआ है। बेगम खालिदा जिया और उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा पाकिस्तानी दुष्प्रचार की तर्ज पर 1971 की नृशंसताओं को 'अतिरंजित' कहने और मारे गए बंगाली बुद्घिजीवियों पर उंगली उठाने की भी व्यापक निंदा हो रही है। उन पांच युवा ब्लॉगरों ने अपना खून देकर समूची पीढ़ी को प्रेरित किया है।
प्रधानमंत्री शेख हसीना के पास अपने पिता शेख मुजीबुर्रहमान की उस ऐतिहासिक गलती को सुधारने का मौका है जब उन्होंने जुल्फिकार अली भुट्टो के बहकावे में आकर बंग्लादेश मुक्ति संघर्ष और बगलादेश की जड़ों, दोनों के साथ अन्याय किया था।
पाकिस्तान के सूत्र अच्छी तरह संभालने के बाद भुट्टो ने अपना ध्यान नवनिर्मित बंगलादेश की तरफ लगाया। भुट्टो बंग्लादेश मुक्ति संघर्ष के युद्घ अपराधियों के खिलाफ मुकदमों को शुरू होने से रोकना चाहते थे। मुजीब के मन में भी इस्लामी भ्रातृवाद और भारत विरोधी भावनाएं मौजूद थीं, भुट्टो ने मुजीब को इस्लामी सहयोग संगठन ( ओआईसी ) का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया। उन्हें दक्षिण एशिया का इस्लामी नेता कहलाने का ख्वाब दिखाया। अपने साथियों के विरोध के बावजूद 1974 में मुजीब ने इस्लामी सम्मलेन में भाग लिया। भुट्टो बंग्लादेश आए तो 'इस्लामी भ्रातृवाद' के नशे में झूमती भीड़ ने आवामी लीग विरोधी नारे लगाए और 'भुट्टो जिंदाबाद' तथा 'बंग्लादेश-पाकिस्तान दोस्ती, जिंदाबाद' का शोर उठा। ये वही भुट्टो थे जो तीन साल पहले बंगाल में की गई तीस लाख हत्याओं और चार लाख बलात्कारों में बराबरी के भागीदार थे। शेष इतिहास है। -प्रशांत बाजपेई
टिप्पणियाँ