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इस वर्ष ‘जनतंत्र दिवस’ पर चूंकि ब्रिटेन के प्रिंस फिलिप भारत वर्ष में ही थे, अत: लंदन के पत्रों के भारत स्थित प्रतिनिधियों ने इस वर्ष के ‘जनतंत्र दिवस’ का विस्तृत विवरण भेजा था। लंदन के सुप्रसिद्ध अनुदारदलीय कट्टर भारत विरोधी दैनिक ‘डेली मेल’ के प्रतिनिधि ने इस संबंध में एक विस्तृत लेख लिखा था जिसका शीर्षक था- ‘भारत में ब्रिटिश राज का भूत’। उक्त लेख के कुछ अंश हम अपने पाठकों की जानकारी के लिए आवश्यक समझकर नीचे दे रहे हैं –
‘…भारत के संबंध में मुझे सबसे अधिक आश्चर्य यदि किसी बात पर होता है तो वह है अंग्रेजों के प्रति स्वतंत्र भारतीयों का प्रेम। इसे एक औसत पाठक भारतीयों की स्वाभाविक नम्रता और उदारता कहेगा, पर ‘जनतंत्र दिवस’ की परेड देखकर उसकी धारणा बदल जायेगी। सभी प्रकार की सेनाओं के सैनिक, नौ सेना के सैनिक, हवाई सर्विस में काम करने वाले कर्मचारी आदि सभी लोग परेड में वही पोशाक पहने दिखाई पड़ेंगे जो ‘ब्रिटिश राज’ ने उनके लिए बनायी थीं। परेड का ढंग भी बिल्कुल वही है, जो अंग्रेज सार्जेंट और मेजरों ने उन्हें सिखाया है। सेना में बैण्ड के जो वाद्ययंत्र हैं, उन पर स्काटिश धुनें निकाली जाती हैं, परोड में भाग लेने वालों का टोपी पहनने का ढंग, चलने का ढंग आदि प्रत्येक बात अंग्रेजी शासनकाल के समान है।
भारतीय लोग अपनी स्वतंत्रता का उत्सव अंग्रेजी ढंग से मनाते हैं। जनतंत्र दिवस के अवसर पर भारत के राष्टÑपति की सवारी जिस कोच पर निकलती है, वह वही कोच है जिसका उपयोग लॉर्ड माउण्ट बेटन राजकीय अवसरों पर करते थे। भारत के राष्टÑपति आज भी उसी सिंहासन पर बैठते हैं, जिस पर कभी भारत के वायसराय बैठते थे।
लेकिन ये सब बातें अब भारतीय जनता के लिए सामान्य बातें हो गयी हैं। ये सब बातें देखकर अब भारतीय लोगों को दु:ख नहीं होता, अंग्रेजों के प्रति उनके मन में बुरी भावना नहीं उठती। राष्टÑमंडल में बने रहने में भारतीय जनता अपना गौरव समझती है। अंग्रेजों को अब भारतीय लोग इतना अधिक चाहते हैं, जितना कोई अन्य नहीं। अंग्रेजों के प्रति, उनके आचार-विचार के प्रति अब भारतीयों के हृदय में अधिक आदर है।….
विकेंद्रित अर्थव्यवस्था के द्वारा ही
मानव मूल्यों की रक्षा संभव
-महामंत्री पं. दीनदयाल उपाध्याय-
19 मार्च को लखनऊ के गंगाप्रसाद स्मारक हॉल में दिया गया एक भाषण
भारतीय जनसंघ के पास एक स्पष्ट आर्थिक कार्यक्रम है। किंतु उसका स्थान हमारे संपूर्ण कार्यक्रम में उतना ही है जितना भारतीय संस्कृति में अर्थ का है। पाश्चात्य संस्कृति भौतिकवादी होने के कारण अर्थप्रधान है। हम भौतिकवाद तथा अध्यात्मवाद दोनों का समन्वय करके चलना चाहते हैं। अत: यह निश्चित है कि जनसंघ उन अर्थशास्त्रियों एवं दलों से जो अर्थ के सामने जीवन के प्रत्येक मूल्य की उपेक्षा करके चलना चाहते हैं, इस मामले में सदैव पीछे रहेगा। जनसंघ हृदय, मस्तिष्क और शरीर तीनों का सम्मिलित विचार करता है। इसी कारण कुछ लोग जनसंघ पर यह आरोप भी लगाते हैं कि जनसंघ आध्यात्मिकता की उपेक्षा करता है। महर्षि अरविंद आदि आध्यात्मिक महापुरुषों की भाषा नहीं बोल पाता है। हम दोनों ही प्रकार के आरोपों का स्वागत करते हैं और इतना ही कहना चाहते हैं कि जो अर्थ समाज की धारणा के लिए आवश्यक है, जितने मात्र से व्यक्ति अपना भरण-पोषण करके अन्य श्रेष्ठ मूल्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास कर सके, उतने को ही हमने अपने कार्यक्रम में स्थान दिया है।
यह संधर्ष सही नहीं है
आज विश्व में दो गुटों का संघर्ष चल रहा है। एक ओर अमरीका के नेतृत्व में पूंजीवादी देश हैं, तो दूसरी ओर रूस के नेतृत्व में समाजवादी अथवा साम्यवादी गुट। यद्यपि हमारी विदेशनीति तटस्थ है पर वैचारिक दृष्टि से हमें उनमें से एक गुट अर्थात समाजवादी गुट में सम्मिलित होने के लिए तैयार किया जा रहा है। जनसंघ चाहता है कि विदेशनीति के समान ही हमें वैचारिक क्षेत्र में भी तटस्थ रहना चाहिए। जो लोग पश्चिमी विचारधारा में पले हैं और उन विचारधाराओं में प्रयुक्त शब्दावली के आधार पर ही दुनिया की सब चीजों को समझ सकते हैं, उनका कहना है कि भारत में भी पूंजीवाद और समाजवाद का संघर्ष चल रहा है। वास्तव में यह विश्व के वैचारिक संघर्ष की प्रतिच्छायामात्र है, उसका अस्तित्व हमारे यहां है ही नहीं। हमारा कहना है कि निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र के संधर्ष की चर्चा यहां उठाना निरर्थक और निराधार है। हमें उससे ऊपर उठकर समस्याओं की ओर देखना चाहिए।
दिशाबोध
प्रगति के मानदंड
जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भरण-पोषण की, उसके शिक्षण की जिससे वह समाज के एक जिम्मेदार घटक के नाते अपना योगदान करते हुए अपने विकास में समर्थ हो सके, उसके लिए स्वस्थ एवं समता की अवस्था में जीविकोपार्जन की और यदि किसी भी कारण वह संभव न हो तो भरण-पोषण की तथा उचित अवकाश की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी समाज की है। प्रत्येक सभ्य समाज इसका किसी न किसी रूप में निर्वाह करता है। प्रगति के यही मुख्य मानदंड हैं। अत: न्यूनतम जीवन स्तर की गारंटी, शिक्षा, जीविकोपार्जन के लिए रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण को हमें मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकार करना होगा।
-पं. दीनदयाल उपाध्याय, विचार-दर्शन खण्ड-4, पृष्ठ संख्या 65
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