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जम्मू-कश्मीर के शीर्ष नेता अक्सर कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर राज्य ने अपनी शर्तों पर अक्तूबर, 1947 में स्वतंत्र भारत के साथ विलय स्वीकार किया था। इस लिए इस राज्य को भारत की अन्य रियासतों के मुकाबले कुछ विशेष अधिकार प्राप्त हैं जिन के कारण राज्य की सरकार और विधानसभा इस राज्य में रहने वाले भारत के नागरिकों को अलग-अलग श्रेणियों में रख सकती है। जम्मू- कश्मीर की राज्य सरकार और विधानसभा को भारत के संविधान के अंतर्गत आज तक मान्य कुछ ऐसे अधिकार प्राप्त हैं जिनसे वे इस राज्य में 26 अक्तूबर, 1947 के पहले से रहते आ रहे भारत के नागरिकों को आजाद भारत में एक खास श्रेणी में रख सकती है और उसके लिए अगर चाहे तो भारत के अन्य नागरिकों के मुकाबले कुछ खास रियायतें दे सकती है। ऐसा करना दूसरे भारत के नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं समझा जाएगा। यह अधिकार आजाद भारत के संविधान में 14 मई, 1954 को राष्टÑपति के आदेश से संशोधित एक नया अनुच्छेद 35 (ए) जोड़कर भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य को अधिकृत रूप में दिया गया था।
जो नेता जम्मू-कश्मीर राज्य के पास ‘विशेष अधिकार’ होने का दम भरते हैं उनसे आज यह पूछने का समय आ गया है कि भारत के संविधान में ‘विशेष अधिकार’ मिलने पर भी इस राज्य के स्थाई निवासी (परमानेंट रेजीडेंट्स) कहे जाने वाले लोगों के बीच ‘उत्तर और दक्षिण’ जैसी दूरियां क्यों हैं? यह सब होने पर भी क्यों पिछले 25 वर्षों से कश्मीर घाटी का एक आम निवासी आतंक और राष्टÑीयता संबंधित भ्रांतियों में जी रहा है? साथ ही जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के लोग फिर भी क्यों समझते हैं कि जम्मू-कश्मीर की सम्पदा पर कश्मीरी (कश्मीर घाटी के लोग) हक जमाए बैठे हैं? इस राज्य के बारे में यह क्यों समझा जाता है कि यहां सत्ता की कमान केंद्र सरकार हमेशा कश्मीर घाटी में रखना चाहती है? विशेष अधिकार होने पर भी क्यों यह कहा जाता है कि पाकिस्तान अधिकृत राज्य के हिस्से से विस्थापित लोग साढ़े छह दशक बाद भी आर्थिक एवं प्रशासनिक सहयोग के लिए दर-दर भटक रहे हैं?
महाराजा हरी सिंह और शेख अब्दुल्ला के कहने पर इस राज्य में पश्चिम पाकिस्तान से 1947 में आए शरणार्थी दशकों बाद भी क्यों इस राज्य में आजाद भारत के नागरिक होने पर भी अपनी अचल संपत्ति रखने एवं सरकारी सेवा में नौकरी पाने जैसे मूल अधिकारों से वंचित हैं? इसी तरह विशेष अधिकार और ‘अपना’ अलग विधान होने का दावा करने वाले क्यों इस राज्य के निवासियों को आज तक भारत की दूसरी रियासतों और केन्द्र सरकार से अच्छे शिक्षा के अधिकार, पंचायती राज व्यवस्था जैसी सुविधा न दे सके? इससे बड़ी चिंता की बात भारत सरकार के लिए और क्या हो सकती है कि जो शब्दावली जम्मू क्षेत्र और कश्मीर घाटी के बीच 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में पड़े मतों की स्थिति को समझाने के लिए इस राज्य के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहमद सईद ने शपथ लेने के बाद इस्तेमाल की थी, वह जम्मू और कश्मीर क्षेत्र के लोगों के भारत और भारतीयता की सीमाओं से संबंधित दृष्टिकोण की भिन्नता की ओर भी संकेत करती है।
निष्पक्ष विचार करने पर जम्मू-कश्मीर रियासत की इस प्रकार की त्रासदी के कारणों का बोध होना अधिक कठिन नहीं है और जिस प्रकार की कुछ शर्तें पीडीपी और भाजपा के एजेंडे पर गठबंधन में लिखी गई हैं, वे कुछ राजनीतिक एवं विदेश नीति संबंधित विषयों की और भी संकेत करती हैं। आम जनहित की मानसिकता रखने वाले किसी भी विचारक के लिए यह आश्चर्य की बात भी हो सकती है कि जो राज्य कभी भाईचारे के लिए जाना जाता था उसकी आजादी के बाद ऐसी स्थिति है! जम्मू-कश्मीर राज्य की जनता को कभी अनुच्छेद 370 पर खड़े किए विवादों में, कभी महाराजा हरी सिंह द्वारा 26 अक्तूबर, 1947 को आजाद भारत के साथ किए विलय की पूर्णता एवं वैधता पर प्रश्न करके, कभी विशेष दर्जे और कभी अलग विधान के नाम पर, कभी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर या पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर जैसी शब्दावली के विवाद में, कभी राज्य के विधान में राज्य का स्थाई नागरिक जैसे प्रावधानों को दोहरी नागरिकता के विवाद के नाम पर उलझा कर और कभी जम्मू-कश्मीर को भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य कह कर उलझनों में डाले रखा गया है।
आम जनता अपने ही बोझ तले पिसती रही है। नेता हर दिन एक नया विवाद लेकर आमजन को उलझाने की ताक में रहे हैं ताकि उनके सत्ता भोग का खेल चलता रहे। जम्मू-कश्मीर ही भारत का एक ऐसा राज्य है, जहां के निवासी साढ़े छह दशक से अपने ही नेताओं द्वारा सामाजिक, प्रशासनिक, राजनीतिक एवं मानसिक शोषण का शिकार होते आ रहे हैं। राष्टÑीयता और क्षेत्रवाद के जिन रंगों में इस राज्य के लोगों के साथ राजनीतिक होली खेली जा रही है उनसे इस राज्य के लोगों को विकास और सामाजिक हित के नाम पर खर्च किए जाने वाले राष्टÑीय कोष का शायद ही कोई सीधा लाभ मिल पाया होगा।
इसलिए राज्य के आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कमजोर आम जन को अब अनुच्छेद 370, पाकिस्तान, विलय, कश्मीरियत, क्षेत्रवाद जैसे ताने-बाने से जुड़े नेताओं के जाल को खुद ही काटना होगा और उन को जमीनी स्तर की आम आदमी की जरूरतों की ओर ध्यान देने के लिए मजबूर करना होगा। वरना मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जो जम्मू- कश्मीर के लोगों की राजनीतिक मानसिकता और आकांक्षाओं की आपसी सोच में दूरियां 1 मार्च, 2015 को यह कह कर बयां की थीं, कि जम्मू क्षेत्र के लोग अगर ‘उत्तर हैं तो फिर कश्मीर घाटी के लोग दक्षिण हैं’, उन की सीमाएं और घातक हो सकती हैं। इस राज्य के सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को आमजन को इस जंजाल से निकालना होगा और आम जन को भी अनुच्छेद 370 जैसे विषयों के जाल को काट कर अपने नेताओं को सुशासन, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा, सत्ता के संतुलन और लिंग-भेद को दूर करने की ओर ध्यान देने के लिए मजबूर करना होगा। इस समय इस राज्य में एक समय में कांग्रेस के शीर्ष पर रहे नेता मुफ्ती सईद, जिन को कश्मीर घाटी में कांग्रेस को जिंदा रखने का श्रेय दिया जाता रहा है, मुख्यमंत्री के पद पर हैं और उनके साथ भाजपा से उप मुख्यमंत्री के पद पर एक साधारण परिवार के निर्मल कुमार सिंह हैं जिन को वर्षों तक जम्मू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक रहने का अनुभव है।
इससे अच्छा संगम और क्या हो सकता है? क्यों न यह दोनों इस राज्य की राजनीति को एक नई दिशा देकर और उसी विशेष अधिकारों वाले विधान का प्रयोग करके, जिसका आज तक दूरियां पैदा करने के लिए ही प्रयोग हुआ है, इस राज्य के लोगों को क्षेत्रवाद की ‘उत्तर और दक्षिण’ वाली दूरियों से निजात दें। वर्ष 1947 में इस राज्य में भारत की आजादी से पहले के कुछ ऐसे कानून और राजा के समय के सरकारी आदेश भी व्यावहारिक स्तर पर अपनाए गये हैं जिन के अंतर्गत 1947 के पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों को अधिकार देना तो दूर की बात है, इस राज्य की नारी जाति को भी राज्य के मूल निवासियों की श्रेणी में आने के बाद भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।
यही नहीं जम्मू-कश्मीर के विधान की धारा 8-9 में इस प्रकार की त्रुटियों और विवादों को दूर करने का प्रावधान होने पर भी साढ़े छह दशक बाद भी आज तक इस त्रुटि को दूर करने के लिए न ही कोई प्रशासनिक और न ही कोई वैधानिक कदम उठाए गए हैं। भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 के साथ-साथ अब भारत के संविधान में राष्टÑपति महोदय के आदेश से 14 मई, 1954 को शामिल किए गए अनुच्छेद 35 (ए) पर भी विवाद खड़े हो गए हैं और इस विवाद को भी कुछ नेता कानूनी ढंग से सुधारने की कम, बल्कि भारतीयता और कश्मीरियत के विवाद में धकेलने की कोशिश ज्यादा कर रहे हैं, जिससे वे जम्मू-कश्मीर के लोगों को मजहब और क्षेत्रवाद की नई लकीरों से बांट सकें। यहां तक कि राष्टÑपति के वर्ष 1954 के उस आदेश, जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 35 (ए) का जन्म हुआ था, कोे कई अनुसंधानकर्ताओं द्वारा अनधिकृत और असंवैधानिक कहा जा रहा है।
दया सागर
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