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असहिष्णुता पर खड़ी की गई प्रायोजित बहस एक रोमांचक मोड़ पर पहुंच गई है। जब शोर मचा तो आम नागरिक ने चारों ओर झांका, फिर पूछना शुरू कर दिया कि 'भई असहिष्णुता के तो कहीं भी दर्शन नहीं हुए। चलो,अब ये बताओ कि सहिष्णुता क्या है? सहिष्णु कौन है?' फिर उत्तर भी आए। राजनैतिक-सामाजिक जीवन की कई बड़ी हस्तियों ने स्वीकारा कि हिन्दू समाज ही अपने आप में सहिष्णुता की परिभाषा है। इतनी उदारता दुनिया में और कहीं नहीं है। हिन्दू संस्कार के कारण ही भारत में लोकतंत्र है। वगैरह। हिन्दू समाज की सहनशीलता के कई उदाहरणों में से एक उदाहरण जो छूट गया, वह ये कि अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बाबरी ढांचे के नीचे प्राचीन वैष्णव मंदिर होने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं, न्यायालय का ये निर्णय आ जाने के पांच वर्ष बाद भी हिन्दू समाज उस स्थान पर भव्य राम मंदिर के निर्माण की धैर्य के साथ प्रतीक्षा कर रहा है, संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों का पूरा सम्मान करते हुए। लेकिन खुद को सेकुलर कहने वाले, 'असहिष्णुता'के नाम पर संसद में उपद्रव मचाने वाले, एक राजनैतिक समूह को हिन्दू समाज की ये आशा भी 'असहनीय' लगती है। इसलिए जब 2 दिसंबर को कोलकाता में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने एक कार्यक्रम में बोलते हुए ये कहा कि 'सारे समाज को साथ लेकर उस भव्य लक्ष्य को पूरा होते हुए हम अपनी आंखों से देख सकें, ऐसा अवसर जीवन में आए, ऐसी मेरी शुभकामना है।' तो संसद और मीडिया में कुछ लोगों ने गैर जिम्मेदार बयानबाजी और हंगामा शुरू कर दिया। किसी ने सरकार से जवाब मांगा, तो किसी को संघ पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत दिखाई देने लगी। समझा जा सकता है कि बंगलादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन ने क्यों कहा होगा कि हिन्दुस्थान के ज्यादातर सेकुलर नेता हिंदू विरोधी हैं।
जाहिर है कि बिहार चुनाव के पहले तक जो लोग 'असहिष्णुता' और बोलने की आजादी के नाम पर पूरी दुनिया में देश का नाम उछाल रहे थे वे अपने अलावा किसी और को बोलने नहीं देना चाहते। इसमें साहित्य पुरस्कार लौटाकर अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताएं साफ कर चुके कुछ पूर्वचर्चित नाम भी शामिल हैं। संसद में जो गुलगपाड़ा मचाया जा रहा है उससे प्रश्न खड़ा हो गया है कि क्या शांतिपूर्वक अपनी बात रखने पर भी सदन को बंधक बनाया जाएगा? ये तानाशाही नहीं तो और क्या है? दूसरा सवाल ये है कि श्री भागवत न तो सरकार में पदासीन हैं और न ही सत्तारूढ़ दल के सदस्य हैं। उनके बयान पर सरकार से जवाब मांगने का क्या औचित्य है? और राजनैतिक हितों के लिए गुटबंदी करके संसद का समय और नागरिकों का पैसा क्यों बरबाद किया जा रहा है?
देश का आम नागरिक देख पा रहा है कि विपक्ष सदन में ऐसा एक भी काम करता नहीं दिखाई देता जिसके लिए किसी लोकतंत्र में विपक्ष होता है। सदन में सरकार से योजनाओं और नीतियों पर सवाल नहीं होते। होता है सिर्फ 'इस्तीफा दो, गद्दी छोड़ो, माफी मांगो' का शोर और राजनैतिक रैलियों जैसी नारेबाजी। लोग चिढ़ने लगे हैं। लेकिन जमीनी सचाइयों से कटकर सत्ता गंवा चुके दल अभी भी बदलने को तैयार नहीं दिखते।
मीडिया का एक वर्ग भी सनसनी पैदा करने और विवाद खड़ा कर टीआरपी और सुर्खियां लूटने का लोभ संवरण नहीं कर सका और अपनी जिम्मेदारियों को दरकिनार करते हुए गलत रिपोर्टिंग की। एक काफी पुराने और प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने श्री भागवत के बयान को सरकार को दिए गए आदेश के रूप में चित्रित किया। शीर्षक दिया 'राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ करो।' फिर शुभेच्छा को भविष्यवाणी बना दिया और उन्हें गलत ढंग से उद्धृत करते हुए लिखा कि 'हमें अच्छे से योजना बनाने की आवश्यकता है। मेरे जीवनकाल में राम मंदिर बन जाएगा।' मूल भाषण इस तरह का नहीं है और यू ट्यूब पर उपलब्ध है जिसे कोई भी देख सकता है। Mohan Bhagwat ji at science City, kolkata, 2nd Dec 2015
रही बात तिथि बतलाने की तो चूंकि मामला न्यायालय के अधीन है इसलिए फैसला आने तक कोई भी तिथि का अनुमान कैसे लगा सकता है? लेकिन फैसला जल्दी आएगा] ये उम्मीद क्यों न की जाए? श्री भागवत के भाषण में ऐसी अनेक बातें थीं जिन्हे उद्धृृत किया जाता तो सारे देश में सकारात्मकता और सद्भावना का सन्देश जाता। उन्होंने कहा था कि ये मंदिर सबका है। उनका भी, जो श्रीराम को देवता मानते हैं और उनका भी जो उन्हें देवता न मानकर एक राष्ट्रीय महापुरुष मानते हैं। आज भी दो भाइयों का स्नेह देखकर राम-भरत की जोड़ी की उपमा दी जाती है। आगे उन्होंने कहा कि 'इसका उद्देश्य किसी से लड़ना नहीं है। किसी को डराना नहीं है। उल्टा सबको निर्भय करना है।'अब इसमें चीखने-चिल्लाने लायक कौन सी बात है?
हुड़दंगियों की वास्तविक समस्या दूसरी है। उनको चिंता इस बात की है कि श्री भागवत के कथनानुसार यदि सब लोग वास्तव में 'निर्भय' हो जाते हैं तो एकमुश्त वोट बैंक का क्या होगा? फिर राजनेता तो अपनी जगह हैं, लेकिन कुछ पत्रकारों द्वारा इसी खेल का हिस्सा बन जाना पत्रकारिता के मूल्यों का पतन है।
भारतीय मीडिया में समाचार प्रस्तुत करने की जगह कहानी गढ़ने की बढ़ती प्रवृत्ति पत्रकारिता के प्रति समाज में अविश्वास पैदा कर रही है। साल भर में सैकड़ों राजनैतिक सर्वे परोसने वाले मीडिया संस्थान मीडिया की विश्वसनीयता पर नागरिकों की राय लेने के लिए भी कोई सर्वे कर देखें। अपने प्रसिद्ध उपन्यास राग दरबारी में लेखक श्रीलाल शुक्ल ने एक स्थानीय छुटभैये नेता का चरित्र उकेरते हुए लिखा है कि उनकी एक आवाज पर उनके चेले तिल का ताड़ बना सकते थे और उस ताड़ पर चढ़ भी सकते थे। पिछले कुछ महीनों में राजनीति-पत्रकारिता और बुद्धिजीविता का एक ऐसा ही गठबंधन देश के सामने आया है, जिसमें कोई एक तिल का ताड़ बनाता है और शेष दोनों उस पर चढ़कर तूफान उठाने लगते हैं। इससे उन्हें कितना फायदा हो पा रहा है, ये तो वक्त बतलाएगा लेकिन सीधी हानि केवल जनता और समाज की हो रही है। कीमत देश भुगत रहा है।
सवाल उठाने वालों की नीयत यदि उत्तर तलाशने की होती तो संघ प्रमुख के उस बयान को भी याद किया जा सकता था जो उन्होंने 1 अक्तूबर 2010 को इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ द्वारा राम जन्मभूमि पर दिए गए ऐतिहासिक निर्णय के बाद दिया था कि 'न्यायालय के फैसले से वहां राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो गया है। लेकिन इसे किसी की जीत या हार के रूप में नहीं देखना चाहिए। क्योंकि राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में राम मंदिर का निर्माण वहां हो, ये प्रारम्भ से ही इसके लिए प्रयास करने वालों की भूमिका है, केवल देवी-देवता के नाते नहीं। मैं सारी जनता का आवाहन करता हूं कि अपने आनंद को संयमित ढंग से व्यक्त करें। पूर्ण शांति रखें। सबके प्रति आत्मीयता रखें। किसी के दिल को ठेस न पहुंचे। मैं मुस्लिम समाज सहित सभी का आवाहन करता हूं कि अपनी राष्ट्रीय एकता को प्रदर्शित करने और उसे आगे बढ़ाने का एक अवसर हम सबको प्राप्त हुआ है।'
श्री भागवत के इन दोनों बयानों में से एक संप्रग सरकार के समय का है, दूसरा राजग सरकार के समय का। दोनों भाव रूप में समान हैं। तो फिर सरकार और सियासत की बात कहां से आई? दोनों ही बयानों में राष्ट्र को ही प्रमुखता दी गयी है। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने भी अनेक अवसरों पर कहा है कि सरकार का एक ही ग्रंथ है-संविधान, और सरकार का एक ही धर्म है जनता की भलाई। हमारे शास्त्रों में भी शासक का ये ही धर्म बतलाया गया है, जैसे कि माता-पिता, पुत्र-पुत्री, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी आदि का बतलाया गया है। सेकुलर वीर तर्क दे सकते हैं कि मीडिया, विपक्ष और बुद्धिजीवी का धर्म नहीं बतलाया गया है। हालांकि प्रतीक रूप में सभी आदर्श मौजूद हैं। फिलहाल भलाई तो इसी में है कि सरकार और विपक्ष अपना काम करें। और इस विषय को न्यायालय, संतों और समाज पर छोड़ दिया जाए।
हर साल 6 दिसंबर आता है। कहीं कोई फसाद नहीं होता। कहीं कोई तनाव पैदा नहीं होता। सच यही है कि कहीं कोई तनाव नहीं है। सिवाय अपने राजनैतिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जूझते कुछ मुट्ठी भर लोगों के दिमाग के अलावा। हाल ही में सवार्ेच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर और प्रसिद्ध उद्योगपति रतन टाटा ने इसी आशय के विचार व्यक्त किये हैं। इस बीच संसद में हुड़दंग जारी है। यक्ष प्रश्न उपस्थित है कि हिंदू समाज को बोलने की आजादी कब प्राप्त होगी? संसद को न चलने देने की असहिष्णुता कब समाप्त होगी? प्रशांत बाजपेई
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