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सहिष्णुता-असहिष्णुता विवाद में एक नया चेहरा इस सप्ताह दुनिया के सामने आया है। वह यह कि स्वतंत्रता के बाद उग्रवादियों द्वारा की गई हजारों हत्याओं का समर्थन करने वालों ने भी सहिष्णुता, असहिष्णुता जैसे शब्दों का सहारा लेना शुरू किया है। अर्थात् एक हत्या का समर्थन दूसरी हत्या से नहीं होता, यह भी सच है। फिर भी नक्सली सोच को जिनका समर्थन स्पष्ट रूप से दिखता है, इतना ही नहीं नक्सली, जिहादी और पूर्वोत्तर इलाकों के नागालैण्ड, मिजोरम में उग्रवादियों के हमले एक-दूसरे के समन्वय से हों, इसके लिए पिछले 30-40 वर्ष से प्रयास करने वाली अरुंधती राय इस विवाद में अपनी सेकुलर रोटियां सेंकने निकली हैं। उन्होंने देश में जारी सहिष्णुता-असहिष्णुता विवाद का लाभ उठाने का प्रयास शुरू किया है। अरुंधति राय को हाल में पुणे में महात्मा ज्योतिबा फुले समता पुरस्कार प्रदान किया गया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि ‘देश में मनुष्यों को जलाया जा रहा है, इसके लिए असहिष्णुता से अधिक गंभीर शब्द का प्रयोग कर इसकी निंदा करनी चाहिए।’
शायद वामपंथी सेकुलरों की शह पर देश के उग्रवादी गुट भीषण कामों को अंजाम देते हैं। उसके बाद ऐसे बुद्धिजीवियों की मुलम्मेदार सेकुलर भाषा से उनके छिपे एजेंडे ध्यान में आ जाते हैं। वे जगह-जगह पत्रकार वार्ता कर नक्सलियों के उग्रवाद का समर्थन करते दिखते हैं। यह अनुभव देश में कई स्थानों पर हो चुका है। लेकिन नागपुर में 2014 में हुए इस तरह के मामले की खूब आलोचना भी हुई। उनकी यह करतूत देश के दुश्मनों को देश के शांतिमय माहौल का आश्रय लेकर अधिक आक्रामक करने की शह ही कही जा सकती है।
अर्थात् सहिष्णुता-असहिष्णुता विवाद की पूरी दिशा इस देश में पिछले डेढ़ वर्ष से केन्द्र में आसीन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के विरोध में है। उनके विरोध में भूमिका लेने के लिए अन्य कोई मुद्दा नहीं, यह स्पष्ट होने के बाद कुछ लेखकों की ‘देश में असहिष्णुता है’, इस तरह का मुद्दा सामने लाकर पुरस्कार लौटाने की शुरुआत की। धीरे-धीरे इस चीज को ऐसे लोगों ने समर्थन देना शुरू किया जिनका विश्वास हिंसा के दर्शन में है।
कांग्रेस के इस सहिष्णुता-असहिष्णुता विवाद में कूदने से यह स्पष्ट हुआ कि कैसे देश में आपातकाल लाने वाले ही इस विवाद को हवा दे रहे हैं। अब तो पिछले 60-65 वर्ष में देश में जो भीतरी तथा बाहरी आक्रमण हुए उन हिंसक आंदोलनों को अधिक तीव्र करने का प्रयास ही ये लोग कर रहे हैं, यह स्पष्ट हो चुका है। अरुंधती राय के इस संघर्ष में कूदने से साफ हो गया कि देश में व्यापक हिंसाचार फैलाने वाले ही इन घटनाओं का आश्रय ले रहे हैं, क्योंकि इस देश के जिहादी, नक्सली और चर्च के उग्रवादी पिछले 60-65 वर्षों से देश के दुश्मनों के रूप में चिन्हित चीन, पाकिस्तान और अंग्रेजों के पिट््ठुओं की मदद कर रहे हैं, इतना ही नहीं बल्कि पिछले एक हजार वर्ष में जिन्होंने इस देश को गुलाम बनाया और इस देश में अपार लूट की, उनकी फिर से इस देश पर गुलामी की पकड़ गहरी कराने के लिए पूरी शक्ति से वे मदद कर रहे हैं। देश के लोकतांत्रिक माहौल और इस देश के सहिष्णु स्वभाव का ये लोग फायदा गलत उठा रहे हैं।
इस कुटिल षड्यंत्र की और भी कुछ बातें साफ हो रही हंै। ऊपरी तौर पर लग सकता है कि जिहादी उग्रवादी, नागालैंड के मिशनरी उग्रवादी और नक्सली विश्व में महासत्ता बनने के लिए लंबे समय से लड़ रहे हैं तो वे भारत में एक-दूसरे से कैसे लड़ सकते हैं? विश्व में नक्सलियों अथवा वामपंथियों का उद्गम पिछली सदी में हुआ है। लेकिन जिहादी और चर्च पिछले 1200 वर्ष से एक-दूसरे के विरोध में लाखों लोगों की बली चढ़ाने वाले युद्ध लड़ चुके हैं। लेकिन विश्व की महासत्ताएं छोटे-छोटे देशों में और छोटे-छोटे क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर शत्रुओं को नेस्तोनाबूद करने के लिए ऐसे उग्रवादी आंदोलन भी खड़े करती हैं जिनकी वहां उपस्थिति न हो। यह सच्चाई है कि भारत और पूर्व सोवियत संघ में उपद्रव मचाने के लिए ही अमरीका ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सीमा प्रांत में ओसामा बिन लादेन के अल कायदा संगठन की स्थापना की। उसी तरह नागालैंड में पृथकतावाद फैलाने के लिए वहां के चर्च संगठनों ने चीन की मदद ली, यह भी सच्चाई है। अरुंधति राय पिछले 20 वर्षों से नक्सली, जिहादी और चर्च उग्रवादियों में सहयोग और समन्वय स्थापित करने के लिए कथित प्रयास कर रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व राजीव मल्होत्रा की 600 पृष्ठों वाली पुस्तक ‘ब्रेकिंग इंडिया’ आई थी। ओडिशा में नक्सली, जिहादी और चर्च उग्रवादियों के हिंसक हमलों को समर्थन देने को अरुंधति राय ने किस तरह की कोशिशें कीं, इसके ृढेरों प्रमाण उन्होंने दिए हैं। जो पश्चिमी महासत्ता अल कायदा के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, वह किसी भी देश की स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता ध्वस्त करने के लिए क्या-क्या कर सकती है, इसका वह उदाहरण हैं। ऐसों के पिट्ठू ही यहां नए-नए सम्मान प्राप्त करते रहे हैं।
यह नया मामला सामने आया है। इस विषय की व्याप्ति हर दिन घटती घटनाओं और समाचारपत्रों में आने वाली खबरों तथा लेखों से अधिक है। देश का आम पाठक ही देश के सत्ताधारियों के भविष्य का निर्णय करने वाला मतदाता होता है। वह आएदिन समाचारपत्रों और मीडिया में आने वाली खबरों तथा विवेचनों के आधार पर मत बनाता है। लेकिन प्रतिदिन छोटे-छोटे हमले करने वाले उग्रवादी पिछले हजार वर्षों में गजनी के महमूद से लेकर मुगलों तक और पिछले दो शतकों में देश में अपार अत्याचार कर भारी लूट करने वाले अंग्रेजों तक, गुलामी के पूरे इतिहास की पुनरावृत्ति करने वालों के 21वीं सदी के पिट्ठू हैं, यह साफ है। इसलिए एक तरफ ओडिशा में तीनों उग्रवादियों को एकत्र लाकर देश के विरोध में आक्रमण की भूमिका लेना और दूसरी तरफ सहिष्णुता व असहिष्णुता जैसे शब्दों के सहारे देश में असमंजस फैलाना, ऐसी हरकतें करने वालों का चेहरा स्पष्ट किए जाने की आवश्यकता है। इसलिए इस विषय को व्यापक रूप से देखना जरूरी है।
प्रतिदिन समाचारपत्र खोलने पर हिंसाचार की ढेरों खबरें जरूर दिखती हैं, उनमें उग्रवादियों की भी खबरें होती हंै, लेकिन उनमें स्थानीय अपराध की घटनाएं कौन सी हैं और वामपंथी बुद्धिजीवियों जैसों द्वारा उग्रवादियों में किए गए समन्वय से हुए हमले कौन से हैं, इसका पता आम पाठकों को नहीं चलता। वास्तव में पिछले 10 वर्षों में देश में जो जिहादी उग्रवादी हमले हुए, वे केवल स्थानीय उद्देश्य से नहीं हुए थे। पूरे भारत को इस्लाम की धरती बनाने का अपना लक्ष्य जिहादियों ने कई प्रसंगों पर स्पष्ट किया है। पिछले 10 वर्षों में देश के हर एक राज्य में 10 छोटे-बड़े उग्रवादी हमले हुए हैं। घाटी में भी मुद्दा सिर्फ कश्मीर नहीं होता अपितु ‘पुन: संपूर्ण वर्चस्व’ होता है। ब्रिटिशों से पूर्व यहां 800 वर्षों तक उनकी ही गुलामी थी, इसलिए केवल उग्रवाद के सहारे फिर से नियंत्रण पाने का उद्देष्य स्पष्ट हो चुका है।
मुंबई पर 26/11 का हमला हो अथवा उससे पूर्व क्रमिक बम विस्फोट या रेलगाड़ियों में विस्फोट, इसके पीछे अपनी ताकत का अधिकाधिक विस्तार करना ही जिहादियों का उद्देश्य होता है। यह भुलाया नहीं जा सकता कि इन हमलों का नाता महमूद गजनी से लेकर मुगलों तक के 400 वर्षों के अत्याचारों से है। गजनी के महमूद ने 17 बार भारत पर हमले किए। बाद के वर्षों में नालंदा विश्वविद्यालय के विद्वान प्राध्यापकों की हत्याएं कीं। इस बारे में होता यह है कि एक गांव में उग्रवादी हमले के बाद के एक-दो वर्ष तक उस इलाके के चार-पांच जिलों पर आतंक कायम रहता है। पिछले 60-70 वर्षों में पाकिस्तान से क्रमश: इसी तरह का जिहादी उग्रवाद बढ़ाकर हिंदुओं को निष्कासित किया गया। पाकिस्तान के आतंक में एक क्रमबद्धता है, उसी तरह की जैसी पिछले एक हजार वर्षों के जिहादी हमलों में थी। हाल में आम लोगों की स्मृति मीडिया के विषयों तक सीमित हो चुकी है। आम जीवन की कई घटनाओं से आम व्यक्ति संत्रस्त होता है। इसलिए मीडिया में लेखन का जितना स्मरण हो उतनी ही आम व्यक्ति की स्मृति बनकर रह जाती है।
सेकुलर टोली सहिष्णुता-असहिष्णुता के संदर्भ में घटनाओं का उपयोग बुर्के की तरह कर रही है। उनका यह चेहरा स्पष्ट होने के बाद भी देश के कुछ संचार माध्यम उन्हें हर तरह से सहयोग दे रहे हैं। विदेशी आक्रामकों जैसी उनकी भूमिका कई मीडिया वाले अपनी नीति की तरह प्रसारित करते हैं। इसका महत्वपूर्ण कारण यह लगता है कि देश के 60 प्रतिशत मीडिया चैनलों/ प्रकाशनों में आज भी विदेशी निवेश है।
विदेशी निवेश वाले मीडिया की बहुराष्टÑीय कंपनियां केवल मुनाफा कमाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां नहीं हैं बल्कि पिछले 60-70 वर्षों से पहले के काल में यूरोपीय शासन से मुक्त हुए देशों में जहां कोई स्थानीय यंत्रणा नहीं थी, वहां लोकजागरण के नाम पर ऐसी शक्तियों को आंदोलन के रूप में मंडित करना उनका उद्देश्य है। अरुंधति आक्रामकों का एक नया चेहरा हैं। मीडिया में विदेशी निवेश भी बढ़ रहा है। ऐसे में विदेशी आक्रमणों के बारे में पूरे देश को जिस तरह सतर्कता बरतनी पड़ती है वही सतर्कता देश-द्रोहियों के बारे में बरतनी आवश्यक है। – मोरेश्वर जोशी
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