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पेरिस में 196 से ऊपर देश बैठकर गंभीर मुद्रा में पृथ्वी को बचाने की बहस में जुटे हैं। अब पिछले 30 वर्षों में सालाना होने वाली यह अंतरराष्ट्रीय बहस अब तक कहां पहुंची, यह सब जानते ही हैं। कोपेनहेगन और अब पेरिस में लगने वाला यह जमावड़ा किसी ठोस नतीजे पर पहुंचेगा, इसमें शंका है। कारण साफ है कि हर मुद्दे की तरह इस पर भी पश्चिमी देश और अमरीका अपनी स्थिति साफ-साफ नहीं रखने वाले। उनकी दृष्टि में अमरीका और यूरोप ने जो गलती कर दी वह बाकी की दुनिया न करे। अब दूसरे विश्व युद्घ के बाद यूरोप ने उद्योग क्रान्ति में विकास का जो मॉडल तैयार किया था वह सबको भा गया। सच तो यह ही है कि आज इसी मॉडल की देन है कि सब पृथ्वी को मारने के लिए एकजुट हो गये; अपने-अपने हिस्से के विकास की पैठ लगाती दुनिया इस बात की चिंता में कम जुटी है कि पर्यावरण व पृथ्वी का क्या होगा बल्कि उनकी चिन्ता अपने विकास की ही है।
अब पेरिस में बहस के मुद्दों पर ही नजर डालिये। लड़ाई यह है कि कैसे कार्बन उत्सर्जन को थामा जाये और 27 डिग्री सेंटीग्रेड पर स्थिर किया जाये? पश्चिमी देशों की ही कृपा रही जिसे दुनियाभर ने तेजी से अपनाया। बात मात्र औद्योगिक क्रांति की ही नहीं रही जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप ने अपनी आर्थिकी के लिये चुनी और सबने अपनायी। आज विश्व खान-पान से लेकर पहनावे तक यूरोप व पश्चिमी देशों की ही तरफ झांकता है। यूरोपीय सभ्यता की उद्योगी देन का सबने पीछा किया है और जीवन के अन्य उत्पाद गेहूं, धान, जंगल, पानी से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये। सुविधाग्रस्त समाज आज उद्योगों के उत्पादों का ही गुलाम है। समाज का हर कदम हर दिन और हर अवसर अपनी आवश्यकताओं से बहुत आगे विलासिताओं के मद में पड़ चुका है। हमने सुविधाओं को ही विकास का पर्याय मान लिया है और विलासिता वाली सुविधायें शिक्षा, स्वास्थ्य से बहुत आगे जा चुकी हैं। समाज में प्रगति और विकास में अंतर की समझ लगभग समाप्त ही हो चुकी है ।
हमारी सुविधा-केंद्रित विकास की पहल अब भारी पड़ने लगी है और यह ही बड़ा कारण हमारे पर्यावरण की क्षति का बना है। पश्चिमी सभ्यता अपने लिये सब कुछ बटोरने की कोशिश करती है और उनके इस ढांचे में पर्यावरण की क्षति का कोई महत्व नही होता। पर अब जब दुनिया बिगड़ने लगी है और बाढ़, वैश्विक ताप जैसे मुद्दे खड़े होने लगे तब माथा ठनका कि कहीं कुछ तो गलत हुआ है। उस गलती का एहसास दूसरों को जताने की शुरुआत ही ये सम्मेलन होते हैं। इनमें विकासशील देशों कोे पर्यावरण को बचाने की भागीदारी बिना शर्तों के की जा रही है क्योंकि अब पश्चिमी समाज सुविधामुक्त नहीं रह सकता। इसलिये वे मुआवजा देकर दूसरे देशों को उनके हिस्से के विकास से दूर रखने के पक्ष में हैं। असल में विकास के आज तक के मॉडलों में पश्चिमी झलक रही है और अंत में उसी सोच का परिणाम हमारे सामने है। अगर कहीं पर्यावरण के संतुलित विकास का कोई मॉडल हो सकता है तो वह पूरब में ही है। अब भारत को ही देखिये, इस देश में नदी, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि को देवताओं का दर्जा दिया और नदियों को मां का दर्जा दिया था। कारण साफ था कि इनके बिना जीवन संभव नही। इसलिये हमारी प्रगति के यही केंद्र होने चाहिये। हमारे गांव आज भी विकास के बेहतर मॉडल हैं जहां जंगल, पानी, मिट्टी को जोड़कर देखा जाता है क्योंकि अन्न इन्हीं का उत्पाद है। हमारी बड़ी चूक रही है कि हमने गांवों के संतुलित विकास को नये आयामों से जोड़कर देखने की कोशिश नहीं की। यह ही बेहतर मॉडल साबित हो सकता था। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे बनते-बिगड़ते शहर बेहतर प्रबंधक हो सकते हैं पर उत्पादक नहीं। अब क्योंकि दुनियाभर में बढ़ता शहरीकरण सुविधाओं से तो लैस रहेगा पर प्राथमिक उत्पादन से दूर चला जायेगा। जंगल, पानी, ख्ोती हमारे जीवन की आवश्यकताएं हैं। और इसलिए किसी भी विकास की रूपरेखा इन्हीं पर आधारित होनी चाहिए ताकि इन्हें बिना खोये हम प्रगति करते रहें। दुनिया की बड़ी भूल यह ही रही है कि एकतरफा विकास ने इनकी सूरत बिगाड़ दी। और गांवों में यही विकास का मूलमंत्र मिलता है।
‘ग्लोबल विलेज’ की कल्पना करने वालों ने गांवों को तो सिरे से भुला दिया और अब गांवों और उनके उत्पादों के अभाव को झेल रहे हैं। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के सवालों के उत्तर-पूरब की संस्कृति में ही मौजूद हंै। हमारे विकास का कोई भी मॉडल हो पर मूल ऊर्जा के मुद्दों का जवाब गांवों में ही मिल सकता है, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन का नियंत्रण वनों से ही संभव है जिन्हें गांवों की संस्कृति ही पालती है। नदी, मिट्टी, वन सब कुछ गांवों की ही देन हैं। शहर और शहरीकरण तो रुकने वाला नहीं, पर हां, अगर गांवों को मजबूती देने के बडेÞ काम कर दिये जायें तो कम से कम जीने के रास्ते खुले रहेंगे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अगर विकास का यही ढांचा बरकरार रहा तो शहर ही एक दिन श्मशान बनेंगे।
भारत ने पेरिस में अपनी बात की शुरुआत जीवनशैली को लेकर ही रखी है, क्योंकि पूरब की संस्कृति यही सिखाती है। पश्चिमी जीवनशैली सब पर भारी पड़ी है और इसी के नकल के परिणाम अपने देश में भी दिखाई देते हैं। चेन्नै की ताबड़तोड़ बारिश और दिल्ली की बिगड़ती हवा-पानी इसी ओर इशारा करती है। चीन कितनी भी आर्थिक प्रगति कर रहा हो पर बीजिंग मे ‘औरेंज एलर्ट’ यानी धुंध का प्रकोप जारी है। और इस तरह की घटनाएं बढ़ती जायेंगी। बात साफ है, यूरोप व पश्चिम का विकास मॉडल ऐसे ही विकारों को पैदा करेगा जबकि पूरब की संस्कृति सतत् प्रगति का सूचक बन सकती है। जहां जीवन को प्रकृति के साथ जोड़कर देखा जाता है।
पश्चिम से आज तक जो कुछ इस दुनिया ने सीखा, वह भोगवादी सभ्यता है और इसके परिणाम हमारे सामने हैं। अब अगर दुनिया को बचाना है तो पूरब में भारत से सीखना होगा। यहां सूर्य नमस्कार से लेकर सभी ग्रहों को इसलिये पूजा जाता है, क्योंकि इनका मनुष्य और पृथ्वी दोनों पर प्रभाव पड़ता है। और इसलिए यहां ‘मनुष्याणाम् स्थितं जलवायु, शरीराणां संरचितं’, मतलब जलवायु ही मनुष्य की संरचना करती है। अब अगर जलवायु बिगडेÞगी तो निश्चित ही असर सीधे शरीर व समाज पर पड़ेगा।
प्रकृति को गम्भीरता से लेने का समय आ चुका है, आवश्यकताओं को ही प्राथमिकता समझें न कि सुविधाओं को। इसलिए गांव, जहां से आवश्यकताएं पूरी होती हैं वहां से विकास का मॉडल तैयार होना चाहिए, जहां से प्रकृति प्रदत्त प्राथमिक उत्पाद सुरक्षित रहेंगे। लाखों गांव ही देश की आज भी आर्थिक सामाजिक-परिस्थिति कोे बचाये हुऐ हंै। शहर सुविधाएं ही सिखा सकते हैं और भोगवादी सभ्यता को पनपा सकते हैं। दुनिया के गिनती के शहरों ने दुनिया के करोड़ों गांवों व अरबों लोगों को संकट में डाल दिया है।
पेरिस का सम्मेलन किसी चमत्कार को अंजाम नहीं दे सकता है। आत्ममंथन का समय आ चुका है जिसे सबको करना है। चाहे वह कोई भी देश हो या इसके लोग। हमें बेहतर जीवन चाहिए या फिर झंझटों में फंसी जिन्दगी? पर एक बात तो तय है कि आने वाली पीढ़ी हमें कोसने वाली है, क्योंकि उनके हिस्से का हक सब हम लील गये। एक दिन उनकी समझ में आ ही जायेगा कि पूरब में ही जीवन के मूल मंत्र छिपे थे। और दुनिया जाने कहां-कहां सर मारती रही।
अमरीका, चीन, यूरोप जैसे पहली पंक्ति वाले देश चर्चा को उस दिशा में ले जाना चाहते हैं कि उन्होंने जो किया और जो करेंगे उसकी भरपाई कोष बनाकर पूरी करेंगे। मतलब ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले विकसित देश विकासशील देशों का मुंह बंद रखने की कीमत देंगे और बाद में उनके तथाकथित विकास पर ढक्कन लगाने की कोशिश करेंगे।
सारे देश यह भी तय करेंगे कि अपने देश में पर्यावरण के कायदे-कानूनों को बेहतर करने के फायदे और रास्ते का क्या होगा? ऊर्जा तकनीकी व सहायता जैसे मुद्दे भी चर्चा में आएंगे। ये सब बातें अच्छी जरूर लगती हैं पर इनमें कटिबद्धता नजर आना मुश्किल-सा लगता है। इसका कारण साफ है कि आज जिस तरह की जीवनशैली हमने अपना ली है वह ही पूरी प्रगति की सबसे बड़ी बाधक है। हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी निर्णय पर एक बार पहुंच भी जायें पर जीवनशैली को बदल पाना आज सबसे बड़ी चुनौती है और आज की यह शैली पर्यावरण की सबसे बड़ी बाधक भी है। सच तो यह है कि पश्चिम की सभ्यता ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की सबसे बड़ी दोषी है।
वेदों में प्रकृति की आराधना)
त्रीणि छन्दांसि कवयो वि येतिरे पुरुरूपं दर्शतं विश्वचक्षणम्।
आपो वाता औषधयस्तान्येकस्मिन् भुवन आर्पितानि।। अर्थवेद 18.1.17
अर्थात जल, वायु, वनस्पति/औषधि प्रकृति की देने हैं जो सृष्टि के लिए हितकारी हैं।
इमानि पंच महाभूतानि पृथिवी, वायु: आकाश:, आपज्योतीषि।। ऐतिरेय उपनिषद 3.3
अर्थात सृष्टि में पांच पदार्थ-पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि और जल-ऊर्जा के सबसे बड़े स्रोत हैं।
सूर्य आत्मा जगस्तस्थुखश्च।। ऋग्वेद 1.115.1
अर्थात सूर्य सारे विश्व की आत्मा का स्रोत है जो प्रकाश और ऊर्जा का अक्षय कोष है।
द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम।। ऋग्वेद 1.164.33
अर्थात आकाश पिता है, समूचा परिवेश/वातावरण बंधु है और यह रत्नगर्भा पृथ्वी माता है।
ते मध्यं पृथिवी यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्व: संबभूवु:।
तासु नो धेहि अभि न: पवस्व। ऋग्वेद 12.1.12
अर्थात पंचमहाभूतों में विद्यमान पृथ्वी मानव के लिए ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है।
माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:।। ऋग्वेद 12.1.12
अर्थात मेरी माता भूमि है और मैं इस गुणवान पृथ्वी का बेटा हूं।
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी
(लेखक वरिष्ठ पर्यावरणविद् हैं
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