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माघ महीना शुरू हुए हफ्ता बीत गया, पर राजधानी दिल्ली में किसी से पूछो कि, सर्दी आ गई क्या? तो उसका जवाब कुछ ऐसा रहता है-‘हैं जी? सर्दी…हां…आ…नहीं, पता नहीं जी।’ जिस माघ में हाड़ कंपाने वाला जाड़ा पड़ता था उसमें पंखों का घूमना अभी तक जारी है। तस्वीर का दूसरा और कंपा देने वाला रुख भी दिख रहा है भारत के दूसरे हिस्से में। पहले वाले से बिल्कुल अलग। चेन्नै में बरखा पूरे कोप के साथ बरसी पड़ रही है। नाले-परनाले भर गए, झील भर गई, पानी शहरों में घुसकर भीषण तबाही मचा रहा है, जिसके सोशल साइट्स पर वीडियो देखकर रूह कांप जाती है। इस मौसम में ऐसी बारिश! मौसम विभाग अभी मौसम का कोप और बढ़ने की चेतावनी दिए बैठा है।
ये सब क्या है? सीधे-सरल शब्दों में कहें तो ये कुदरत का कोप है जो वह इंसानों की हेकड़ी के बरखिलाफ दिखा रही है। ग्लेशियरों का पिघलना असाधारण है। ये चेतावनी दे रहा है कि, संभल जाओ, वरना इतना नुकसान होगा कि अंदाजा भी न लगा पाओगे! पर्यावरण हमारी ही लापरवाही पर अट्टहास कर रहा है। चीन में कोहरे और पर्यावरण का मिला-जुला ‘स्मॉग’ भरी दोपहरी रात कर रहा है, तो दक्षिण कोरिया के लोग प्रदूषण के चलते नाक पर रूमाल रखे बिना घर से बाहर निकलने में कतराने लगे हैं। कहने का अर्थ है कि दुनिया भर में मौसम का मिजाज जिस तेजी से गर्माता जा रहा है उससे खतरे की घंटी बज जानी चाहिए। पर अकूत पैसे और उसके दम पर संसाधनों को हद दर्जे तक भोगने वाले विकसित पश्चिमी देशों ने आंखों पर पट्टियां बांधी हुई हैं। उनके प्रभाव में चलने वाले संयुक्त राष्टÑ संघ का जलवायु परिवर्तन पर 22वां सम्मेलन इस वक्त पेरिस (फ्रांस) में चल रहा है (30 नवम्बर-11 दिसम्बर 2015), लेकिन अभी तक की जो बातें छन कर बाहर आई हैं उनसे पता चलता है कि उन्हीं पुराने बिन्दुओं पर चर्चा-भाषण हो रहे हैं।
उदाहरण के लिए विकसित देशों के नेता बड़ी गंभीर मुद्राएं बनाकर बोल रहे हैं कि ‘सच में, जलवायु में बदलाव बड़ी चिंता की बात है। इस पर ध्यान देना चाहिए।’ और कि, ‘हम इस अहम मुद्दे की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। कार्बन उत्सर्जन बेशक सारी हदें पार कर रहा है, इस पर तुरंत हरकत में आ कर इसे क्योटो प्रोटोकॉल के अनुसार 2020 तक नियंत्रित करना चाहिए। इसके लिए हमसे जो बन पड़ेगा वो करेंगे।’ 30 नवम्बर को सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर अमरीकी राष्टÑपति ओबामा ने जलवायु में तेजी से आ रहे बदलाव पर चिंता जताते हुए कहा कि ‘पानी सर तक आ चुका है, हमने अगर अब कदम नहीं बढ़ाए तो देर हो जाएगी।’ ओबामा ने ठीक यही चिंता पिछले साल लीमा (पेरू) के सम्मेलन में व्यक्त की थी, बस शब्दों और वाक्य विन्यास में फर्क था। लेकिन हर नेता पेरिस सम्मेलन में सिर्फ चिंता जताने नहीं पहुंचा है। कुछ हैं जो कहने को तो विकासशील देशों के खांचे में आते हैं पर उनकी कथनी और करनी विकसित देशों के खांचे से ज्यादा विकसित हैं। मिसाल के लिए, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। इस साल जनवरी में उन्होंने सौर ऊर्जा के सदुपयोग का जो विचार सामने रखा था, उसे पेरिस में उन्होंने अमलीजामा पहनाने की तरफ कदम बढ़ाए, और दिलचस्प बात यह रही कि उनकी इस पहल में साथ देने को 100 से ज्यादा (विकसित और विकासशील) देशों ने साथ देने की कसम खाई है।
दरअसल मोदी ने कहा था कि आने वाले वक्त में जीवाश्म र्इंधन खत्म होते जाएंगे इसलिए हमें ऊर्जा के नए स्रोतों पर काम करना चाहिए। दो विचार उन्होंने सुझाए थे। एक, सौर ऊर्जा का पूरा इस्तेमाल और, दो, कूड़े-कचरे से र्इंधन बनाना। काम शुरू हुआ तो जरूरी डाटा और आंकड़े सामने आते गए। पता चला, कई देश हैं जिनके यहां इस पर विचार तो चल रहा है पर कदम नहीं बढ़ाए गए हैं। पेरिस में मोदी ने ऐसे इच्छुक देशों के नेताओं और उद्योगपतियों से बात करके एक बड़ा सौर गठबंधन बनाकर सौर ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए निवेश और तकनीक साझा करने के एक समूह का खाका खींचा। फ्रांस और भारत ने मिलकर एक खरब डालर के इस गठबंधन की शुरुआत की, जो सौर ऊर्जा क्षेत्र में गरीब देशों की मदद भी करेगा।
रही बात कार्बन उत्सर्जन को घटाने की, तो मोदी ने विकसित देशों से इस पर कोरी बौद्धिक चिंताओं से परे कुछ ठोस पहल करने को कहा। चोटी के विश्व नेताओं से अलग से बात करके उस क्योटो प्रोटोकॉल (1997) की तरफ गंभीरता दिखाने की अपील की, जो कहता है कि 2020 तक सभी विकसित और धनी देश यह कोशिश करेंगे कि उनके यहां प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन का आंकड़ा औद्योगीकरण की शुरुआत के वक्त जो तापमान था उससे वह 2 डिग्री नीचे आ जाए। साथ ही, धनी देश विकासशील देशों में र्इंधन की खपत कम करके पर्यावरण के लिए लाभकारी तकनीक लगाने के लिए पर्याप्त अनुदान दें। लेकिन बड़े देशों की ठसक दिखाते हुए अमरीका के ऊर्जा विभाग की एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी-एनर्जी के पूर्व कार्यवाहक निदेशक चेरिल मार्टिन ने कहा कि गरीब देशों के कुछ कामगार नई परियोजनाओं को ठीक से नहीं बनाए रख पा रहे हैं जिससे चीजें बिगड़ रही हैं। संयुक्त राष्टÑ के हरित पर्यावरण कोष में अभी सिर्फ 10 करोड़ डॉलर ही हैं।
बातें जारी हैं, लेकिन उम्मीद कम ही है कि ठोस नतीजा सामने आएगा। क्या विकसित देश अपनी सुविधाभोगी जीवनशैली में बदलाव लाएंगे? क्या वे संसाधनों का संयमित दोहन करने की बात लिखकर देंगे? अगर इन सवालों के जवाब ‘नहीं’ में हैं तो अमीर और गरीब देशों के बीच खाई बनी रहेगी और जल, जंगल, जमीन का उजड़ना जारी रहेगा।
‘ क्लीन एनर्जी’ के लिए मिले हाथ
2 दिसम्बर को पेरिस में विभिन्न राष्टÑाध्यक्षों के साथ दुनिया भर के चोटी के उद्योगपतियों ने ‘क्लीन एनर्जी’ विकसित करने के लिए एक महत्वपूर्ण संकल्प लिया। इस पर आम सहमति बनती दिखाई दी। इस मौके पर जहां अमरीका के बिल गेट्स मौजूद थे तो भारत के रतन टाटा और मुकेश अंबानी भी थे। ये मौसमी बदलाव पर पेरिस में चल रहे सम्मेलन में भारत के उस आह्वान को आगे बढ़ाने की संकल्पना थी कि एक अंतरराष्टÑीय सौर गठबंधन वक्त की मांग है। बैठक के बाद एक ‘ब्रेकथू्र एनर्जी कोएलीशन’ बनाने पर सब एकमत हुए। यह ऐसी 28 कंपनियों का एक अंतरराष्टÑीय समूह होगा जो कम लागत पर विश्वसनीय तौर पर कार्बन मुक्त ऊर्जा उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस गठजोड़ का उद्घाटन नहीं हुआ है। बताया गया है कि इसका उद्घाटन मिशन इन्नोवेशन के साथ ही अमरीकी राष्टÑपति ओबामा की मेजबानी में होगा और उस मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी वहां रहेंगे। इस पहल के उद्देश्य यानी ‘क्लीन एनर्जी’ की आपूर्ति का वादा करने वाली शीर्ष कंपनियां ऐसे कदम उठाएंगी जिससे उनके ‘रिसर्च एंड डेवेलपमेंट’ में तेजी आएगी और ऊर्जा पारेषण सुगम होगा। इससे फायदा क्या होगा? फायदा ये होगा कि उद्योग जगत के इन प्रयासों का लाभ आगे चलकर दुनिया भर के देशों की सरकारों को इस रूप में मिलेगा कि वे शुद्ध ऊर्जा की राह पर नई सोच के साथ बढ़ पाएंगी और अपने यहां मौसमी बदलाव के दुष्प्रभावों को जितना होगा, कम कर पाएंगी। इस गठबंधन में फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग होंगे तो ब्रिटेन के वरजिन समूह के मुखिया रिचर्ड ब्रॉन्सन भी, और होंगे एचपी के मैग व्हिटमैन। अगर यह मुहिम परवान चढ़ती है तो दुनिया की ‘फॉसिल फ्यूल’ यानी कोयले, पेट्रोल, डीजल जैसे धरती के नीचे से मिलने वाले र्इंधन पर उतनी निर्भरता नहीं रहेगी।
भारत में ‘क्लाइमेट चेंज स्पेशल साइंस एक्सप्रेस’ करेगी जनजागरण
15 अक्तूबर 2015 को नई दिल्ली से एक विशेष क्लाइटमेट चेंज स्पेशल साइंस एक्सप्रेस रेलगाड़ी रवाना की गई। यह रेलगाड़ी पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए 18000 किलोमीटर का सफर करके भारत के 20 राज्यों के 64 स्थानों पर ठहरेगी और वैश्विक ताप के खतरों से सचेत करते हुए पर्यावरण सुधार पर जानकारियों का आदान-प्रदान करेगी।
संभावित खतरे
अगर पृथ्वी का तापमान और 2 डिग्री बढ़ा तो सबसे अधिक प्रभावित होंगे दक्षिण एशिया और सहारा से सटे अफ्रीकी क्षेत्र।
20%कृषि पैदावार 2030 तक कम हो जाएगी
एक अरब लोग 2050 तक बेघर हो जाएंगे
50करोड़ अफ्रीकी लोग पानी की कमी से जूझेंगे
111%तक गेहूं के दाम बढ़ जाएंगे
60करोड़ लोग 2080 तक कुपोषण के शिकार होंगे
6%से अधिक भूमि बंजर हो जाएगी
देश एवं प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन (टन में)
चीन 7.6
कनाडा 15.9
अमरीका 17.0
ब्राजील 2.5
यूरोपीय संघ 6.7
सऊदी अरब 18.1
भारत 1.7
मलेशिया 7.9
कुवैत 28.1
रूस 12.4
तुर्की 4.7
इटली 5.5
फ्रांस 5.02
पोलैंड 8.3
जापान 10.1
जर्मनी 9.3
ईरान 7.9
दक्षिण कोरिया 12.3
संयुक्त अरब अमीरात 20.4
न्यूजीलैंड 7.1
मैक्सिको 3.7
इंडोनेशिया 2.3
ब्रिटेन 7.1
आस्ट्रेलिया 17.3
दक्षिण अफ्रीका 7.4
आलोक गोस्वामी
वैश्विक ताप बढ़ने के पीछे है लालच
आज मानव एक बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहा है। उसका अस्तित्व ही खतरे में है। और उसे यह खतरा अपने आप से ही है। जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू होती है। मानव की औद्योगिक सक्रियता से पृथ्वी के वायुमंडल में संचित कार्बन डाइआक्साइड में वृद्धि हुई और ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ के चलते हमारे ग्रह के तापमान में वृद्धि होने लगी। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्टÑ सम्मेलनों की कड़ी में 2012 के दोहा सम्मेलन में राष्टÑों ने क्योटो प्रोटोकॉल के लक्ष्यों की अवधि को बढ़ाते हुए निर्णय लिया था कि जब तक 2020 में एक नया अंतरराष्टÑीय समझौता नहीं बन जाता तब तक मौजूदा जलवायु लक्ष्य ही मान्य होंगे।
क्योटो प्रोटोकॉल के अनुच्छेद 3 (1) के अनुसार औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाउस गैसों और मानवजनित कार्बन डाइआॅक्साइड का उत्सर्जन तय मात्रा से अधिक नहीं हो सकता और ग्रीन हाउस गैसों (और कुछ औद्योगिक प्रक्रियाओं) का समग्र उत्सर्जन 2012 तक 1990 के स्तर से 5 फीसद कम करना निश्चित किया गया था। लेकिन विकसित देशों में संकल्प और प्रयासों की कमी दिखी और क्योटो के सामान्य लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी वे विफल हुए।
जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर विषय के कई आयाम विकासशील देशों के नजरिए से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन अंतरराष्टीय सम्मेलनों में चर्चा की अपनी सीमाएं रहती हैं। आइए, छह प्राथमिकता वाले मुद्दे और उनका संभव समाधान देखते हैं-
अत्यधिक और अनावश्यक उपभोग
जलवायु परिवर्तन की वर्तमान समस्या की धुरी अनावश्यक व अत्यधिक उपभोग को माना जा सकता है। जीडीपी, जीएनपी जैसे आधुनिक आर्थिक संकेतक राष्ट की समृद्धि और विकास के मापक माने जाते हैं, जो सीधे-सीधे खपत पर आधारित हं असल में विकास के ये सूचक ही त्रुटिपूर्ण हैं। इनकी छाया में समस्या का निवारण होना कठिन है। ये अत्यधिक विलासपूर्ण जीवन जीने के साधन और अनावश्यक व अत्यधिक उपभोग पर्यावरण क्षरण के लिए सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं। अंतरराष्टÑीय सम्मेलनों में इस विषय पर चर्चा नहीं होती, क्योंकि ये विकसित देशों और औद्योगिक भागीदारों को हितकारी नहीं लगते।
समाधान-अनावश्यक उपभोग और निर्माण को हतोत्साहित और सीमित करने की आवश्यकता है।
‘डिस्पोजेबल’ अर्थव्यवस्था
पिछले 30-40 वर्षों में ‘डिस्पोजेबल’ उत्पादों का प्रयोग एक नया चलन बनकर उभरा है। इससे ऐसा कचरा सामने आया है जिसके बारे में पहले कल्पना तक नहीं थी। यह भी पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण करने का ही परिणाम है। अमरीका कचरे का भी सबसे बड़ा उत्पादक है। अमरीका में करीब 28 अरब प्लास्टिक की पानी की बोतलें हर साल बनती हैं जोकि 17 लाख बैरल तेल की खपत के बराबर है। यानी साल में 50 लाख बैरल। यह सऊदी अरब से अमरीकी तेल आयात का 13 प्रतिशत है।
समाधान-‘डिस्पोजेबल’ उत्पादों और केवल एक बार इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाना या उनके सीमित उपयोग की नीति बनाना।
उत्पादों का घटता जीवनकाल
अधिक टिकाऊ उत्पादों के स्थान पर नयी पश्चिमी विपणन नीति के अंतर्गत उत्पादों का जीवन-चक्र (प्रोडक्ट लाइफ) घटा दिया गया है ताकि पुराना जल्दी से जल्दी खराब हो और नये उत्पाद की बिक्री हो। इस नए चलन से उत्पादन तो बढ़ता है पर उससे जुड़े हर प्रकार के प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।
समाधान- हमें उत्पादों की न्यूनतम आयु तय करने के नियम बनाने चाहिये।
जीवाश्म र्इंधन प्रबंधन, नयी कराधान प्रणाली
60 वर्षों में जीवाश्म ईंधन की खपत 10 लाख बैरल प्रतिदिन से बढ़कर 800 लाख बैरल प्रतिदिन हो गयी है। फलस्वरूप जीवाश्म ईंधन से कार्बन उत्सर्जन भी 1950 के 16300 लाख टन के स्तर से बढ़कर 2011 में 92650 लाख टन के स्तर पर पहुंच गया था। भारत में जीवाश्म ईंधन से कार्बन उत्सर्जन 2012 में 18.3 करोड़ मीट्रिक टन से अधिक था। हम जीवाश्म ईंधन के 80 प्रतिशत ज्ञात स्रोत खत्म कर चुके हैं।
कृषि प्रणाली
हमारी वर्तमान कृषि प्रणाली कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों पर आधारित है जिसके परिणामस्वरूप सैकड़ों जीवाणुओं, कीड़ों, पक्षियों और जानवरों की प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं। इसे बंद करना होगा।
दरअसल, पूरा संकट मानव की जरूरत नहीं अपितु लालच का परिणाम है। जलवायु परिवर्तन के परिणाम सबको समान भुगतने पड़ेंगे। हमें भाषणों की नहीं अपितु गंभीर प्रयासों की जरूरत है।
उम्मीद नई जलवायु की
माघ महीना शुरू हुए हफ्ता बीत गया, पर राजधानी दिल्ली में किसी से पूछो कि, सर्दी आ गई क्या? तो उसका जवाब कुछ ऐसा रहता है-‘हैं जी? सर्दी…हां…आ…नहीं, पता नहीं जी।’ जिस माघ में हाड़ कंपाने वाला जाड़ा पड़ता था उसमें पंखों का घूमना अभी तक जारी है। तस्वीर का दूसरा और कंपा देने वाला रुख भी दिख रहा है भारत के दूसरे हिस्से में। पहले वाले से बिल्कुल अलग। चेन्नै में बरखा पूरे कोप के साथ बरसी पड़ रही है। नाले-परनाले भर गए, झील भर गई, पानी शहरों में घुसकर भीषण तबाही मचा रहा है, जिसके सोशल साइट्स पर वीडियो देखकर रूह कांप जाती है। इस मौसम में ऐसी बारिश! मौसम विभाग अभी मौसम का कोप और बढ़ने की चेतावनी दिए बैठा है।
ये सब क्या है? सीधे-सरल शब्दों में कहें तो ये कुदरत का कोप है जो वह इंसानों की हेकड़ी के बरखिलाफ दिखा रही है। ग्लेशियरों का पिघलना असाधारण है। ये चेतावनी दे रहा है कि, संभल जाओ, वरना इतना नुकसान होगा कि अंदाजा भी न लगा पाओगे! पर्यावरण हमारी ही लापरवाही पर अट्टहास कर रहा है। चीन में कोहरे और पर्यावरण का मिला-जुला ‘स्मॉग’ भरी दोपहरी रात कर रहा है, तो दक्षिण कोरिया के लोग प्रदूषण के चलते नाक पर रूमाल रखे बिना घर से बाहर निकलने में कतराने लगे हैं। कहने का अर्थ है कि दुनिया भर में मौसम का मिजाज जिस तेजी से गर्माता जा रहा है उससे खतरे की घंटी बज जानी चाहिए। पर अकूत पैसे और उसके दम पर संसाधनों को हद दर्जे तक भोगने वाले विकसित पश्चिमी देशों ने आंखों पर पट्टियां बांधी हुई हैं। उनके प्रभाव में चलने वाले संयुक्त राष्टÑ संघ का जलवायु परिवर्तन पर 22वां सम्मेलन इस वक्त पेरिस (फ्रांस) में चल रहा है (30 नवम्बर-11 दिसम्बर 2015), लेकिन अभी तक की जो बातें छन कर बाहर आई हैं उनसे पता चलता है कि उन्हीं पुराने बिन्दुओं पर चर्चा-भाषण हो रहे हैं।
उदाहरण के लिए विकसित देशों के नेता बड़ी गंभीर मुद्राएं बनाकर बोल रहे हैं कि ‘सच में, जलवायु में बदलाव बड़ी चिंता की बात है। इस पर ध्यान देना चाहिए।’ और कि, ‘हम इस अहम मुद्दे की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। कार्बन उत्सर्जन बेशक सारी हदें पार कर रहा है, इस पर तुरंत हरकत में आ कर इसे क्योटो प्रोटोकॉल के अनुसार 2020 तक नियंत्रित करना चाहिए। इसके लिए हमसे जो बन पड़ेगा वो करेंगे।’ 30 नवम्बर को सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर अमरीकी राष्टÑपति ओबामा ने जलवायु में तेजी से आ रहे बदलाव पर चिंता जताते हुए कहा कि ‘पानी सर तक आ चुका है, हमने अगर अब कदम नहीं बढ़ाए तो देर हो जाएगी।’ ओबामा ने ठीक यही चिंता पिछले साल लीमा (पेरू) के सम्मेलन में व्यक्त की थी, बस शब्दों और वाक्य विन्यास में फर्क था। लेकिन हर नेता पेरिस सम्मेलन में सिर्फ चिंता जताने नहीं पहुंचा है। कुछ हैं जो कहने को तो विकासशील देशों के खांचे में आते हैं पर उनकी कथनी और करनी विकसित देशों के खांचे से ज्यादा विकसित हैं। मिसाल के लिए, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। इस साल जनवरी में उन्होंने सौर ऊर्जा के सदुपयोग का जो विचार सामने रखा था, उसे पेरिस में उन्होंने अमलीजामा पहनाने की तरफ कदम बढ़ाए, और दिलचस्प बात यह रही कि उनकी इस पहल में साथ देने को 100 से ज्यादा (विकसित और विकासशील) देशों ने साथ देने की कसम खाई है।
दरअसल मोदी ने कहा था कि आने वाले वक्त में जीवाश्म र्इंधन खत्म होते जाएंगे इसलिए हमें ऊर्जा के नए स्रोतों पर काम करना चाहिए। दो विचार उन्होंने सुझाए थे। एक, सौर ऊर्जा का पूरा इस्तेमाल और, दो, कूड़े-कचरे से र्इंधन बनाना। काम शुरू हुआ तो जरूरी डाटा और आंकड़े सामने आते गए। पता चला, कई देश हैं जिनके यहां इस पर विचार तो चल रहा है पर कदम नहीं बढ़ाए गए हैं। पेरिस में मोदी ने ऐसे इच्छुक देशों के नेताओं और उद्योगपतियों से बात करके एक बड़ा सौर गठबंधन बनाकर सौर ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए निवेश और तकनीक साझा करने के एक समूह का खाका खींचा। फ्रांस और भारत ने मिलकर एक खरब डालर के इस गठबंधन की शुरुआत की, जो सौर ऊर्जा क्षेत्र में गरीब देशों की मदद भी करेगा।
रही बात कार्बन उत्सर्जन को घटाने की, तो मोदी ने विकसित देशों से इस पर कोरी बौद्धिक चिंताओं से परे कुछ ठोस पहल करने को कहा। चोटी के विश्व नेताओं से अलग से बात करके उस क्योटो प्रोटोकॉल (1997) की तरफ गंभीरता दिखाने की अपील की, जो कहता है कि 2020 तक सभी विकसित और धनी देश यह कोशिश करेंगे कि उनके यहां प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन का आंकड़ा औद्योगीकरण की शुरुआत के वक्त जो तापमान था उससे वह 2 डिग्री नीचे आ जाए। साथ ही, धनी देश विकासशील देशों में र्इंधन की खपत कम करके पर्यावरण के लिए लाभकारी तकनीक लगाने के लिए पर्याप्त अनुदान दें। लेकिन बड़े देशों की ठसक दिखाते हुए अमरीका के ऊर्जा विभाग की एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी-एनर्जी के पूर्व कार्यवाहक निदेशक चेरिल मार्टिन ने कहा कि गरीब देशों के कुछ कामगार नई परियोजनाओं को ठीक से नहीं बनाए रख पा रहे हैं जिससे चीजें बिगड़ रही हैं। संयुक्त राष्टÑ के हरित पर्यावरण कोष में अभी सिर्फ 10 करोड़ डॉलर ही हैं।
बातें जारी हैं, लेकिन उम्मीद कम ही है कि ठोस नतीजा सामने आएगा। क्या विकसित देश अपनी सुविधाभोगी जीवनशैली में बदलाव लाएंगे? क्या वे संसाधनों का संयमित दोहन करने की बात लिखकर देंगे? अगर इन सवालों के जवाब ‘नहीं’ में हैं तो अमीर और गरीब देशों के बीच खाई बनी रहेगी और जल, जंगल, जमीन का उजड़ना जारी रहेगा।
‘ क्लीन एनर्जी’ के लिए मिले हाथ
2 दिसम्बर को पेरिस में विभिन्न राष्टÑाध्यक्षों के साथ दुनिया भर के चोटी के उद्योगपतियों ने ‘क्लीन एनर्जी’ विकसित करने के लिए एक महत्वपूर्ण संकल्प लिया। इस पर आम सहमति बनती दिखाई दी। इस मौके पर जहां अमरीका के बिल गेट्स मौजूद थे तो भारत के रतन टाटा और मुकेश अंबानी भी थे। ये मौसमी बदलाव पर पेरिस में चल रहे सम्मेलन में भारत के उस आह्वान को आगे बढ़ाने की संकल्पना थी कि एक अंतरराष्टÑीय सौर गठबंधन वक्त की मांग है। बैठक के बाद एक ‘ब्रेकथू्र एनर्जी कोएलीशन’ बनाने पर सब एकमत हुए। यह ऐसी 28 कंपनियों का एक अंतरराष्टÑीय समूह होगा जो कम लागत पर विश्वसनीय तौर पर कार्बन मुक्त ऊर्जा उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस गठजोड़ का उद्घाटन नहीं हुआ है। बताया गया है कि इसका उद्घाटन मिशन इन्नोवेशन के साथ ही अमरीकी राष्टÑपति ओबामा की मेजबानी में होगा और उस मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी वहां रहेंगे। इस पहल के उद्देश्य यानी ‘क्लीन एनर्जी’ की आपूर्ति का वादा करने वाली शीर्ष कंपनियां ऐसे कदम उठाएंगी जिससे उनके ‘रिसर्च एंड डेवेलपमेंट’ में तेजी आएगी और ऊर्जा पारेषण सुगम होगा। इससे फायदा क्या होगा? फायदा ये होगा कि उद्योग जगत के इन प्रयासों का लाभ आगे चलकर दुनिया भर के देशों की सरकारों को इस रूप में मिलेगा कि वे शुद्ध ऊर्जा की राह पर नई सोच के साथ बढ़ पाएंगी और अपने यहां मौसमी बदलाव के दुष्प्रभावों को जितना होगा, कम कर पाएंगी। इस गठबंधन में फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग होंगे तो ब्रिटेन के वरजिन समूह के मुखिया रिचर्ड ब्रॉन्सन भी, और होंगे एचपी के मैग व्हिटमैन। अगर यह मुहिम परवान चढ़ती है तो दुनिया की ‘फॉसिल फ्यूल’ यानी कोयले, पेट्रोल, डीजल जैसे धरती के नीचे से मिलने वाले र्इंधन पर उतनी निर्भरता नहीं रहेगी।
भारत में ‘क्लाइमेट चेंज स्पेशल साइंस एक्सप्रेस’ करेगी जनजागरण
15 अक्तूबर 2015 को नई दिल्ली से एक विशेष क्लाइटमेट चेंज स्पेशल साइंस एक्सप्रेस रेलगाड़ी रवाना की गई। यह रेलगाड़ी पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए 18000 किलोमीटर का सफर करके भारत के 20 राज्यों के 64 स्थानों पर ठहरेगी और वैश्विक ताप के खतरों से सचेत करते हुए पर्यावरण सुधार पर जानकारियों का आदान-प्रदान करेगी।
संभावित खतरे
अगर पृथ्वी का तापमान और 2 डिग्री बढ़ा तो सबसे अधिक प्रभावित होंगे दक्षिण एशिया और सहारा से सटे अफ्रीकी क्षेत्र।
20%कृषि पैदावार 2030 तक कम हो जाएगी
एक अरब लोग 2050 तक बेघर हो जाएंगे
50करोड़ अफ्रीकी लोग पानी की कमी से जूझेंगे
111%तक गेहूं के दाम बढ़ जाएंगे
60करोड़ लोग 2080 तक कुपोषण के शिकार होंगे
6%से अधिक भूमि बंजर हो जाएगी
देश एवं प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन (टन में)
चीन 7.6
कनाडा 15.9
अमरीका 17.0
ब्राजील 2.5
यूरोपीय संघ 6.7
सऊदी अरब 18.1
भारत 1.7
मलेशिया 7.9
कुवैत 28.1
रूस 12.4
तुर्की 4.7
इटली 5.5
फ्रांस 5.02
पोलैंड 8.3
जापान 10.1
जर्मनी 9.3
ईरान 7.9
दक्षिण कोरिया 12.3
संयुक्त अरब अमीरात 20.4
न्यूजीलैंड 7.1
मैक्सिको 3.7
इंडोनेशिया 2.3
ब्रिटेन 7.1
आस्ट्रेलिया 17.3
दक्षिण अफ्रीका 7.4
आलोक गोस्वामी
वैश्विक ताप बढ़ने के पीछे है लालच
हेमंत गोस्वामी
आ ज मानव एक बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहा है। उसका अस्तित्व ही खतरे में है। और उसे यह खतरा अपने आप से ही है। जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू होती है। मानव की औद्योगिक सक्रियता से पृथ्वी के वायुमंडल में संचित कार्बन डाइआक्साइड में वृद्धि हुई और ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ के चलते हमारे ग्रह के तापमान में वृद्धि होने लगी। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्टÑ सम्मेलनों की कड़ी में 2012 के दोहा सम्मेलन में राष्टÑों ने क्योटो प्रोटोकॉल के लक्ष्यों की अवधि को बढ़ाते हुए निर्णय लिया था कि जब तक 2020 में एक नया अंतरराष्टÑीय समझौता नहीं बन जाता तब तक मौजूदा जलवायु लक्ष्य ही मान्य होंगे।
क्योटो प्रोटोकॉल के अनुच्छेद 3 (1) के अनुसार औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाउस गैसों और मानवजनित कार्बन डाइआॅक्साइड का उत्सर्जन तय मात्रा से अधिक नहीं हो सकता और ग्रीन हाउस गैसों (और कुछ औद्योगिक प्रक्रियाओं) का समग्र उत्सर्जन 2012 तक 1990 के स्तर से 5 फीसद कम करना निश्चित किया गया था। लेकिन विकसित देशों में संकल्प और प्रयासों की कमी दिखी और क्योटो के सामान्य लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी वे विफल हुए।
जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर विषय के कई आयाम विकासशील देशों के नजरिए से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन अंतरराष्टÑीय सम्मेलनों में चर्चा की अपनी सीमाएं रहती हैं। आइए, छह प्राथमिकता वाले मुद्दे और उनका संभव समाधान देखते हैं-
अत्यधिक और अनावश्यक उपभोग
जलवायु परिवर्तन की वर्तमान समस्या की धुरी अनावश्यक व अत्यधिक उपभोग को माना जा सकता है। जीडीपी, जीएनपी जैसे आधुनिक आर्थिक संकेतक राष्टÑ की समृद्धि और विकास के मापक माने जाते हैं, जो सीधे-सीधे खपत पर आधारित हंै। असल में विकास के ये सूचक ही त्रुटिपूर्ण हैं। इनकी छाया में समस्या का निवारण होना कठिन है। ये अत्यधिक विलासपूर्ण जीवन जीने के साधन और अनावश्यक व अत्यधिक उपभोग पर्यावरण क्षरण के लिए सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं। अंतरराष्टÑीय सम्मेलनों में इस विषय पर चर्चा नहीं होती, क्योंकि ये विकसित देशों और औद्योगिक भागीदारों को हितकारी नहीं लगते।
समाधान-अनावश्यक उपभोग और निर्माण को हतोत्साहित और सीमित करने की आवश्यकता है।
‘डिस्पोजेबल’ अर्थव्यवस्था
पिछले 30-40 वर्षों में ‘डिस्पोजेबल’ उत्पादों का प्रयोग एक नया चलन बनकर उभरा है। इससे ऐसा कचरा सामने आया है जिसके बारे में पहले कल्पना तक नहीं थी। यह भी पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण करने का ही परिणाम है। अमरीका कचरे का भी सबसे बड़ा उत्पादक है। अमरीका में करीब 28 अरब प्लास्टिक की पानी की बोतलें हर साल बनती हैं जोकि 17 लाख बैरल तेल की खपत के बराबर है। यानी साल में 50 लाख बैरल। यह सऊदी अरब से अमरीकी तेल आयात का 13 प्रतिशत है।
समाधान-‘डिस्पोजेबल’ उत्पादों और केवल एक बार इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाना या उनके सीमित उपयोग की नीति बनाना।
उत्पादों का घटता जीवनकाल
अधिक टिकाऊ उत्पादों के स्थान पर नयी पश्चिमी विपणन नीति के अंतर्गत उत्पादों का जीवन-चक्र (प्रोडक्ट लाइफ) घटा दिया गया है ताकि पुराना जल्दी से जल्दी खराब हो और नये उत्पाद की बिक्री हो। इस नए चलन से उत्पादन तो बढ़ता है पर उससे जुड़े हर प्रकार के प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।
समाधान- हमें उत्पादों की न्यूनतम आयु तय करने के नियम बनाने चाहिये।
जीवाश्म र्इंधन प्रबंधन, नयी कराधान प्रणाली
60 वर्षों में जीवाश्म ईंधन की खपत 10 लाख बैरल प्रतिदिन से बढ़कर 800 लाख बैरल प्रतिदिन हो गयी है। फलस्वरूप जीवाश्म ईंधन से कार्बन उत्सर्जन भी 1950 के 16300 लाख टन के स्तर से बढ़कर 2011 में 92650 लाख टन के स्तर पर पहुंच गया था। भारत में जीवाश्म ईंधन से कार्बन उत्सर्जन 2012 में 18.3 करोड़ मीट्रिक टन से अधिक था। हम जीवाश्म ईंधन के 80 प्रतिशत ज्ञात स्रोत खत्म कर चुके हैं।
कृषि प्रणाली
हमारी वर्तमान कृषि प्रणाली कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों पर आधारित है जिसके परिणामस्वरूप सैकड़ों जीवाणुओं, कीड़ों, पक्षियों और जानवरों की प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं। इसे बंद करना होगा।
दरअसल, पूरा संकट मानव की जरूरत नहीं अपितु लालच का परिणाम है। जलवायु परिवर्तन के परिणाम सबको समान भुगतने पड़ेंगे। हमें भाषणों की नहीं अपितु गंभीर प्रयासों की जरूरत है।
(लेखक समाजसेवी हैं और कई गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ जुड़े हुए हैं) (लेखक समाजसेवी हैं और कई गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ जुड़े हुए हैं)
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