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उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में जन्मे गोपालदास नीरज जाने-माने कवि, सहित्यकार हैं। पद्मश्री, पद्मभूषण और यशभारती जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित गोपालदास नीरज को फिल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये सत्तर के दशक में लगातार तीन बार पुरस्कृत किया जा चुका है। पुरस्कार वापसी अभियान को देश का माहौल खराब करने वाला मान रहे प्रसिद्घ कवि व साहित्यकार गोपालदास नीरज से इस पूरे मामले पर विवेक त्रिपाठी ने बातचीत की। प्रस्तुत हैं वार्ता के प्रमुख अंश :
एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत साहित्यकार और फिल्मकार जो पुरस्कार लौटा रहे हैं यह कहां तक सही है?
जो फिल्मकार व साहित्यकार पुरस्कार वापस कर रहे हैं वे देश में सहिष्णुता का माहौल खराब करना चाहते हैं, तभी ऐसा कदम उठा रहे हैं। उन्हें सरकार ने जो पुरस्कार दिया है उसका भी अपमान कर रहे हैं। साथ ही जिस संस्था ने दिया है उसे भी अपमानित कर रहे हैं। अगर उन्हें कोई दिक्कत है तो इस पर सरकार से बात करने का रास्ता निकालें। संवाद के जरिये बड़े-बड़े मुद्दे हल होते रहे हैं। लेकिन इस प्रकार की हरकत से उनकी लेखनी की ताकत खत्म होने का भी संदेश जा रहा है। अगर उन्हें किसी बात से परेशानी है तो वह अपनी कलम के जरिये विद्रोह करें तो ज्यादा बेहतर होगा।
देश में सब कुछ ठीक चलने के बावजूद विरोध का यह तरीका आप कहां तक उचित मानते हैं?
यह तरीका विकास विरोधी है। जब से नई सरकार बनी है तब से ही राजनीति से प्रेरित लोग उसके मार्ग में बाधा पहुंचाने का काम कर रहे हैं। अगर सरकार बाहरी निवेश को नहीं लायेगी तो रोजगार के साधन कैसे बढ़ेंगे। समाज के वंचित तबके कैसे आगे बढ़ेंगे। यह भी विरोध करने वाले लोगों को ध्यान रखना चाहिए। माहौल को खराब करने में मीडिया भी उनकी मदद कर रहा है। जिससे यह मुद्दा अनावश्यक रूप से चर्चा में रहे।
असहिष्णुता का राग गाने वालों की मानें तो मोदी सरकार कलाकारों और साहित्यकारों की आजादी को खत्म करने का प्रयास कर रही है। क्या आप इससे सहमत हैं?
ऐसा बिल्कुल नहीं है। सरकार बनने से पहले और आज तक लेखकों ने अपने आलेख और ब्लॉग के जारिये सरकार पर खूब निशाना साधा है। लेकिन सरकार की ओर से अभिव्यक्ति पर कोई संकट उत्पन्न नहीं हुआ। यह तो सिर्फ दुष्प्रचार का माहौल बनाने की बातें हैं। मोदी सरकार से पहले भी देश में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें काफी लोग मारे गये और देश को आर्थिक नुकसान भी हुआ। लेकिन उस समय किसी ने कोई पुरस्कार वापस नहीं किया। यह राजनीति से प्रेरित है, नई सरकार के विकास में बाधा पैदा करने वाला, सोचा समझा कदम है।
एक संवेदनशील बौद्धिक रचनाकार के नाते आपको देश में असहिष्णुता और घुटन का माहौल बनता हुआ दिखाई देता है क्या?
ऐसा कुछ भी नहीं है। देश धीरे-धीरे तरक्की के रास्ते पर चल पड़ा है। असल में जो राजनीतिक दुकान चलाते थे वे परेशान होने लगे हैं। बिना सोचे समझे पुरस्कार वापस करने की होड़ मच गई है। ऐसे लोग सिर्फ कागज के बने प्रमाणपत्र वापस कर रहे हैं, पुरस्कार में जो धनराशि मिली है वह भी वापस करें। उसका तो सदुपयोग कर रहे हैं। यह कैसा विरोध है। अगर कोई परेशानी या दिक्कत है तो उसे लेखनी के जरिये से आंदोलन बनाने का प्रयास होना चाहिए। और सरकार से मिलकर अपनी बातें रखनी चाहिए। ऐसा विरोध करने से देश की भी छवि खराब हो रही है। साथ ही ऐसे कुछ बुद्घिजीवियों के इस कदम को षड्यन्त्र के रूप में भी देखा जा रहा है।
समाज का मार्गदर्शन करने वाले साहित्यकारों और मनोरंजन के प्रतिनिधि फिल्मकारों की भूमिका किस तरह की होनी चाहिए?
पुरस्कार वापस करना कायदे से तो कोई आंदोलन नहीं यह सिर्फ षड्यन्त्र है। राजनीति से प्रेरित होकर कभी भी ऐसे आंदोलन नहीं करने चाहिए। ऐसा विरोध सरकार के विकास कार्य में बाधा डालता है। अभी यह पुरस्कार वापसी अभियान लोगों में भ्रम पैदा कर रहा है। किसी भी विचारधारा की पे्ररणा से रचनाकारों द्वारा ऐसा कदम उठाना सरासर गलत है।
जो पुरस्कार वापस कर रहे हैं उनके लिए आप कुछ संदेश देना चाहेंगे?
स्वर्ण की झंकार ने ऐसा किया है छल
समय से, पहले चातकों की
प्यास तक बाजार में बिकने लगी है॥।
सूलियों पर भी नहीं हुई
जिसकी गर्दन खम वह कलम
कुछ कुर्सियों के सामने झुकने लगी है॥। ल्ल
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