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बिहार में बेहद कटु माहौल में हुए विधानसभा चुनाव के बाद आखिरकार बिहार की नई सरकार का गठन हो गया है। इसके साथ ही अब बिहार की जनता नीतीश सरकार से उम्मीद लगा बैठी है कि नीतीश अपने चुनावी वायदों के अनुरूप राज्य में विकास की बयार बहायेंगे।
बिहार की अवाम ने जिन्हें सत्ता सांैपी है, उन्हें अच्छी तरह यह भी समझ लेना चाहिए कि सफेद कुर्ते पहन लेने भर से बिहार का विकास नहीं हो जाएगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आम आदमी को देना ही होगा। बिजली, पानी और सड़क की व्यवस्था दुरुस्त करनी ही पड़ेगी। सुरक्षा की गारंटी देनी होगी तभी विकास का माहौल बनेगा। अब बिहार को सिर्फ विकास चाहिए।
नीतीश कुमार के गांधी मैदान में शपथ ग्रहण करने के साथ ही कुछ पत्रकारों-लेखकों ने कहना शुरू कर दिया कि बिहार में जंगलराज-भाग दो शुरू हो गया। हालांकि, ऐसी त्वरित प्रतिक्रिया उचित नहीं है। जाहिर है बिहार की नई सरकार को इन आशंकाओं को गलत साबित करना होगा। बिहार को केन्द्र सरकार ने अगले पांच वर्षों के लिए 1़65 लाख हजार करोड़ की जो विशाल राशि विकास के लिए आवंटित की है,उसका कायदे से इस्तेमाल करना होगा। उस राशि की लूट-खसोट नहीं होनी चाहिए। जनता अपनी पैनी निगाहों से सारी गतिविधियों पर नजर रखेगी। अब वंचित-पिछड़े भी पढ़े-लिखे हैं, फेसबुक के प्रयोगकर्त्ता बन चुके हैं। किसी भी घटना को सोशल मीडिया पर वायरल होने में देर नहीं लगती है।
कायदे से देखा जाए तो केन्द्र से बिहार को सच में बहुत ही बड़ी राशि दी जा रही है। इसका यदि सही प्रकार से इस्तेमाल हो तो बिहार की तस्वीर सही मायने में बदल सकती है।
इसके साथ ही अब बिहार को केंद्रीय करों में अपने राज्य के हिस्से के रूप में उत्तर प्रदेश के बाद सर्वाधिक 3,81,394 करोड़ रुपये मिलेगा। क्या बिहार को मिलने वाली यह राशि गुजरात से तीन गुना, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश से दोगुना से भी ज्यादा और पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश व महाराष्टÑ से एक लाख करोड़ से अधिक नहीं है? यानी बिहार सरकार के पास फिलहाल धन की कोई कमी नहीं है, विकास करने के लिए। पर जरूरत इस बात की है कि बिहार के विकास के लिए ईमानदारी से योजनाएं बनें और उन्हें पारदर्शितापूर्वक लागू किया जाए। भ्रष्टाचार पर करारा हल्ला बोला जाए।
अब बुद्ध, महावीर से लेकर गुरु गोविन्द सिंह की धरती, बिहार निर्माता डा. सच्चिदानंद सिन्हा, देशरत्न डा. राजेन्द्र प्रसाद, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर और बाबू जगजीवन राम की धरती को विकास के रास्ते पर लेकर जाना ही होगा। उसे समावेशी विकास करना होगा। विकास का लाभ अंतिम जन तक पहुंचना चाहिए। विकास पर अधिकार किसी खास जाति या समूह तक सीमित नहीं रहना चाहिए।
जरा सोचिए, उस सीधे-सरल बिहारी का दर्द, जो देख-सुन रहा है सारे देश में हो रहे विकास के बारे में। लेकिन, उसकी खुद की जिंदगी नहीं बदल रही। उसकी जिंदगी में अंधकार ही अंधकार है। जाहिर है, अब बिहार का आम अवाम भी विकास की ख्वाहिश रखता है। वह भी बाकी हिन्दुस्तानियों की भांति बेहतर जिंदगी जीने का सपना देख रहा है। पर, अफसोस कि उसे बिहार की ‘सोशल जस्टिस’ की सियासत करने वाले अबतक छलते ही रहे हैं। बिहार में गुजरे 25 वर्षों से राज करने वालों ने विकास के नाम पर सिर्फ शिलान्यास भर किए। उनसे जरा पूछ लीजिए कि उन्होंने राज्य के औद्योगिक विकास के लिए क्या किया? उन्होंने किसानों के मसलों को किस तरह से हल किया? कितने रोजगार पैदा किए? सच्चाई यह है कि गुजरे 25 वर्षों के दौरान बिहार में औद्योगिक या कृषि क्षेत्र का रत्तीभर भी विकास नहीं हुआ। लालू-राबड़ी-नीतीश राज में बिहार में नए उद्यमियों को अपने यहां निवेश के लिए कभी बुलाने की जहमत नहीं उठाई। इसके साथ ही पहले से चलने वाले उद्योगों के मसलों को हल करने के लिए कोई ‘सिंगल विंडो सिस्टम’ नहीं स्थापित किया गया। बिहार में अपना कारोबार स्थापित करने वाले उद्योगों के लिए भूमि आवंटन की कोई ठोस व्यवस्था नहीं की गई। राज्य में ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ नाम की कोई चीज लालू-राबड़ी-नीतीश के दौर में विकसित नहीं की गई। आज बिहार में बिजली-पानी की आपूर्ति की कोई पक्की व्यवस्था नहीं है। सड़कें खस्ताहल हैं। जिस सड़क के लिए नीतीश विकासपुरुष कहे जाते हैं वहां की सड़क देख लें तो फिर विकास नाम से चिढ़ होने लगती है। मैंने हालिया विधानसभा चुनाव के दौरान राज्य की जमकर खाक छानी। मैं सच में डर गया अपने बिहार की सड़कों की दशा देखकर। खास-खास सड़कों पर भी गड्ढे ही गड्ढे स्वागत करते हैं। बिहार में समूची परिवहन व्यवस्था का भगवान ही मालिक है। सार्वजनिक परिवहन तो है ही नहीं। आज के बिहार से, पड़ोसी उत्तर प्रदेश और झारखंड भी बेहतर नजर आते हैं। बीते कुछ समय पहले ‘‘बीमारू’’ कहे जाने पर काफी तीखी बहस छिड़ गई थी। आखिर बिहार को ‘‘बीमारू’’ बनाया किसने? बिहार के लोगों ने या बिहार के नेताओं और शासकों ने? भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में 6 फीसद घरों में ही नौकरीपेशा हैं। इनमें से सरकारी नौकरी में 4 फीसद हैं, जबकि राष्टÑीय स्तर पर नौकरीपेशा घरों की संख्या करीब साढ़े नौ फीसद है। बिहार इस मामले में कुल 36 राज्यों की सूची में 33 वें क्रम पर है। यह ठीक है कि बिहार में सरस्वती पूजा बंगाल के बाद सर्वाधिक धूमधाम से होती है, पर उसी बिहार की 43 फीसद जनता निरक्षर है। देश की साक्षरता का औसत 35़.73 फीसद है। बिहार में 65 फीसद ग्रामीण आबादी ऐसी है जिसके पास अपनी जमीन नहीं है। भूमिहीनों में अगड़े-पिछड़े 70 फीसद ग्रामीण परिवार दिहाड़ी मजदूर हैं, जबकि देश का औसत 51 फीसद है। और सबसे दु:खद आंकड़ा यह है कि बिहार प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश में सबसे पीछे है। 2014-15 के आंकड़ों के मुताबिक यहां प्रति व्यक्ति आय 36143 रुपया प्रतिवर्ष है। 2013-14 में आंकड़ा 31199 था। जहां पर्यटन के चलने से गोवा प्रति व्यक्ति आय के मामले में पहले स्थान पर है। जबकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते रहे हैं कि गोवा से ज्यादा सैलानी बिहार के गया में आते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि ये सारे आंकड़े देश और बिहारियों को डराने के लिए पर्याप्त हैं। इनसे समझा जा सकता है कि बिहार के ताजा-सूरते हाल किस तरह के हैं। अब सोचने वाली बात यह है कि इस तरह के बिहार में देश या देश से बाहर का कौन सा निवेशक आकर अपना पैसा लगाएगा? क्या वह कोई धर्मशाला चला रहा है? उसे भी अपने निवेश पर लाभ चाहिए।
कहने को बिहार की पूर्ववर्ती सरकारों का फोकस रहा है खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र, कृषि आधारित उद्योग, सुपर स्पेशलिटी अस्पताल, इलेक्ट्रानिक हार्डवेयर उद्योग, कपड़ा उद्योग आदि पर। जरा किसी से पूछ लीजिए कि इन क्षेत्रों से जुड़ी कितनी कंपनियों को बिहार में आमंत्रित किया गया? क्या लालू से लेकर नीतीश ने वाणिज्य संगठनों जैसे फिक्की, सीआईआई या एसोचैम के सेमिनारों में शिरकत की। क्या उन्होंने देश-विदेश के प्रमुख उद्योगपतियों को बिहार में निवेश के लिए कभी आमंत्रित किया? अभी तक नहीं किया तो अब उन्हें करना होगा। क्या किसी को बताने की जरूरत है कि तमिलनाडू, आंध्र प्रदेश, कनार्टक, हरियाणा समेत बहुत से राज्यों की सूरत आईटी, टेलीकॉम और आॅटोमोबाइल क्षेत्रों ने बदल दी। इन क्षेत्रों की कंपनियों ने अनेक राज्यों में खरबों रुपये का निवेश किया। लाखों नौजवानों को रोजगार दिया। पर,बिहार के नेताओं ने इन कंपनियों को अपने यहां बुलाने की कभी ईमानदार कोशिश की हो याद नहीं आता। बता दीजिए कि किस बिहार के मुख्यमंत्री या मंत्री ने टाटा कांसलेटंसी सर्विसेज (टीसीएस), विप्रो, इंफोसिस, भारती एयरटेल, हीरो मोटर्स, टाटा मोटर्स, महिन्द्रा समूह वगैरह को अपने यहां पर निवेश करने के लिए आमंत्रित किया? नतीजा यह है कि बिहार के नौजवानों के लिए अपने घर में कोई रोजगार नहीं है। वे बिहार छोड़ने के लिए अभिशप्त हैं। अब बीती गलतियों को सुधारते हुए नीतीश सरकार को राज्य के विकास के लिए दिन-रात एक करना होगा।
बिहार में उद्योगों को आकर्षित करने के लिए कर में छूट देने से लेकर दूसरी तमाम सुविधाएं देनी होंगी। बिहार का विकास सिर्फ केन्द्र की मदद से मुमकिन है। नीतीश कुमार को बिहार में देसी और विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। अमरीका, सिंगापुर,जापान जैसे देशों में जाकर बड़ी कंपनियों के प्रमुखों से मिलना होगा ताकि बिहार को निवेश मिले। अपने लगभग 10 वर्षों के कार्यकाल में शायद ही उन्होंने इस तरह की पहल की हो। जब निजी क्षेत्र से निवेश नहीं आएगा तो विकास कहां से होगा। विकास में निजी क्षेत्र के निवेश की अहम भूमिका रहती है। चूंकि दुनिया उम्मीद पर टिकी है तो मानकर चलिए कि बिहार भी आगे बढ़ेगा। उधर खुशहाली आएगी। और याद रखिए कि बिहार पिछड़ा रहेगा, तो भारत का विकास भी अधूरा ही माना जाएगा।
आर. के़ सिन्हा ( लेखक, सांसद, राज्यसभा हैं।)
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