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छह माह पूर्व ‘पीयू’ अध्ययन संस्था की सर्वेक्षण रपट से अगली सदी में जनसंख्या वृद्धि का एक अनुमान मिला था, जिसमें दिखाया गया था कि अगले 50 वर्षों में ही ईसाई व मुस्लिम जनसंख्या में 100-100 करोड़ की वृद्धि हो सकती है। इस रपट का सभी देशों पर गंभीर असर हुआ। मुख्य रूप से चीन ने अपनी पिछले 30-35 वर्षों से जारी ‘एक संतति’ नीति बदल दी है। उसने एक सीधा-सीधा प्रश्न खुद से किया कि वही अकेला एक बच्चे की नीति पर क्यों चले? और उसने अपनी नीति बदल दी। उसी ‘पीयू’ संस्था की दूसरी रपट गत सप्ताह आई है। इसमें दिखाया है कि अमरीका में वहां के पंथों में आस्था रखने वालों की संख्या पिछले कुछ वर्षों में 35 प्रतिशत से कम हुई है। किसी समाज में ईश्वर को न मानने वालों अथवा नास्तिक लोगों की संख्या में वृद्धि होना, यह बात आजकल ‘न्यूज’ जैसी नहीं रही है। लेकिन अमरीका के लोगों को यह गंभीर प्रतीत होती है क्योंकि पूरे विश्व में उनका प्रभाव जमाने का अत्यंत महत्वपूर्ण काम उनके पंथ ने किया है। इस पृष्ठभूमि में अमरीका एवं यूरोप में ही अगर ‘बिलीवर्स’ कम होंगे, तो पूरे विश्व में जारी उनकी आक्रामक प्रणाली के अंदर से ही चरमराकर गिरने की संभावना बनती है। युवा पीढ़ी में तो यह स्थिति 50 प्रतिशत से अधिक है। पिछले आठ वर्ष में ‘बिलीवर्स’ की संख्या 71 से 65 प्रतिशत तक आ जाना गंभीर बात है।
किसी जमाने में जो प्रोटेस्टेंट 90 प्रतिशत होते थे वे अब 45 प्रतिशत रह गए हैं। लेकिन अब कैथोलिक भी तेजी से कम हो रहे हैं। इससे चर्च के साम्राज्य के ढहने का खतरा बन गया है। अभी हाल में कैथोलिकों के संदर्भ में भी उतनी ही बड़ी घटना घटी है रोम में चल रही ‘परिवार शिखर परिषद’ के परिणामों की। यूरोप अमरीका में ‘परिवार संस्कृति’ के विखंडित होने की समस्या पुरानी है। फिर भी पुनर्विवाह तथा उस जैसी समस्या से विखंडित होने वाले परिवारों को चर्च में सम्मान नहीं मिलता था। ऐसे परिवारों को चर्च में पुन: सम्मान हासिल हो, इसके लिए विश्व के सारे कार्डिनल और आर्चबिशप तीन सप्ताह तक एक शिखर परिषद में व्यस्त थे। परिवार का विखंडित होना अब पूरे विश्व में ही कुछ विशेष प्रतीत होने वाला मुद्दा नहीं रहा। चीन से लेकर कोच्चि तक और अलास्का से आस्ट्रेलिया तक, सभी स्थानों पर यह समस्या दिखती है। फिर भी वेटिकन काउंसिल के निर्णय का इसलिए महत्व है कि परिवार विखंडित होने की समस्या केवल परिवारों तक सीमित नहीं रही। प्रगत कहे जाने वाले पश्चिमी विश्व में स्वेच्छाचार की परिसीमा अब आंकड़ों में दिखाई दे रही है। समलैंगिक संबंधों के आंकड़े प्राकृतिक विवाह के आंकड़ों से प्रतिस्पर्धा करने लगे हैं। ऐसे समलैंगिक विवाह यद्यपि चिंता की बात हैं, लेकिन अप्राकृतिक ‘मित्रता’ का अनुपात भी 60 प्रतिशत से अधिक है। ‘पीयू’ के उक्त सर्वेक्षण से और ससेक्स विश्वविद्यालय की रपट से भी यह स्पष्ट हो चुका है। विखंडन की परिसीमा पर पहुंच चुके इस समाज को एकत्र रखने की जिम्मेदारी हमारी ही है, यह मानकर चर्च ने यह निर्णय लिया है। यह निर्णय लेते हुए पूरे चर्च संगठन में मतभिन्नता तो थी ही, यह संभावना भी बनी थी कि क्या पूरा संगठन दो धड़ों में बंट जाएगा? इसलिए पिछली पीढ़ी के जानकार कार्डिनल को आगे आकर कहना पड़ा कि ‘तूफान की दिशा पहचानो और निर्णय करो’।
इस पूरे मामले की ओर विश्व और भारत को भी गंभीरता से देखने की जरूरत है। इसका अहम कारण यह है कि स्वेच्छाचार को एक बार अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, मान्यता मिल गई तो वह हर तरफ फैलता है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि यह स्वेच्छाचार मुख्यत: उन्हीं पश्चिमी देशों में है जिन्होंने पूरे विश्व को 300 से 500 वर्ष तक अत्याचार कर लूटा है। लाखों करोड़ की लूट करके उन अतिसंपन्न देशों के कदम किस दिशा में पड़ रहे हैं, इसका यह नया दर्शन है। न्यूयार्क से लेकर पेरिस तक के फैशन पूरे विश्व में फैलते हैं। इसलिए यह जांचना होगा कि जो खतरे आज पोप के तंत्र को संभालने पड़ रहे हैं, क्या वे आने वाले समय में सभी परंपराओं के पंथाधीशों को तो नहीं संभालने पड़ेंगे? रोम में तीन सप्ताह के दौरान जो चर्चा हुई उसमें आमतौर पर ऐसी स्थिति थी कि यूरोप एवं अमरीका का एक गुट और अन्य देशों का दूसरा गुट था। कुल 270 बिशप इस शिखर परिषद में उपस्थित थे। अफ्रीकी देशों का गुट तो कड़ाई से कह रहा था कि ‘एक बार मामूली स्वेच्छाचार को आश्रय दिया तो आगे बड़े-बड़े स्वेच्छाचार भी मान्य किए जा सकते हैं।’ नाइजीरिया के बुजुर्ग कार्डिनल फ्रांसिस अरिंजे अवकाश प्राप्त होने के बाद भी उस परिसर में डेरा जमाए हुए थे। कई कार्डिनल और बिशप उनसे बार-बार मुलाकात कर रहे थे। वे भी अपनी भूमिका पर कायम थे। वास्तव में पूरे विश्व के बिशपों को नरम रुख अपनाना पड़ा और समाज को कायम रखने के लिए पुनर्विवाह जैसे दोषों को नजरअंदाज कर उन्हें मान्यता देने का निर्णय करना पड़ा। अनेक देशों की सरकारें इसी मुद्दे पर ढह रही हैं। संसद भंग की जा रही हैं।
इस संदर्भ में अब तीन मुद्दे सामने आते हैं। ‘पीयू’ की रपट को पूरी दुनिया ने गंभीरता से लिया है। भारत की इस पर क्या प्रतिक्रिया है? पिछली जनगणना में इसका चित्र कुछ स्पष्ट हुआ था। लेकिन यह मुद्दा केवल जन्मदर से बढ़ने वाली जनसंख्या तक सीमित नहीं रहा। पिछले माह असम में बंगलादेशी घुसपैठ को लेकर उपमन्यु हजारिका आयोग द्वारा दी गई चेतावनी के बारे में विश्व में काफी चर्चा सुनने में आई है। लेकिन भारत में अभी भी मीडिया ने यह विषय सामने नहीं रखा। ‘केवल घुसपैठ के आधार पर पूरा असम अगले कुछ वर्षों में मुस्लिम बहुल बनाने का’ बंगलादेशी घुसपैठियों का प्रयास फिर एक बार स्पष्ट हो चुका है। घुसपैठ से एक नए प्रकार का आक्रमण सामने आया है। आज ईसाई और मुसलमानों द्वारा एक-दूसरे की तुलना में अधिक प्रभावी होने के जो प्रयास सामने आए हैं, इस कारण हर एक देश को लगने लगा है कि अपनी संख्या वृद्धि नियंत्रित करने की नीति बनाना कहीं कोई गलती तो नहीं। चीन इसका एक उदाहरण है।
मुद्दा चाहे जनसंख्या वृद्धि का हो अथवा रोम में ‘परिवार’ विषय पर शिखर परिषद का, स्पष्ट है कि वैश्विक स्तर पर विखंडन बढ़ रहा है। एक समय ऐसा था कि पूरी दुनिया जनसंख्या कम करने का प्रामाणिक प्रयास कर रही थी। परिवार नियोजन के उपायों की पूरी दुनिया में वकालत होती थी। संयुक्त राष्टÑ संगठन भी उसमें ध्यान देता था। लेकिन पाया गया कि कुछ देश इसमें सहभागी हो रहे हैं और कुछ अत्यंत प्रयासपूर्वक जनसंख्या वृद्धि के लिए प्रयास कर रहे हैं। उन्हें साफ चेतावनी दी गई, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। इस संदर्भ में ‘पीयू’ जैसी संस्थाओं की रपटों से एक बात तो साफ हुई कि जनसंख्या बढ़ाने का यह पूरा प्रयास सतत और नियोजित गति से जारी है।
न्यूयार्क में सितंबर 2001 में वर्ल्ड ट्रेड टावर गिराए जाने के बाद पूरे विश्व में आतंक का माहौल था। उस माहौल में भी मुसलमसानों की जनसंख्या वृद्धि की गति बढ़ी रही। जनसंख्या किसी एक ही दिशा में बढेÞ, इस बात पर दुनिया चिंतित दिखती है, क्योंकि यह सिर्फ आंकड़ों की बढ़त का मामला नहीं, वैश्विक मूल्यों और विविधता को कायम रखने की चुनौती है। देखने वाली बात यह है कि दुनिया इस मुद्दे को कैसे लेती है। मोरेश्वर जोशी
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