समृद्धि की देवी के संग विघ्नहर्ता का आवाहन
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समृद्धि की देवी के संग विघ्नहर्ता का आवाहन

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Nov 9, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Nov 2015 12:22:11

प्रो.योगेश चन्द्र शर्मा
भारतीय संस्कृति में गणेश-पूजन का विशेष स्थान है। हमें गणेश की प्रतिमा देखने को मिलती है। गणेश-पूजन के लिए उनकी औपचारिक प्रतिमा का होना भी आवश्यक नहीं माना जाता। गणेश विघ्नहर्ता और रिद्धि-सिद्धि के दाता हैं। उन्हें ज्ञान और बुद्धि का भी प्रतीक माना जाता है। स्वयं महर्षि व्यास ने भी महाभारत जैसे विशाल ग्रंथ को लिखने के लिए उनकी सहायता ली थी। महर्षि व्यास बोलते जाते और गणेश लिखते जाते। गणेश सफलता देने वाले हैं और इसलिए प्रत्येक शुभ कार्य से पहले उनका स्मरण किया जाना आवश्यक समझा जाता है।
गणेश की सर्वप्रथम चर्चा हमें ऋग्वेद के एक मंत्र (2-23-1) में देखने को मिलती है। आज भी गणेश पूजन प्राय: इस मंत्र से ही प्रारंभ होता है-
गणानां त्वा गणपति हवामहे
इस मंत्र में गणेश के स्थान पर गणपति  का प्रयोग हुआ है, जो गणेश से अधिक प्राचीन नाम है। इस शब्द का प्रयोग ब्रह्मणस्पति के लिए किया जाता था। ब्रह्मणस्पति से अभिप्राय देवगुरु वृहस्पति से है, जो बुद्धि और ज्ञान के देवता माने गये हैं। इस प्रकार वृहस्पति से संबंधित हो जाने के कारण गणेश भी बुद्धि और ज्ञान के प्रतीक रूप में स्वीकार किये जाने लगे।
गणेश की उत्पत्ति के संबंध में प्रचलित एक मान्यता के अनुसार ये भगवान शंकर के प्रधान गण थे और इसीलिए इन्हें गणनायक, गणेश या गणपति के नाम से पुकारा गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार गणेश की कल्पना रात्रि देवता के रूप में की गयी। कुछ अन्य विद्वानों ने गणेश की गज आकृति के आधार पर यह भी विचार प्रकट किया है कि प्रारंभ में इनका स्वरूप पशु देवता का रहा होगा। सिंधु घाटी सभ्यता में खुदाई से जो मोहरें प्राप्त हुई हैं, उनमें से अनेक में अन्य पशुओं के अतिरिक्त हाथी के भी चित्र मिले हैं। विद्वानों के अनुसार यह स्वरूप ही गणेश का मूल स्वरूप रहा होगा अथवा इन मुद्राओं में हाथी के चित्र के अंकन के पीछे गणेश-पूजन की ही मुख्य भावना रही होगी।
गणेश-पुराण में, गणेश के अनेक अवतारों की चर्चा की गयी है। सतयुग में इन्होंने कश्यप पुत्र विनायक का रूप धारण किया और सिंह पर सवार होकर देवांतक नरांतक का वध किया। द्वापर युग में इन्होंने गजानन रूप में सिंदूर का वध किया और त्रेता युग में मयूरेश्वर के रूप में अवतरित होकर सिंधु का नाश किया। वैसे वाला सिंदूर भी उनके शौर्य स्वरूप का ही प्रतीक है, क्योंकि शौर्य का रंग लाल ही माना जाता है। गणेश-पुराण की एक कथा के अनुसार इन्होंने सिंदूर राक्षस का वध करके उसके सुवासित रक्त को अपने सम्पूर्ण शरीर पर लगाया था। संभव है सिंदूर लेपन की परंपरा के पीछे यह कथा भी रही हो।
वास्तव में गणेश का देवता वाला स्वरूप चतुर्थ और अष्टम शताब्दी के बीच में ही पूर्णत: विकसित हो पाया था। दक्षिण भारत में गणेश की अधिकांश प्रतिमाएं नृत्य की मुद्रा में मिलती हैं। यह स्वभाव उनके कला प्रेमी स्वरूप को उभारता है। उनके आठ हाथ दिखलाये गये हैं, जिनमें मोदक और कमल के अतिरिक्त अस्त्र-शस्त्र भी हैं। वाराणसी तथा उत्तर भारत के अन्य कुछ स्थानों पर भी हमें नृत्य गणेश की प्रतिमाएं देखने को मिलती हैं।
गणेश के अनेक नाम हमें पढ़ने और सुनने को मिलते हैं, जो या तो उनकी किसी विशेषता को प्रकट करते हैं या उनका संबंध किसी पौराणिक कथा से है। गजानन, गणपति, गणनायक, विघ्नहर्ता, गणेश्वर, रिद्धि-सिद्धि स्वामी, लम्बोदर, शूर्पकर्ण, एकदंत, मोदकप्रिय आदि अनेक नाम इनके उल्लेखनीय हैं।
शिवपुराण में गणेश की उत्पत्ति के संबंध में एक रोचक कथा है-पार्वती की दो अंतरंग सहेलियां थीं-जया और विजया। इन दोनों ने एक बार पार्वती को सलाह दी कि उनके पास भी अपना एक विश्वस्त अनुचर होना चाहिए। उस समय उनके पास सभी अनुचर शंकर के थे, जो स्वभावत: पार्वती की तुलना में शंकर को अधिक महत्व देते थे। पार्वती को यह सलाह पसंद आ गयी। उन्होंने अपने उबटन से एक गण का निर्माण करके उसे द्वार पर बैठा दिया और स्वयं स्नान करने चली गयीं। उन्होंने उसे यह निर्देश दिया कि उनके स्नान करते समय वह किसी भी व्यक्ति को अंदर न आने दें।
संयोगवश उसी समय वहां शंकर आ गये। निर्देश के अनुसार उस व्यक्ति ने शंकर को भी अंदर आने से रोका। शंकर कु्रद्ध हो गये। तब दोनों में युद्ध हुआ, जिसमें शंकर ने उस गण के सिर को धड़ से अलग कर दिया। इसी बीच पार्वती स्नान करके बाहर आ गयीं। अपने द्वारा उत्पन्न किए गए गण की मृत्यु से पार्वती को बहुत दु:ख हआ। तब शंकर ने एक हाथी का मस्तक काटकर उस गण के धड़ से लगा दिया और उसे जीवित कर दिया। इसी से उस गण का नाम पड़ गया गजानन। बाद में विष्णु अवतार परशुराम के आक्रमण से इनका एक दांत टूट गया और तब इनका नाम एकदंत पड़ गया।
दीपावली पर लक्ष्मी-पूजन के साथ गणेश-पूजन की व्यवस्था भी इसी भावना का परिचायक है। साधारणत: अन्य देवताओं के पूजन के समय पति-पत्नी के एक साथ पूजन की परंपरा है। उदाहरणार्थ सीता-राम, शिव-पार्वती आदि। लक्ष्मी के पति भगवान विष्णु हैं। अतएव सामान्यत: लक्ष्मी के साथ विष्णु का ही पूजन किया जाना चाहिए। मगर यह होता नहीं है। लक्ष्मी के साथ गणेश के पूजन की परंपरा बनी हुई है। ऊपरी तौर से देखने पर यह बड़ा अटपटा लगता है। मगर वास्तव में इसमें कोई अटपटापन नहीं है। लक्ष्मी के साथ विष्णु का पूजन करने से स्वभावत: हमारे पुरुष प्रधान समाज में वरीयता भगवान विष्णु को प्राप्त होती, लक्ष्मी को नहीं। दीपावली पर पूजन में हमारी मुख्य भावना, धन प्राप्ति की होती है और धन की स्वामिनी लक्ष्मी हैं, विष्णु नहीं। अतएव दीपावली-पूजन में प्रधानता लक्ष्मी को प्राप्त होती है। संभवत: इसीलिए दीपावली के पूजन-मंच से विष्णु बिल्कुल हट गये।
लक्ष्मी के साथ गणेश-पूजन का मंतव्य है धन के साथ बुद्धि प्राप्ति की भी आकांक्षा। बिना बुद्धि के केवल धन की प्राप्ति व्यर्थ है। एक दंतकथा के अनुसार एक बार एक राजा ने किसी लकड़हारे को चंदन का एक जंगल इनाम में दे दिया। चंदन के महत्व और मूल्य को समझने की बुद्धि उसमें नहीं थी। इसलिए उसने चंदन के सारे जंगल को काट-काटकर जला डाला और कुछ ही दिनों बाद वह फिर पहले जैसा ही गरीब हो गया। इसलिए धन के साथ बुद्धि का संयोग होना आवश्यक है। अतएव दीपावली पर उपासक लक्ष्मी के साथ गणेश के भी आशीर्वाद की कामना करते हैं।
लक्ष्मी के साथ गणेश पूजन की परंपरा के संदर्भ में एक कथा भी प्रचलित है। इस कथा के अनुसार एक साधु को एक बार राजसी सुख भोगने की इच्छा हुई। उसने लक्ष्मी की कठोर तपस्या की और उनसे राजसी सुख भोगने का वरदान प्राप्त कर लिया। इसके बाद वह राजदरबार में पहुंचा और सीधे राजा के पास जाकर उसका राजमुकुट नीचे गिरा दिया। राजा आगबबूला हो उठा। मगर इससे पहले कि वह कुछ कहे, उसके राजमुकुट से एक सांप निकलकर बाहर चला गया। राजा का क्रोध, हर्ष में बदल गया। उसने उस साधु को अपना मंत्री बना दिया।
कुछ दिनों बाद वह साधु राजमहल में पहुंचा और वहां जोर-जोर से चिल्लाकर सबको बाहर निकल जाने का आदेश देने लगा। सभी व्यक्ति उसके चमत्कारों के बारे में जानते थे। इसलिए जल्दी-जल्दी सब बाहर निकल आये। राजा भी उस समय राजमहल में ही था। वह भी चुपचाप बाहर निकल आया। थोड़ी ही देर में सम्पूर्ण राजमहल टूटकर गिर पड़ा। राजा साधु के आगे नतमस्तक हो गया। उसने उसे न केवल चमत्कारिक ही, बल्कि अपना प्राणरक्षक भी माना। उसने साधु को अपना प्रधानमंत्री बना दिया। अब सम्पूर्ण राजव्यवस्था साधु के ही इशारों पर चलने लगी। उसे घमंड हो गया और वह अपने को सर्वोपरि समझने लगा।
राजमहल के सामने गणेश जी की एक बहुत प्राचीन मूर्ति लगी हुई थी। एक दिन साधु ने सोचा कि यह मूर्ति राजमहल के सौंदर्य को बिगाड़ती है। सो, राजमद में आकर उसने गणेश जी की उस मूर्ति को वहां से हटा दिया।
कुछ दिनों बाद साधु ने राजा पर अपने प्रभाव को यथापूर्व रखने के लिए कहा कि उनके कुर्ते में सांप है, इसलिए उसे जल्दी उतार दें। राजा ने भरे दरबार में अपना कुर्ता तत्काल उतार दिया। मगर उसमें कोई सांप नहीं था। इससे राजा बहुत अधिक क्रुद्ध हुआ। उसने साधु को प्रधानमंत्री के पद से हटाकर जेल में डाल दिया।
साधु बड़ा दु:खी हुआ। उसने लक्ष्मी की पुन:आराधना की। लक्ष्मी ने स्वप्न में आकर बताया कि उसने गणेश जी को नाराज कर दिया है। इसीलिए उस पर यह विपत्ति टूटी है। साधु को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने अपनी गलती के लिए हृदय से पश्चाताप किया।
अगले ही दिन प्रात:काल राजा स्वयं जेल में आया और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। उसने साधु को जेल से निकालकर पुन: अपना प्रधानमंत्री बना लिया। प्रधानमंत्री बनने के तत्काल बाद, साधु ने गणेश मंदिर पुन: स्थापित कर दिया और गणेश के साथ ही अपनी इष्ट देवी लक्ष्मी की प्रतिमा भी स्थापित कर दी। वह अब लोगों को बतलाने लगा कि सुखी जीवन के लिए ज्ञान और समृद्धि दोनों ही आवश्यक हैं। इसलिए गणेश और लक्ष्मी दोनों का एक साथ पूजन किया जाना चाहिए। कहा जाता है कि तभी से लक्ष्मी के साथ गणेश-पूजन की भी परंपरा चल निकली।    ल्ल    

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