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पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 12 अंक: 33
23 फरवरी 1959
प्रधानमंत्री पं. नेहरू के निजी सचिव श्री एम. ओ. मथाई का त्यागपत्र और संघर्ष अनेक रहस्यों का उद्घाटन करेगा, यह उपर्युक्त पत्र के प्रकाशन से स्पष्ट है। श्री मथाई के हस्ताक्षरों से भेजा गया उक्त महत्वपूर्ण पत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सेक्रेटरियेट से बाहर कैसे निकला। यह अभी एक रहस्य ही है यद्यपि बम्बई के साप्ताहिक 'करेट' के कथानानुसार यह पत्र किसी कबाड़ी द्वारा किसी हलवाई को रद्दी में बेच दिया गया और यह हलवाई इसमें किसी को मिठाई बांधकर देने वाला था कि वहां से 'करेट' के हाथों में यह पत्र पहुंच गया। 11 फरवरी के 'करेट' में मूल प्रति का फोटो छपा है।
बरहाल इस कहानी की ज्यादा छानबीन न करते हुए भी प्रधानमंत्री की आठ फरवरी की पे्रस कांफ्रेंस में, उद्गारों के आधार पर इतना तो कह ही सकते हैं कि कातिपय कारणों से प्रधानमंत्री श्री मथाई अंसतुष्ट थे और उनसे मुक्ति पाने के लिए व्यग्र थे। कतिपय जानकार क्षेत्रों का तो यह भी कहना है कि 'मथाई कांड' के आकस्मिक विस्फोट के पीछे प्रधानमंत्री की भी अप्रत्यक्ष प्रेरणा विद्यमान है।
प्रधानमंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा, 'वह (मथाई) स्पष्ट ही बड़ी महत्वपूर्ण स्थिति पर पहुंच गया था। मुझसे संबंधित होने के कारण, इस महत्वपूर्ण स्थिति का सरलता से दुरुपयोग हो सकता था। उस स्थिति में कोई भी व्यक्ति यह सरलता से कर सकता था।' मैं इस बात के लिए व्यग्र था कि यह न होने पाए। अब तक मेरे पास कोई कारण नहीं था, रंचमात्र भी कारण नहीं था, जिसके आधार पर मैं सोच सकूं कि आर्थिक दृष्टि से इस स्थिति का दुरुपयोग किया गया है। मैं उसके बारे में चिंतित था। परन्तु जैसा मैंने कहा है श्री मथाई ने उस स्थिति का, यदि मुझे कहना ही हो तो, कई बार अपना दबाव डालकर दुरुपयोग किया और इस प्रकार कठिनाइयां खड़ी कर दीं। वे सब समय बुद्धिमत्ता से कार्य नहीं करते थे।
महत्वपूर्ण
प्रधानमंत्री और मि. मथाई में कशमकश किन कारणों से चली इस पर प्रकाश डालना न तो हमारे लिए अभी सम्भव है और न ही आवश्यक है, पर इस पत्र की ओर सम्पूर्ण राष्ट्र का ध्यान जाना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि उससे कई गंभीर शंकाओं और महत्वपूर्ण प्रश्नों को जन्म मिलता है।
प्रथम शंका है कि प्रधानमन्त्री के 'राष्ट्रीय सहायता कोष' हिसाब कौन रखता है, उसका व्यय करने वाली एजेन्सी कौन सी है, और उससे सहायता किन मदों एवं नियमों से दी जाती है।
यह सहायता किसलिए?
पत्र की भाषा से यह तो स्पष्ट नहीं है कि श्री मथाई द्वारा प्रयुक्त 'सहायतार्थ' शब्द का सम्बन्ध श्रीमती रामेश्वरी नेहरू को दी जाने वाली व्यक्तिगत सहायता, जैसी कि आमतौर पर भारत में राजनीतिक उत्पीडि़तों को दी जाती रही है, से है, अथवा ऐसे किसी धर्मार्थ अथवा राष्ट्रीय संस्था, जिससे श्रीमती रामेश्वरी नेहरू का 1950 में सम्बन्ध रहा हो, को दी गई सहायता से है।
देश का जनमत सहकारी खेती के विरुद्व
प्रमुख समाचार पत्रों एवं नेताओं द्वारा विरोध
(इधर प्रधानमंत्री एवं उनके पिछलग्गू 'सहकारी खेती से संबंधित नागपुर निर्णय' को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अलोकतन्त्रवादी वामपक्षी तत्वों के सहयोग से उसे लागू करने की जल्दी कर रहे हैं, तो उधर देश के सभी प्रमुख समाचारपत्र, अनुभवी विचारक यहां तक कि कांग्रेसी मन्त्री एवं नेता भी इस राष्ट्रघाती निर्णय को लागू करने का तर्कसम्मत विरोध कर रहे हैं। देश की इस आवाज को एक मंच पर एकत्र लाने का महत्वपूर्ण कार्य 'पाञ्चजन्य' कर रहा है और करता रहेगा। इस सप्ताह प्राप्त हुए कुछ मत हम दे रहे हैं-सं.)
दैनिक 'आज' वाराणसी
श्री जयप्रकाश नारायण ने भी काशी विद्यापीठ के अपने दीक्षान्त भाषण में कहा कि यदि सहकारी कृषि का प्रयोग देश में कार्यान्वित किया गया तो वह तब तक सफल न होगा जब तक नि:स्वार्थ भाव से जनसेवा करने वाले कार्यकर्ताओं की सेना जनमत को जाग्रत कर उसे सहकार एवं सहयोग की दिशा में उन्मुख नहीं करती। आपने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जनता में चेतना के अभाव के कारण ही नागपुर अधिवेशन के सहकारी कृषि सम्बन्धी प्रस्ताव का उद्देश्य सफल नहीं हो सकता। श्री जयप्रकाश नारायण ने यह आशंका व्यक्त की है कि यदि देश में सहकारी कृषि अपनाई गई तो सरकारी प्रेरणा से जो सहकारी समितियां अस्तित्व में आयेंगी वे सरकारी अधिकारियों के हाथ की कठपुतलियां होंगी। इन सरकारी अधिकारियों में से अधिकांश जनता के प्रति अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में जागरूक नहीं हैं। श्री जयप्रकाश नारायण के इस कथन मेंे तथ्य है। सरकारी तन्त्र भारत में रूस अथवा अन्य देशों के समान सहकारी कृषिपद्धति चाहे न लादे किन्तु सरकारी अधिकारियों की प्रेरणा से जो भी सहकारी समितियां अस्तित्व में आएंगी उनके सदस्यों में वास्तविक सहकारिता की भावना जाग्रत न होगी वरन् सरकार की ओर से प्राप्त हो सकने वाली सुविधा प्राप्त करने के लिए सरकारी नियमों की खाना पूरी करने की उसमें चेष्टा
की जाएगी।
भूमि का वितरण
सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए एक किसान के पास अधिक से अधिक कितनी भूमि रहे, इसे निश्चित करने की नितांत आवश्यकता है। एक बार यह अधिकतम सीमा निश्चित हो गयी तो उस सीमा से अधिक भूमि उस किसान से ली जा सकती है। किंतु आज भूमिहीन किसानों में से अधिसंख्य किसान हरिजन होने के कारण भूमि के वितरण के प्रश्न को आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक एवं राजनीतिक आयाम भी प्राप्त हुए हैं। अत: भूमिहीनों को भूमि देने का प्रश्न अत्यंत विवादग्रस्त बन बैठा है। –
-पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन, खण्ड-3, पृष्ठ संख्या-59
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