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वनवासी कला के पैरोकार

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Nov 9, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Nov 2015 14:27:17

भारत की वनवासी कला के क्षेत्र में हर्वे पेर्डरियोल एक बड़ा नाम है।  पेरिस के रहने वाले कला संग्रहकर्ता और प्रदर्शनीकार भारत की वनवासी कला की पैरवी और पैरोकारी तब से करते आ रहे हैं, जब स्वयं भारत के लोग भी यह विश्वास करने को तैयार नहीं थे कि वनवासी कला गैलरियों में सजाई जाने वाली कथित मुख्यधारा की कला की बराबरी कर सकती है। लेकिन अगर आप पेरिस में हर्वे पेर्डरियोल की गैलरी में प्रवेश करेंगे, तो आपको लगेगा, जैसे आप फ्रांस के बीचोंबीच अतीत के भारत में प्रवेश कर रहे हैं। इसके चप्पे-चप्पे पर  भारत की वनवासी कला को प्रदर्शित किया गया है, जिसमें विशेषकर महाराष्ट्र के वरली समुदाय और गोंड कलाओं को विशेष महत्व मिला है।
हर्वे पेर्डरियोल 1996 में तीन वर्ष के लिए भारत में रहे थे और तभी से उन्होंने भारत की वनवासी कलाकृतियों का संग्रह प्रारंभ कर दिया था। उनके शब्दों में, 'भारत की वनवासी कला का मेरा चयन समकालीन कला के दो महारथियों से प्रेरित था- जगदीश स्वामीनाथन और जीन-ह्यूबर्ट मार्टिन।' भारत की वनवासी कलाकृतियों से एक बार आमना-सामना होने के बाद हर्वे पेर्डरियोल उसके मुरीद हो गए। वह कहते हैं, 'मैंने सैकड़ों कलाकृतियां एकत्रित कीं। मैं वरली की कला के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हूं। मेरे पास जिव्या सोम माशे की विशाल पेंटिंग्स का बड़ा संग्रह है। अत्यंत मूलभूत चित्रात्मक चिन्हों, वृत्त, त्रिकोण और वर्ग को लेकर वरली के सर्वश्रेष्ठ कलाकार एक बेहद मर्मस्पर्शी कविता गढ़ डालते हैं। मिथिला चित्रकला आज भी शानदार आश्चर्य उत्पन्न करती है जैसे कि बेहद उत्कृष्ट पुष्प कुमारी। गोंड कलाकार एक जीवंत और लगातार विकसित होती वनवासी कला परम्परा के उदाहरण हैं।'
यद्यपि वनवासी कलाओं को समर्पित गैलरियां अभी पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली में भी खुली हैं, लेकिन पेरिस में पेर्डरियोल का संग्रहालय भारतीय वनवासी कला का एक सबसे उत्कृष्ट केन्द्र बना हुआ है। यह वह स्थान है, जहां भारत की वनवासी कला का एक खजाना सिर्फ एक व्यक्ति के प्रयासों से रचा गया है, और वह भी उस व्यक्ति द्वारा, जिसका भारत से पहला परिचय हुए अभी एक दशक भी पूरा नहीं हुआ है।
जब भारत की वनवासी कला को बाजार नहीं मिल रहा था, तब इस कला के अंशों को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अपने विज्ञापन में प्रयोग किया था। यद्यपि यह स्थिति अभी भी संतोष और आनंद की स्थिति तक नहीं पहुंची है, लेकिन कम से कम कतार में आ चुकी है। जैसे कि मार्च 2010 में लंदन की सोथबी की नीलामी में सबसे जाने-माने गोंड कलाकार स्व. जनगढ़ सिंह श्याम की एक कलाकृति को उसी मंच पर रखा गया था, जहां हुसैन या रजा की पेंटिंग्स थीं। इसकी बोली 6 लाख 40 हजार रुपए में लगी थी, जो अनुमान से दोगुनी थी। अगले वर्ष जनवरी में दिल्ली में आयोजित होने वाले भारत कला मेले में पेरिस के हर्वे पेर्डरियोल की गैलरी भी शामिल होने जा रही है, जो पूरी तरह भारत की वनवासी कला को समर्पित है। वनवासी कलाकारों के सामने समुचित दाम प्राप्त करने की समस्या रही है। लेकिन दस वर्ष पहले जापान में आत्महत्या कर लेने वाले जनगढ़ की कागज पर बनाई गई दो पेंटिंग्स को पेर्डरियोल ने पिछले वर्ष 7 और 8  लाख रुपए में बेचा। 

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