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डेविड फ्रॉली उपाख्य वामदेव शास्त्री अमरीका के न्यू मैक्सिको शहर में सांता फे में स्थित अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ वैदिक स्टडीज के संस्थापक हैं। उन्होंने हिन्दू धर्म, दर्शन, संस्कृति और अध्यात्म का गहन अध्ययन किया है। 30 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। योग, आयुर्वेद, ज्योतिष और वेदान्त पर वे अनेक वर्षों से दुनियाभर में व्याख्यान देते आ रहे हैं। वे भारत आकर योग शिविर आयोजित करते रहे हैं। जनवरी, 2015 में उन्हें भारत के राष्ट्रपति ने पद्म भूषण से अलंकृत किया है। पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने श्री डेविड फ्रॉली से विश्व में हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार के संदर्भ में जो विस्तृत बातचीत की, यहां हम उसके संपादित अंश प्रस्तुत कर रहे हैं।
विश्व के संदर्भ में बात करें तो हाल के कुछ साल पहले तक सनातन धर्म को हेय दृष्टि से देखा जाता था या पिछड़ेपन की निशानी माना जाता था। लेकिन आज स्थितियां काफी बदल चुकी हैं। इसके पीछे आप क्या कारण मानते हैं?
आधुनिक भाषा में हिन्दू धर्म की पुन: प्रस्तुति होने के बाद से यह विश्व के अनेक खुले विचार वाले लोगों में लोकप्रिय, प्रगत और भविष्योन्मुख बनकर उभरा है। इसके अनेक स्वरूप लोगों में खासे प्रचलित हो रहे हैं, जैसे योग, वेदान्त और आयुर्वेद। इसके प्रभाव का कई आंदोलनों और प्रवाहों में विस्तार होता गया है। लेकिन अब भी सनातन धर्म के संपूर्ण मूल्यों और विशिष्टता को विश्व में और मान्यता दिलाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। पर इसमें संदेह नहीं है कि एक दिव्य भविष्य की आधारशिला रखी जा चुकी है। आसन से लेकर प्राणायाम, मंत्र और ध्यान तक की योग साधना का विश्व में स्पष्ट प्रसार एक स्वाभाविक आयाम है और इसका विशद् परीक्षण भी हुआ है, लेकिन इसमें अन्य अनेक आयामों के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता। आज आयुर्वेद और योग के मन-शरीर को स्वस्थ रखने के आयाम ने इसे और विस्तार दिया है।
वातावरण में आए इस बदलाव में बौद्धिक दृष्टि से शायद सबसे बड़ा योगदान तब मिला जब पश्चिमी विज्ञान ने काल और अनन्त तथा ब्रह्मांड की व्यापकता के बारे में वही विचार सामने रखा जो वेदों में समाहित है, और यह प्रक्रिया 20वीं सदी के मोड़ के आस-पास आइंस्टीन से शुरू हुई थी। इससे पश्चिमी सोच में एक बड़ा परिवर्तन आया और जैसा कि अधिकांशत: हिन्दू दर्शन में है, ब्रह्माण्ड की एक नई विस्तृत दृष्टि का द्वार खुला। लोग अब हिन्दू विचार के लौकिक आयाम को देखने-जानने लगे, जैसा पहले नहीं होता था। इसके साथ ही, यौगिक परंपराओं और पश्चिमी शिक्षा लेकर अंग्रेजी भाषा में भाव व्यक्त करने में कुशल भारतीय विचारकों द्वारा एक आधुनिक, वैज्ञानिक और सार्वभौमिक तरीके से वैदिक शिक्षा देने में कुशलता का भी इसमें पूरा योगदान है। इस तरह उन्होंने स्वामी विवेकानंद से शुरू करके योग और वेदान्त को नई परिभाषा देते हुए एक पुरानी परंपरा को पुनर्जीवित किया है। पश्चिमी सोच के अन्य आयामों में भी यही नया संदर्भ दिखाई दिया है। 20वीं सदी के प्रारंभ में एक नई धारा पश्चिमी मनोविज्ञान ने, विशेष तौर पर सी. जी. जंग के माध्यम से, हमारे भीतर, मानवीय अहं के परे, चेतना के और गहरे स्तर को सामने रखा है जिसको ठीक लौकिक स्तर तक जाते हुए पूरब की योग परंपराओं से प्रेरणा मिली है। मनोविज्ञानियों ने अब धीरे-धीरे ध्यान की भूमिका का आदर करना और उन आध्यात्मिक ऊर्जाओं के साथ तालमेल बैठाना शुरू कर दिया है जो उनको योग सूत्रों में विस्तार से प्राप्त हुए हैं। इस संदर्भ में नए चिकित्सकीय शोध सहायक साबित हुए हैं।
स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी विभूतियों का इस दिशा में क्या योगदान रहा?
सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर, महात्मा गांधी ने समाज परिवर्तन के लिए अहिंसा के धर्म सम्मत सिद्धान्तों को अपनाया। उनसे पहले के स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े अन्य नेताओं, जैसे लोकमान्य तिलक और महर्षि अरविंद ने भगवद्गीता और कर्म योग को प्रचारित किया। इससे समाज के कार्य व्यवहार में हिन्दू विचार सम्मिलित हुआ, जिसने अमरीका और दुनिया के दूसरे सामाजिक आंदोलनों के जन-अधिकार अभियानों को प्रभावित किया। कम्प्यूटर युग ने भी हिन्दुत्व के प्रभाव को नई ऊंचाई प्रदान की है। संस्कृत को कम्प्यूटर के लिए भविष्य की भाषा के तौर पर मान्य करने और चेतना की ऊंची स्थितियों का पता लगाने ने भी अपनी भूमिका निभाई है। शिक्षा और प्रभाव के उच्च स्तर के साथ हिन्दू अप्रवासियों ने दिखाया है कि किस तरह हिन्दू धर्म आज विश्व में सफलता के सोपानों के साथ कदमताल कर रहा है। नए तकनीकी युग और ऊर्जा तथा सूचना के माध्यम के रूप में ब्रह्माण्ड को देखना विश्व को वेदान्त के दृष्टिकोण के और निकट लाया और असीम-भाव धारा से जोड़ने वाले हिन्दू विचार को संपूर्ण मानवता के सबसे दिव्य आयाम के रूप में सामने रखा। नए आधुनिक माध्यम और अभिव्यक्ति में हिन्दू धर्म की इस नई प्रस्तुति ने अपने विचार और प्रेरणाएं संपूर्ण जगत तक प्रेषित की हैं। देशज और स्थानीय परंपराओं के साथ ही, प्रकृति और धरती माता के प्रति फिर से जगा आदर भाव भी हिन्दुत्व के प्रसार में सहायक बना है। सत्य और आध्यात्मिकता की सार्वभौमिक परंपरा के प्रति एक नया उत्साह जगा है। पूरब से पश्चिम तक हिन्दुत्व की पताका फहर रही है।
पिछले अनेक वर्षों से कई संत, आध्यात्मिक गुरु पश्चिमी देशों में प्रवचन-व्याख्यान के लिए जाते रहे हैं। क्या इससे वहां हिन्दुत्व के प्रति सकारात्मक बदलाव लाने में कोई योगदान मिला?
पश्चिमी देशों में जाने वाले भारत के महान संतों, योग और ध्यान-शिक्षकों ने दुनिया में सनातन धर्म के प्रति आ रहे सकारात्मक बदलाव में केन्द्रीय भूमिका निभाई है। पूरी दुनिया में चेतना को उच्च आयाम पर ले जाने, शांति का मार्ग बताने और आध्यात्मिक क्षुधा को शांत करने में उनका अच्छा प्रभाव पड़ा है। लेकिन शुरू मेें ऐसा नहीं था। कई भारतीय मनीषियों को वहां भारी विरोध झेलना पड़ा था, यहां तक कि जान पर संकट आ गया था। उन पर मुकदमे हुए, एक अलग आध्यात्मिक मार्ग प्रस्तुत करने पर अपमान झेलना पड़ा, पश्चिम के ऐसे कई पांथिक संस्थानों की तरफ से चुनौतियां मिलीं जो पूरब की शिक्षा के विरुद्ध थे। लेकिन पिछले कुछ दशकों में ऐसी सब परिस्थितियां दरकिनार हो चुकी हैं। रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि या योगानंद सरीखे कई संत अब भी वहां खूब लोकप्रिय हैं और भारत से आने वाले नए गुरुओं के प्रति सहज उत्सुकता देखने में आती है। कुछ शीर्ष संतों ने पश्चिम में अपने बड़े आश्रम स्थापित किए जो आज उनके जाने के बाद भी धर्म के प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं। महर्षि महेश योगी ने वैदिक विचारों के प्रसार में केन्द्रीय भूमिका निभाई। उन्होंने ही 1960 के दशक में पश्चिम में पहली बार एक बड़े स्तर पर ध्यान का प्रसार किया था। इसके द्वारा स्थापित पृष्ठभूमि पर फिर मंत्र, और आगे आयुर्वेद, ज्योतिष तथा वास्तु का प्रसार हुआ। चेतना के सर्वसमावेशी विज्ञान के जैसी आध्यात्मिक ज्ञान की विस्तृत वैदिक व्यवस्था को देखकर धीरे-धीरे दुनिया के मन पर उसका प्रभाव पड़ रहा है। सनातन धर्म ज्ञान के रास्ते चलता है, मान्यता, जाति या रूढि़यों के रास्ते नहीं।
ल्ल यू.के. और अमरीका में आज अनेक हिन्दू मंदिर हैं। हिन्दू संस्कृति और मूल्यों के प्रसार में उनका क्या योगदान है?
कुछ वर्ष पहले मैं कनाडा में कई प्रमुख हिन्दू संस्थाओं के बीच व्याख्यान दे रहा था। मुझे बताया गया कि टोरंटो का नया स्वामीनारायण मंदिर मुख्य अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास अलग से दिखता है। यह इतना शानदार और खूबसूरत बनाया गया था कि इसने हिन्दुत्व के प्रति कनाडा वालों के विचारों में इतनी सकारात्मकता ला दी जितनी कि भाषणों या व्याख्यानों से नहीं आई थी। तो ऐसा प्रभाव होता है मंदिरों का। मंदिर अपने कार्यक्रमों और सामुदायिक केन्द्रों के तौर पर हिन्दू अप्रवासियों को जोड़े रखने, उनकी उपस्थिति का भान कराने और युवाओं को साथ लाने में मददगार रहे हैं। आज कई पश्चिम वाले भी मंदिरों में जाने लगे हैं, अपने घर पर देव-प्रतिमाएं पूजने लगे हैं। लेकिन हिन्दू धर्म को सहेजे रखने के लिए सिर्फ मंदिरों की ही जरूरत नहीं है। हर मंदिर को ज्ञान-मंदिर भी होना चाहिए।
ल्ल आपने बताया, पश्चिम में लोग अब हिन्दू संस्कृति, मूल्यों, आयुर्वेद, योग की तरफ आकर्षित हो रहे हंै। क्या इससे उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव आ रहा है?
पश्चिम में काफी संख्या में लोगों ने पश्चिम के विशुद्ध भौतिक जीवन की सीमाओं को पहचान कर योग, मंत्र और ध्यान के माध्यम से नई आध्यात्मिक दिशा में देखना शुरू कर दिया है। ऐसी सब चीजों से उनके जीवन में परिवर्तन आ रहा है, उनमें तारतम्यता और संपूर्णता आ रही है। ऐसे अनेक समूह हैं जो कीर्तन करते हैं, पूजा करते हैं, मंत्र जपते हैं। पश्चिम के मान्यता आधारित पंथ में सार्वभौमिक चेतना पाने के आध्यात्मिक कार्यों और माध्यमों की तय व्यवस्था नहीं है जो हमें योग और वेदान्त में स्पष्ट, तर्कसंगत और समग्रता में दिखती है। लोग सिर्फ धार्मिक मान्यता ही नहीं बल्कि ध्यान के जरिए आध्यात्मिकता का प्रायोगिक स्वरूप चाहते हैं।
ल्ल ऐसा कोई उदाहरण बता सकते हैं जिसमें हिन्दू जीवन पद्धति अपनाने से किसी व्यक्ति का पूरा जीवन बदल गया हो या अर्थपूर्ण हुआ हो?
सनातन धर्म के विभिन्न आयामों से अनेक लोगों ने बहुत कुछ प्राप्त किया है। मैंने कितने ही लोगों को देखा है जिनके असाध्य रोग आयुर्वेद से ठीक हुए हैं। मानसिक रोगों में योग और आयुर्वेद बहुत लाभकारी रहे हैं। अवसाद, भटकाव और वैसी ही अन्य मानसिक समस्याएं इससे दूर हुई हैं। ज्योतिष कर्मफल के बारे में बताता है, जीवन को बदल देने वाले महत्वपूर्ण निर्णयों और कामों के बारे में मार्गदर्शन करता है। मंत्र और ध्यान के वैदिक स्वरूप मन में शांति और स्पष्टता लाते हैं। आज तो पश्चिम में सनातन धर्म के ऐसे प्रवर्तक भी हैं जो हिन्दुत्व की गूढ़ शिक्षाओं की व्याख्या करते आलेख और किताबें लिख रहे हैं।
ल्ल भारत में कुछ राजनेता, तथाकथित बुद्धिजीवी और मीडिया का एक वर्ग है, जो खुद को पंथनिरपेक्ष बताता है और इसे साबित करने के नाम पर हिन्दुत्व का अनादर करता है। इस पर आप क्या कहेंगे?
पश्चिम में धार्मिक ज्ञान को प्रगतिवादी माना जाता है, वहीं भारत के बुद्धिजीवी पश्चिम के उन स्वच्छंद और भोगवादी चलनों की ही नकल करना पसंद करते हैं जिनको आज दुनियाभर के विचारक बड़ी सूक्ष्म नजर से परख रहे हैं। भारत के वामवादी पश्चिम के वामवादियों से एकदम अलग तरह के हैं। जहां पश्चिम में शाकाहार, पशुओं के अधिकार, योग, ध्यान और प्राकृतिक चिकित्सा जैसे हिन्दू मूल्यों को उदारवादी एजेंडा माना जाता है वहीं भारत के वामपंथी इन्हें दक्षिणपंथी और उग्र मानते हैं, विशेषकर इसलिए क्योंकि ये हिन्दू धर्म से जुड़ी हैं। भारत के अनेक बुद्धिजीवी हिन्दुत्व को बुरा-भला कहने, उस पर लांछन लगाने में अपनी बड़ाई समझते हैं। ये पूर्व औपनिवेशिक और मार्क्सवादी सोच के अवशेषों की तरह हैं और दुनिया में तेजी से लोकप्रिय होती जा रही आध्यात्मिक जिज्ञासा की तरफ आंखें मूंदे रहते हैं। इनमें से ज्यादातर वेदान्त से अपरिचित होते हैं, संस्कृत नहीं पढ़ते और न कभी ध्यान या मंत्रोच्चार करते हैं। वे एक हठी और अहंकारी सोच में कैद रहते हैं, जिसमें अपने भीतर और गहरे झांककर देखने की गुंजाइश नहीं है और जो जीवन के बाहरी भौतिक आयामों से परे नहीं देख सकती। महान योगियों के ज्ञान का सम्मान करने की उनसे अपेक्षा ही नहीं की जा सकती।
भारत में साम्यवाद सहित वामपंथी और मार्क्सवादी विचार का मीडिया और अकादमिक क्षेत्रों पर बहुत गहरा असर रहा है, जो आज भी जारी है। वे अब भी स्टालिन और माओ को गले लगाए दिखते हैं। वे हिन्दुओं को अपना प्रमुख राजनीतिक शत्रु और हर हिन्दू विरोधी समूह को अपने राजनीतिक दोस्त के तौर पर देखते हैं। वे गाय की रक्षा करने वाले हिन्दुओं को बुरा-भला और खतरनाक कहते हैं जबकि आईएसआईएस सरीखे जिहादी गुटों, और यहां तक कि भारत में सक्रिय माओवादि की ओर से आंखें फेरे रखते हैं।
हिन्दुओं के घर वापसी कार्यक्रमों से उनको चिढ़ होती है, लेकिन वे कहीं बड़े पैमाने पर और कहीं ज्यादा विदेशी पैसे से चलते उन कन्वर्जन के अभियानों पर चुप्पी ओढ़े रहते हैं जिनके पीछे अक्सर विघटनकारी एजेंडे हाते हैं। हैरानी की बात है कि भारत के बुद्धिजीवी हिन्दुत्व पर हमला करना पसंद करते हैंे लेकिन इसके विपरीत वे उन पश्चिमी पांथिक परंपराओं की कहीं ज्यादा मर्यादित मान्यताओं की अक्सर पैरवी करते हैं जो अंधविश्वास की बात करती हैं। ऐसे धर्म विरोधी बुद्धिजीवी शायद आज भारत की सबसे बड़ी समस्या हैं और वे आज भी जहां तक संभव हो, संस्कृति में जहर घोलने का काम करते हैं। धार्मिक विचारकों के इस नए समूह द्वारा उनका प्रतिकार किए जाने की जरूरत है, जो आज विश्व में उभर रहा है। उनकी नकारात्मकता और झूठ का प्रतिकार करने के लिए एक नया धार्मिक मीडिया भी वक्त की जरूरत है। इसे हम सनातन धर्म के वैश्विक पुनर्जागरण के अगले महत्वपूर्ण चरण के तौर पर देखते हैं। फिर भी, सनातन धर्म का विस्तार और व्यापकता आज विश्व भर में विविधता के साथ गहरे समाई हुई है और अब इसके प्रसार को रोका नहीं जा सकता, भले ही इसको लेकर फैलाई गईं भ्रांतियां कुछ समय तक और दिखें।
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