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कहने को तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय देश के नामी विश्वविद्यालयों में से एक है, लेकिन वर्षों से यहां की आबोहवा में वामपंथी विचारधारा बह रही है। यहां के छात्रों पर देश व समाज विरोधी गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोप भी लगते रहे हैं। ऐसे ही कुछ विषयों को लेकर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सुधीर कुमार सोपोरी से बातचीत की अश्वनी मिश्र ने। प्रस्तुत हैं, उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश :-
जेएनयू देश में प्रखर बौद्धिकता का केन्द्र माना जाता है। आपका क्या मानना है?
आपके पास जो गुण होते हैं, उन्हें तो सभी अच्छा कहते ही हैं। ‘नैक’ संस्था की 16 सदस्यों की एक टीम विवि. आई थी, जिसमें बड़े-बड़े वैज्ञानिक और सामाजिक वैज्ञानिक थे। उन सभी ने जब यहां अध्ययन किया तो उसके हिसाब से संस्था का जो मानक है उस मानक में विवि. को सबसे ज्यादा ‘प्वाइंट’ मिले थे। अगर आप इसे मापदंड मानते हैं तो उस हिसाब से देश में जो अच्छे विश्वविद्यालय हैं उनमें जेएनयू का भी अपना सम्मान है।
महिषासुर के नाम पर परिसर में खुलेआम समाज तोड़ने की बात विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों द्वारा की जाती है। आपके ही कुछ शिक्षक सवर्णों को देश से भगाने की बात करते हैं। इस पर क्या कहेंगे?
सवर्णों को भगाने वाली बात यहां होती ही नहीं है। अगर ऐसी बातें की जाती हैं तो यह गलत है। रही ऐसे लोगों पर कार्रवाई की बात, तो हां, अगर कुछ लोग हैं, जो ऐसा करते हैं उसके लिए यहां एक कमेटी बनी हुई है, उसमें जो निर्णय होगा, देश के कानून के अनुसार उन पर भी लागू होगा और उन पर कार्रवाई की जाएगी। जेएनयू देश के कानून एवं व्यवस्था के बाहर नहीं है,जो कानून देश में है वह यहां पर भी हैं।
जिस विश्वविद्यालय में सामाजिक सरोकारों के लिए जागरण के अभियान चलने चाहिए थे (कन्या भ्रूण हत्या, साक्षरता, सामाजिक समरसता इत्यादि), वहां पर समाज तोड़ने के उपक्रम जारी हैं। क्या ऐसा नहीं लगता कि जनता की गाढ़ी कमाई का यहां दुरुपयोग हो रहा है?
मेरे संज्ञान में इस प्रकार की गतिविधियां नहीं हैं। इसी विश्वविद्यालय से निकलकर आज कई विद्यार्थी बड़े-बड़े संस्थानों में कार्यरत हैं। समाज के छोटे से छोटे स्तर का विद्यार्थी यहां आता है,क्योंकि यह अन्य शिक्षण संस्थानों से कई मामलों में भिन्न है। इस विश्वविद्यालय का मकसद ही अलग है और यह सामाजिक उत्थान के लिए बना है। यह विश्वविद्यालय उनके लिए है, जिनको उच्च शिक्षा नहीं मिल पा रही है उनको उच्च शिक्षा दिलवाना। रही समाज तोड़ने के उपक्रम की बात, तो हां, हो सकता है यहां कुछ घटनाएं होती हों, लेकिन उन घटनाओं को आधार बनाकर सभी को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता।
जेएनयू में छात्रा को कुल्हाड़ी से काट डाला गया। हिन्दुओं की आस्था की प्रतीक गाय के मांस को खाने को लेकर यहां कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। आपको नहीं लगता कि जेएनयू कुत्सित मानसिकता समाज को चिढ़ाने, सताने उसके प्रति अपराध करने वाले लोगों का अड्डा बनता जा रहा है ?
प्रत्येक समाज में कुछ गलत तत्व होते हैं। जहां तक गाय का मांस खाने का आयोजन करने की बात थी तो मामला संज्ञान में आते ही मैंने तत्काल कार्रवाई की थी। दो चार लोगों के मतिभ्रमित बातें करने से जेएनयू में हमारी संस्कृति को नष्ट नहीं किया सकता।
यहां भारतीय संस्कृति और समाज में विभेद करने वाले शोध ही ज्यादा प्रकाश में आते हैं। क्या भारतीय संस्कृति से जुड़े कोई शोध हुए हैं?
भारतीय संस्कृति पर बहुत से शोध आते हैं। मैंने संस्कृत सेंटर में छात्रों का एक सेमिनार किया था, जो छात्रों ने प्रकाशित भी किया। उसके अलावा हमने एक और अन्तरराष्ट्रीय सेमिनार इसी पर किया था। यहां हरेक किस्म के लोग हैं और कोई भी यहां आ सकता है। हमने इसी क्रम में पाली भाषा शुरू की है। ऐसा नहीं है कि यहां से भारतीय संस्कृति को हटाया जा रहा है। यह गलत प्रचारित किया जा रहा है।
कहा जाता है कि जेएनयू में समाज विरोधी या देश विरोधी गतिविधियां संचालित होती हैं। अफजल की फांसी पर यहां मातम मनाया जाता है। सैनिकों की नक्सलियों द्वारा हत्या पर यहां खुलेआम प्रसन्नता व्यक्त की जाती है। इस पर आप क्या कहेंगे?
इसके बारे में कहना बड़ा मुश्किल है कि किस चीज को आप देश विरोधी या समाज विरोधी कहें। यहां हर क्षेत्र के लोग हैं, जो अपने-अपने विचार प्रकट करते हैं। इस विश्वविद्यालय में राजनीतिक व सामाजिक विचारधाराएं भी हैं और जिस हिसाब से देश में जातिवाद की अवधारणा चलन में है उसकी भी विचारधारा यहां पर है। पहले यहां ऐसी कुछ गतिविधियां होती रही हैं पर अब वह सब उतना नहीं होता है। अब इन लोगों को भी समझ में आने लगा है। मैं यह भी बताना चाहता हूं कि इसमें हमारे सभी छात्र या अध्यापक शामिल नहीं हैं। बाहर एक भ्रम सा भी है। दिखाया जाता है कि पूरा विश्वविद्यालय इस देश के विरुद्ध काम कर रहा है और कुछ ही लोग हैं, जो इसमें शामिल नहीं हैं। मैं एक बात दावे के साथ कह सकता हूं कि इन कार्यों में दो या चार प्रतिशत ही लोग संलिप्त होंगे, जो इस प्रकार की गतिविधियां करते हैं। लेकिन यदि कुछ इस प्रकार का पता चलता है तो उस पर कदम उठाए जा सकते हैं।
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