|
वर्ष 2010-15 में मैंने जेएनयू में अध्ययन किया। इस दौरान यहां समय-समय पर होने वाले अनेक समाज व देश विरोधी कार्यों को मैंने बारीकी से देखा। एक घटना 2010 की है। इसी वर्ष जब दंतेवाड़ा (छ.ग.) में सेना के 76 जवानों को नक्सलियों ने मारा तो यहां पर देशविरोधी व नक्सल समर्थित छात्र संगठनों ने खुलेआम जश्न मनाया और इस घटना पर प्रसन्नता जाहिर की। यह सब हुआ जेएनयू प्रशासन की नाक के तले। मुझे ऐसा लगा ही नहीं कि देश की राजधानी में ऐसा देशविरोधी कार्य हो रहा है। इतना ही नहीं, समय-समय पर यहां के प्रोफेसरों द्वारा ही मैंने भारत की संस्कृति, सभ्यता व यहां की अखंडता को तोड़ने के तरीके देशविरोधी संगठनों द्वारा आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में सुने। उसके बाद से मुझे यकीन हो गया कि यहां पर एक बड़ा देशविरोधी वर्ग पलता है और जिसका एक ही उद्देश्य होता है- भारत का विखंडन कैसे भी करना है। जेएनयू का माहौल ही अलग है, जहां सस्ता एवं रियायती भोजन, आवास एवं अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है। यह सब भारत सरकार द्वारा उपलब्ध वित्तीय सहायता से संभव हुआ। कालांतर में गारंटी कृत ‘अवकाश’ की परिणिति से एक कृत्रिम पारिस्थितिकी या ‘कैम्पस-हैबिट्स’ की रचना हुई है, यह ऐसी विचार प्रक्रिया में छात्र-समुदाय के ‘सामाजीकरण’ को बढ़ावा देने के लिये अनुकूल है, जो वास्तविकता में सभी सुविधाओं के लिए भारतीय राज्य पर निर्भरता को एक कृत्रिम परिस्थिति न समझकर स्वाभाविक विशेषाधिकार (या नैसर्गिक विधान) समझता है। समस्त संसाधनों के लिए राज्य पर निर्भरता, समाजवाद की आड़ में अंततोगत्वा राजकीय पूंजीवाद है और यही विचारधारा अपने अतिवादी अवतार ‘माओवाद’ के रूप में प्रकट होती है। इस तरह के वैचारिक दृष्टिकोण का ‘परम लक्ष्य’ किसी भी प्रकार के साधन से ‘राज्य’ पर अपना कब्जा करना होता है।
भारतीय सन्दर्भ में ऐसा वैचारिक दृष्टिकोण ‘हिंदू-द्वेष’ तथा ‘भारत-तोड़ो’ अभियान के रूप में अपघटित हो जाता है और ऐसा दो ऐतिहासिक कारणों से संभव हुआ है। प्रथम- नेहरू एवं उनके उत्तराधिकारियों का सोवियत मॉडल की तथाकथित समाजवादी अर्थ-व्यवस्था को भारत में लागू करने का निर्णय एवं सोवियत ब्लॉक से उनकी घनिष्ठता। इस कारण अकादमिक संस्थानों के उत्पाद जो नेहरू एवं इंदिरा के राजनितिक एवं आर्थिक कार्यक्रम को एक वैचारिक कलेवर पहना सकें इसी ‘समाजवादी’ विचारधारा की फैक्ट्री के रूप में उच्च-शिक्षण एवं शोध संस्थाओं को बढावा दिया गया।
‘हिन्दू-द्वेष’ व ‘भारत तोड़ो’ अभियान में साम्यवादियों-समाजवादियों के अपघटन का दूसरा ऐतिहासिक कारण स्वयं साम्यवादी-समाजवादी विचारधारा की दुर्बलता एवं अन्तर्विरोध से उपजा है। राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था एवं विशाल-नौकरशाही तंत्र के इस्पाती ढांचे से उत्पन्न गतिरोध व निम्न-उत्पादकता व निम्न-कार्यकुशलता के बोझ से सोवियत-मॉडल धराशायी हो गया। नब्बे का दशक आते-आते वामपंथ व समाजवाद का किला, विश्व में दो-धु्रवीय व्यवस्था का एक स्तम्भ सोवियत-संघ ध्वस्त हो गया। भारत में भी राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था से खुली अर्थव्यवस्था की ओर दिशा-परिवर्तन करने का कारण भी निम्न-उत्पादकता व निम्न-कार्यकुशलता ही थी। अस्मिताओं के आन्दोलनों के जोर पकड़ने पर साम्यवादियों-समाजवादियों को भी अपने राजनीतिक नारे को ‘क्लास-स्ट्रगल’ यानी वर्ग-संघर्ष से बदलकर ‘कास्ट-स्ट्रगल’ यानी वर्ण-संघर्ष में परिवर्तित करना पड़ा। अब उन्होंने एक नयी अवधारणा दी कि भारतीय सन्दर्भ में वर्ण अथवा जाति-विभेद ही सही अर्थों में वर्ग-विभेद है और इस तथ्य को न समझ पाने के कारण ही उनका राजनीतिक पराभव हुआ है। ठीक यही निष्कर्ष साम्यवादी-समाजवादी राजनीतिक दलों के रूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने में उनकी असफलता से निराश वामपंथी-अतिवादी, हिंसक, भूमिगत आन्दोलन चलाने निकल पड़े वाम-समूहों ने भी निकाला। अस्मिता की राजनीति ने भारतीय संविधान व राज-व्यवस्था द्वारा नागरिक-अधिकारों के संरक्षण हेतु सृजित कोटियों (यथा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग) को अपरिवर्तनीय एवं परस्पर संघर्षरत नस्ली समूहों (यथा वंचित, वनवासी, बहुजन, मूलनिवासी इत्यादि) के अर्थों में रूढ़ कर दिया। जेएनयू जैसे संस्थानों में इस नयी राजनीतिक विचारधारा का स्वागत जोर-शोर से हुआ। क्योंकि एक तो सोवियत संघ के अवसान व भारत की ‘समाजवादी’ अर्थव्यवस्था का प्रयोग क्षीण होने से कमजोर हुई कांग्रेस के बदले नए आका पश्चिमी अकादमिक संस्थानों में संरक्षण देने में सक्षम थे, वहीं कुकुरमुत्तों की तरह उग आये एनजीओ (गैर सरकारी संस्था) के माध्यम से चारागाह भी उपलब्ध करवा रहे थे।
‘नव-वामपंथ’ के आकाओं के शस्त्रागार में उनका एक पुराना कूट-अस्त्र और भी था, अन्तरराष्ट्रीय मतांतरण करवाने वाली संस्थाओं का वृहद् तंत्र। इन्हीं कूट-अस्त्रों का प्रयोग कर अमरीका के नेतृत्व में जोशुआ प्रोजेक्ट 1, जोशुआ प्रोजेक्ट 2, एडी 2000 प्रोजेक्ट, मिशनरी संस्थाएं सीआईए (अमरीकी गुप्तचर संस्था) के मार्गदर्शन में मतान्तरण के काम में प्रवृत्त रही हैं। तहलका जैसी पत्रिका जो घोषित तौर पर कांग्रेसी संरक्षण में चलती है, उसके 2004 की खोजी रिपोर्ट में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। इन संस्थाओं के पास भारत में निवास करने वाले असंख्य मानव समुदायों की परंपरा, विश्वास, रीति-रिवाजों की छोटे से छोटे क्षेत्र को पिन-कोड में विभाजित कर जानकारी एवं उन लोगों तक अपने संपर्क सूत्र की पहुंच रखने का विशाल तंत्र है। नयी मतान्तरण रणनीति को दो चरणों में विभाजित किया गया है- प्रथम चरण में भारत की सामाजिक विभेद की दरारों को चौड़ा करने का लक्ष्य । इसके लिए वंचित, अनार्य, बहुजन, मूलनिवासी इत्यादि नयी अस्मिताओं का निर्माण कर हिन्दू धर्म को तथाकथित आर्य, बाहरी आक्रमणकारी, जो आज के तथाकथित उच्च वर्ण-जातियां हैं, की अनार्यों-मूलनिवासियों, बहुजनों को सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रूप से दास बनाये रखने की एक साजिश के रूप में प्रस्तुत करने का अभियान चलाया हुआ है। इसके लिए हिन्दू धर्म के कुछ तत्वों को अंगीकार कर उसमें गलत तथ्यों के साथ उसके अर्थों को प्रक्षेपित कर दिया जाता है। जेएनयू, में भी किस आॅफ लव, नव वामपंथ का उदाहरण है एवं बीफ फेस्टिवल की मांग करना, महिषासुर शहादत दिवस मानना, विजयादशमी को भगवान राम के पुतले को फांसी पर टांगना इत्यादि किया जाता है। विवि. में यह सब होने से और भी गंभीर समस्या देश के लिए उत्पन्न होने वाली है क्योंकि जेएनयू पूर्व-वर्णित भारत विरोधी समूहों को ‘वैधता एवं अभयारण्य’दोनों प्रदान करता है। रवींद्र सिंह बसेड़ा
टिप्पणियाँ