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जेएनयू -दरार का गढ़

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Nov 2, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Nov 2015 12:14:47

विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा का ऐसा प्रतिष्ठित केंद्र होता है,जहां आने के बाद छात्र अपने जीवन को एक नई दिशा देते हैं, शोध करते हैं एवं यहां के स्वछंद माहौल में अपनी सोच विकसित करते हैं। सपनों को उड़ान देते हैं। विचारों पर बहस करते हैं और अपनी विचारधारा तय करते हैं। देश के तमाम विश्वविद्यालयों में विभिन्न विचारधाराओं के छात्र और प्राध्यापक होते हैं, लेकिन जवाहरलाल नेहरू विवि. देश के तमाम विश्वविद्यालयों से जरा हटकर है। ऐसा क्यों है ? दरअसल जेएनयू एकमात्र ऐसा संस्थान है, जहां राष्ट्रवाद की बात करना गुनाह करने जैसा है। इसे वामपंथियों का गढ़ कहा जाता है, भारतीय संस्कृति को तोड़-मरोड़ कर गलत तथ्यों के साथ प्रस्तुत करना यहां आम बात है। उदाहरण के तौर पर जब पूरे देश में मां दुर्गा की पूजा होती है तो यहां ‘क्रिप्टोक्रिश्चियन’ (छद्म ईसाई) कथित नव वामपंथी छात्र और प्रोफेसर ‘महिषासुर दिवस’ मनाते हैं। आतंकवाद प्रभावित कश्मीर से सेना को हटाने की मांग करते हैं। इसके अलावा तमाम तरह की देशविरोधी उलट बातों की वकालत करते हैं। यहां के ‘बुद्धि के हिमालयों’ को सिर्फ एक ही बात समझाई और घुट्टी में पिलाई जाती है कि कैसे भारतीय संस्कृति से द्रोह व द्वेष, भारतीय मूल्यों का विरोध, हिन्दू विरोध, देश विरोधी कार्य, समाज विरोधी कार्य करना है।

 

भात के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय की हीरक जयंती के अवसर पर शिक्षा को विशेष महत्व देते हुए कहा था कि कैसे एक विश्वविद्यालय अपने छात्रों के मन में उन आधारभूत मूल्यों को सहेजते हुए राष्टÑ के स्वरूप को बदलने और उसे शक्तिशाली बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। पं.नेहरू की मौत के बाद उनकी पुत्री व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय संसद के माध्यम से एक अधिनियम द्वारा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना की, जिसका औपचारिक उद्घाटन भारत के तत्कालीन राष्टÑपति वी.वी.गिरि द्वारा किया गया।

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर शोध कार्य, पिछड़े व गरीब परिवारों के छात्रों को गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए विवि. की स्थापना की गई थी। विवि. का उद्देश्य मानवता, सहनशीलता, तर्कशीलता, चिंतन प्रक्रिया और सत्य की खोज से स्थापित ज्ञान का प्रचार प्रसार करना था। पर हुआ इसका बिल्कुल उलट। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय अपने शुरुआती उद्देश्यों से ही भटक गया और समय दर समय इस पर वामपंथियों का प्रभाव बढ़ता गया। दरअसल ब्रिटिश शासन के दौरान हमारे देश के उच्च वर्ग की कई पीढ़ियों ने पश्चिमी जगत में जाकर शिक्षा ली। वहां की शिक्षा पद्धति में भारतीय दर्शन, चिंतन, परंपरा एवं भारतीय संस्कृति को हीन तथा पश्चिमी चिंतन को श्रेष्ठ प्रचारित किया गया। मार्क्सवादी व अन्य वामपंथी विचारधाराएं भी पश्चिमी जगत की ही उत्पत्ति हैं। वहां से उच्च शिक्षा लेकर लौटे लोगों को कांग्रेस ने ज्यादा महत्व दिया। उन्होंने भारत विभाजन कराने वाले वामपंथियों को भी वैचारिक-राजनीतिक रूप से ऊंचा स्थान दिलाया।

ये वे लोग थे जो अपने लाभ के लिए भारत की संस्कृति व परंपरा को तोड़ने के लिए उतावले थे। इसका परिणाम यह रहा कि ऐसे लोगों को कांग्रेस एक राजनीतिक सहारे के रूप में मिल गई,जो पहले ही इसी विचारधारा से ओतप्रोत थी। वामपंथी चोला ओढ़े ऐसे ही लोगों की जेएनयू में नियुक्तियां हुर्इं। नतीजतन शुरुआत से ही विश्वविद्यालय वामपंथी प्रचार का व्यवस्थित, सांगठनिक तंत्र के रूप में एक बड़ी संस्थागत संरचना का अड्डा बन गया।

भारतीय मूल्यों को तोड़ने की शुरुआत

वामपंथी एवं क्रिप्टोक्रिश्चियन-छद्म ईसाई विचारधारा के राजनेता और विश्वविद्यालय के संकाय सदस्यों व कांग्रेस के गठजोड़ ने विश्वविद्यालय में अपने-अपने छात्र संगठनों को जैसे कि भाकपा का छात्र संगठन, माकपा का छात्र संगठन व भाकपा-माले की छात्र इकाई जैसे अन्य वाम संगठनों को यहां स्थापित कर दिया। यह विचारधारा यहां इतनी शक्तिशाली हो गई   कि एक बार विवि. के छात्रों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को परिसर के अन्दर नहीं आने दिया था व श्री लालकृष्ण आडवाणी   को विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर ही रोक दिया था।

शोध या प्रतिशोध?

उच्चस्तरीय शोध के लिए बने जेएनयू में करोड़ों रुपए खर्च होते हैं। ़विवि. अपने उदेश्यों को फलीभूत कर सके इसके लिए विश्वविद्यालयों को शैक्षणिक स्वतंत्रता दी गई है। डॉ. राधाकृष्णन ने विवि. शिक्षा आयोग के विषय में स्पष्ट कहा था कि विश्वविद्यालय के छात्र संघों को राजनीतिक उद्देश्य और गतिविधियों से मुक्त रखना चाहिए, लेकिन समय के साथ सत्ताधारियों के साथ मिलकर वामपंथियों ने इसका अर्थ तोड़-मरोड़कर राजनीतिक गतिविधियों की स्वतंत्रता में परिवर्तित कर दिया।

जेएनयू में विश्वविद्यालय की नीति निर्माण इकाई में नव वामपंथियों ने गहरी घुसपैठ बनाई और इसका परिणाम यह हुआ कि यहां की पाठ््य सामग्री में उनका पूरा हस्तक्षेप हो गया। इतना ही नहीं यहां मानवाधिकार,महिला अधिकार,पांथिक स्वतंत्रता,भेदभाव एवं अपवर्जन,लैंगिक न्याय एवं सेकुलरिज्म से ओतप्रोत पाठ्यक्रमों को बढ़ावा दिया गया। साथ ही यहां एक षड््यंत्र के तहत   भेदभाव एवं अपवर्जन अध्ययन केन्द्र,पूर्वोत्तर अध्ययन केन्द्र,अल्पसंख्यक एवं मानवजातीय समुदायों और सीमान्त क्षेत्रों का अध्ययन केन्द्र सहित और भी कई अध्ययन केन्द्रों की स्थापना की गई। लेकिन इनमें नव वामपंथी छात्र एवं छद्म ईसाई मिशनरियों से ओतप्रोत अध्यापकों को भर दिया गया। इन तमाम चीजों ने जेएनयू से शिक्षित पीढ़ी को वैचारिक रूप से भ्रष्ट बना दिया। यहां के माहौल में उच्च शिक्षा लेकर निकले छात्रों ने भारतीय इतिहास, राजनीति, मीडिया, न्याय व्यवस्था,नौकरशाही व समाज के अन्य क्षेत्रों में अपनी जड़ें जमा ली हैं।

अलगाववादी खुराक

कश्मीर से लेकर उत्तरपूर्व तक और नक्सल-माओवादी संक्रमित क्षेत्रों में सक्रिय लोकतंत्र विरोधी एवं हिंसा फैलाने वाले देशद्रोही, भारत विरोधी अलगाववादी ताकतों को प्रकट एवं गुप्त समर्थन प्रदान करने की खुराक यहीं से मिलती है, जिसका उदाहरण है दिल्ली विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर जी़ एऩ सार्इं बाबा। कुछ दिन पहले महाराष्ट्र पुलिस ने उसे माओवादी विचार, देशविरोधी कार्य व गुप्त रूप से माओवादियों को सहयोग करने के आरोप में गिरफ्तार किया। यदि जेएनयू के छात्रों की मानें तो भले ही वह दिल्ली विवि. में पढ़ाते थे, लेकिन उनके सभी राष्ट्रÑ विरोधी कार्य यहीं से संचालित होते थे। विवि. छात्र संघ में काबिज छात्र संगठन माओवादी पार्टी समर्थित छात्र संगठन है। वह विश्वविद्यालय में सक्रिय रूप से कार्य करता है और नक्सलियों को सक्रिय रूप से समर्थन भी उसे यहीं से मिलता है। अभी हाल ही में इस संगठन का एक कार्यकर्ता-हेम मिश्र, महाराष्टÑ के गढ़चिरौली में माओवादी गतिविधियों में लिप्त पाया गया था, जिसको महाराष्टÑ पुलिस ने हिरासत में रखा हुआ है।

देश तोड़ने के बदलते तरीके

कुछ समय पूर्व वामपंथियों की देश व समाज तोड़ने की नीति कुछ और होती थी लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव आया है। आज इन्होंने अपने चेहरे व अपने वैचारिक लड़ाई के क्षेत्र बदल लिए हंै। अब वे लेनिन की प्रस्थापनाएं नहीं दोहराते बल्कि उनके स्थान पर वे सेकुलरवाद, अल्पसंख्यक अधिकार, मानवाधिकार, महिला अधिकार व समाज के वंचित तबके के अधिकारों का सहारा लेकर अपने कार्यों को बड़ी ही आसानी के साथ अंजाम देते हैं। इस जहर की लहलहाती फसल को विश्वविद्यालय के प्रत्येक स्थान पर देखा जा सकता है। जेएनयू परिसर दीवारों पर लिखे नारों, पंफलेट और पोस्टरों से पटा रहता है। इनमें से अधिकतर नारे व पोस्टर भारतीय संस्कृति, सभ्यता व समाज व देश को विखंडित करने वाले होते हैं।

विवि.की बौद्धिक संस्कृति की बात करें तो ये संस्थान बहुजन संस्कृति का राग अलापते देखा जा सकता है। हिन्दू समाज की विविधता, जो उसकी थाती है,उसकी गलत तरीके से व्याख्या कर यहां के प्रोफेसर हिंदू समाज को तोड़ने का भरसक प्रयास करते हैं। यहां के पुस्तकालयों में भारतीय संस्कृति,दर्शन व यहां के मूल्यों को प्रस्तुत करने वाली पुस्तक व साहित्य छोड़कर आपको वह यहां सभी यहां बड़ा व्यवस्थित मिलेगा, जिसे यहां होना ही नहीं चाहिए। इसे अगर यूं कहें तो जो सिद्धांत सभी जगह अस्वीकार कर दिए जाते हैं वे यहां के कथित बुद्धिजीवी स्वीकार करते हैं। यहां के नव वामपंथी छात्र और ईसाई विचार के ध्वजवाहक प्रोफेसर साल दर साल परिसर के अन्दर ही समाज व देश तोड़ने वाले साहित्य को विवि. के नए सत्र से प्रारम्भ और समाप्त होने तक कम मूल्य पर उपलब्ध करवाते हैं। देशभर से प्रतिवर्ष आने वाले सामान्य युवाओं को यही पुस्तकें और इन्हीं प्रोफेसरों व नव वामपंथी छात्र संगठनों का सान्निध्य उन्हें बौद्धिक खुराक के रूप में मिलता है और असल में यही जेएनयू की पहचान है।

फारवर्ड प्रेस का विवि.‘कनेक्शन’

विवि. में कुछ कथित नव वामपंथी छात्र व प्रोफेसरों की मिलीभगत से ठीक विजयादशमी के बाद महिषासुर शहादत दिवस मनाने का प्रचलन शुरू हुआ। ‘महिषासुर’ दिवस मनाने वाले अपने आप को पिछड़े,वंचित एवं वनवासियों का प्रतिनिधि बताते हैं तथा महिषासुर को पिछड़े ,वंचित एवं वनवासियों के नायक-भगवान के रूप में प्रदर्शित करते हैं। इस काम में इनका साथ कई वामपंथी पत्रकार दे रहे हैं। ईसाई मिशनरी परिसर में महिषासुर एवं बहुजन संस्कृति बौद्धिक बहस के माध्यम से यह प्रचारित करती हैं कि पिछड़ा वर्ग, वंचित एवं वनवासी ही भारत का मूल निवासी है और बाकी सभी विदेशी हैं। आर्य बाहर से आए हैं जिन्होंने छलपूर्वक यहां के मूल निवासियों व वंचितों को अपनी संस्कृति का गुलाम बना लिया। इसलिए वे पत्रिका के माध्यम से हिन्दू-देवताओं को अभद्र भाषा से संबोधित करते हैं। चूंकि ईसाई मिशनरियों का लक्ष्य है कि कैसे हिन्दू समाज में उसकी वर्ण व्यवस्था के माध्यम से खार्इं इतनी चौड़ी कर दें कि यह कभी भी अपने को इसका अंग न मानें और इनसे यह दूर होते चले जाएं। मिशनरी आर्य-अनार्य के सिद्धांत को पुन: परिभाषित कर रही हैं। वंचित व वनवासी लोगों को मिलाकर एक नयी संज्ञा दे रहे हैं-‘बहुजन। छात्रों के अनुसार कुछ वर्ष पहले जेएनयू में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें वक्ता के रूप में उस्मानिया विश्वविद्यालय में सहायक प्रो. रहे कांचा इलैया व जेएनयू के प्रोफेसर ए.के.रामकृष्णन, एस.एन.मालाकार ने अपने भाषणों में उच्च वर्ग के हिन्दुओं के खिलाफ जमकर जहर उगला और प्रोफेसर के तौर पर ऐसी बातें कहीं जो समाज को तोड़ने में सहायक सिद्ध होती हैं। यहां तक की कुछ छात्रों की मानें तो ईसाई मिशनरियों के इशारों पर यह उच्च वर्ग और वंचित समाज के मध्य गृह युद्ध कराकर ईसाई मिशनरियों के कन्वर्जन के कार्य में सहायता कर रहे हैं।

बौद्ध आवरण में मिशनरी तंत्र

‘परिसर में आएदिन हिन्दुओं में आपसी वैमनस्यता बढ़ाने के लिए समय-समय पर नव वामपंथी छात्रों व ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रायोजित रूप से कार्यक्रम किए जाते हैं। उन कार्यक्रमों का एक ही लक्ष्य होता है कि कैसे युगों से चली आ रही भारतीय परंपरा को तोड़कर उस पर प्रहार किया जाए।’ ऐसा कहना है सेंटर फॉर इनर एशियन स्ट्डीज प्रोग्राम के शोधार्थी अम्बा शंकर वाजपेयी का। वे आगे बताते हैं, ‘हिन्दू समाज के अभिन्न अंग वर्ण व्यवस्था के नाम पर इन कार्यक्रमों में जहर घोलने की साजिश की जाती है। जहर ऐसा होता है कि वंचित समाज के लोग सुनने के बाद तत्काल उसको अपना लेते है और उनके इशारे पर चलने लगते हैं। असल में इस जहर के पीछे एक बड़ी साजिश काम कर रही है। वह है बौद्ध आवरण में ईसाइयत का षड्यंत्र। यह तंत्र जानता है कि कौन ऐसा वर्ग है जो बड़ी ही आसानी के साथ इनका शिकार हो सकता है। इसलिए वह वर्ण व्यवस्था को चुनते हैं और उसके बारे में भ्रामक बातें बोलकर भोले-भाले हिंदू नवयुवकों को बरगलाते हैं। वंचित समाज की आड़ लेकर वे यहां से हिन्दुओं में आपसी फूट का विष घोलते हुए कन्वर्जन का दबे पांव खेल खेलते हैं।’

जेएनयू लीला

वर्ष 2000 में कारगिल में युद्घ लड़ने वाले वीर सैनिकों को अपमानित कर विवि. में चल रहे मुशायरे में भारत-निंदा का समर्थन किया।

वर्ष 2010 में बस्तर में नक्सलियों द्वारा 72 जवानों की हत्या पर जश्न मनाया गया।

मोहाली में विश्वकप क्रिकेट के समय भारत-पाक मैच के दौरान भारत के विरुद्घ नारे लगाए गए।

जेएनयू में भोजन के अधिकार की आड़ लेकर यहां गोमांस परोसने के लिए हुड़दंग किया जाता है।

जम्मू-कश्मीर सहित पूर्वोत्तर राज्यों की स्वतंत्रता के लिए खुलेआम नारे लगाए जाते हैं।

आतंकी अफजल की फांसी पर यहां विरोध में जुलूस व मातम मनाया जाता है।

फारवर्ड प्रेस की आड़ में यहां कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें हिन्दुओं के देवी-देवताओं का अपमान एवं समाज को तोड़ने का षड््यंत्र मिशनरियों द्वारा रचा जाता है।

26 जनवरी, 2015 को ‘इंटरनेशनल फूड फेस्टिवल’ के बहाने कश्मीर को अलग देश दिखाकर उसका स्टाल लगाया गया।

 

विवि. के प्रोफेसरों द्वारा सवर्णों के खिलाफ जहर घोलना बहुत ही गलत है। जिस तरीके से वे खुलेआम परिसर के अंदर होने वाले कार्यक्रमों में एक वर्ग विशेष के प्रति उकसाते हैं उससे उनकी मानसिकता स्पष्ट होती है कि वे यहां क्या देखना चाहते हैं। रही बात महिषासुर दिवस जैसे यहां के छद्म कार्यक्रमों की तो इन कार्यक्रमों के पीछे आस्था न होकर नीचा दिखाने की राजनीति यहां की जाती है। देश के करोड़ों लोगों की आस्था केंद्र मां दुर्गा हैं और उन्हें अपशब्द बोलना गलत है।—नैंसी गोल्डस्मिथ, शोधार्थी,जेएनयू

ववि. में वर्षों से हिन्दू समाज को तोड़ने का कुचक्र जारी है। यहां के कुछ छात्र और प्रोफेसर खुलेआम समाज तोड़ने की बात करते हैं। हिन्दू व्यवस्था को लेकर नई-नई बात बोलकर भ्रामकता फैलाते हैं और वंचित समाज के तबकों को एक षड्यंत्र के तहत तोड़ते हैं। असल में इन लोगों के पीछे ईसाई मिशनरियां काम कर रही हैं।                                                                  -मदन यादव, अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में शोधार्थी

विश्व के नामी विश्वविद्यालयों की श्रेष्ठता सूची में जेएनयू का दूर-दूर तक नाम नहीं।

देश के शिक्षा बजट का सर्वाधिक यानी जनता की गाढ़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इसी को आवंटित होता है।

अश्वनी मिश्र

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