|
मीडिया के तथाकथित सेकुलर वर्ग को उसका एजेंडा मिल गया है। वह एजेंडा जो उसकी खीझ और कुंठा को कम करने में मददगार हो सके। साथ ही नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर भ्रम फैलाने में सहायक हो सके। मीडिया का यह रूप हमें आमतौर पर तभी देखने को मिलता है, जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार होती है। भाजपा से जुड़े मंत्रियों और नेताओं के बयानों का अपने हिसाब से मतलब निकालना, झूठी खबरें प्रचारित करना ही इस समय तथाकथित सेकुलर मीडिया का एकसूत्रीय कार्यक्रम दिखता है।
पिछले साल लोकसभा चुनाव के कुछ दिनों के अंदर ही एक खबर आई थी कि सूरत की एक हीरा कंपनी ने जीशान नाम के एक लड़के को नौकरी देने से यह कहकर मना कर दिया था कि वह मुसलमान है। 2-3 दिन तक पूरे देश की मीडिया के लिए यह पहली खबर थी। एक निजी कंपनी के फैसले को उस वक्त सीधे भारतीय जनता पार्टी के साथ जोड़ दिया गया था। पिछले दिनों दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज के प्रधानाचार्य पद के लिए अखबारों में विज्ञापन दिया गया। इसमें साफ-साफ लिखा गया कि अगर आप ईसाई हैं, तभी आवेदन करें। इतना ही नहीं, मत बदलकर ईसाई बने व्यक्ति को भी इस ऊंचे पद का सपना देखने का अधिकार नहीं है। चाहे वह कितना भी योग्य क्यों न हो। देश के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज के मठाधीशों की इस दकियानूसी हरकत पर हमारा तथाकथित प्रगतिशील मीडिया और उसके संपादक मौन रहे। कुछ अखबारों में समाचार जरूर छपा, लेकिन रस्म पूरी करने के लिए।
9 अक्तूबर को मंगलौर के गोरक्षक प्रशांत पुजारी की धारदार हथियारों से हत्या कर दी गई। दादरी कांड के बाद दहाड़ें मार-मारकर रोने वाले न्यूज चैनलों और अखबार करीब 10 दिन तक आंख, नाक, कान बंद किए बैठे रहे। जब इस मामले में चार मुसलमान हत्यारे गिरफ्तार हुए तब जाकर 18 तारीख को कुछ अखबारों में यह समाचार देखने को मिला। इसके बाद 20 तारीख को इंडिया टुडे टेलीविजन और न्यूजएक्स जैसे कुछ अंग्रेजी चैनलों ने खबर दिखाने की खानापूर्ति कर दी। ये वही चैनल हैं, जिन्होंने दादरी में हुए अपराध के बाद पूरे हिंदू धर्म को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी।
उधर साहित्यकारों से उनके पुरस्कार वापस करवाने वाली कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां अपने ही जाल में फंसती जा रही हैं। एबीपी न्यूज चैनल पर साहित्यकार बनाम सरकार की बहस में शायर मुनव्वर राणा ने अपना साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने की घोषणा की। जिस नाटकीय तरीके से यह सब हुआ उससे ही इशारा मिलता है कि पुरस्कार वापसी अभियान के पीछे कौन है! इस कार्यक्रम के बाद एबीपी न्यूज के दफ्तर के बाहर मीडिया से बातचीत में मुनव्वर राणा के मुंह से असली कहानी निकल ही गई। उन्होंने कहा कि सम्मान न लौटाने पर मुझे बीते चार दिन से हजारों फोन कॉल और 'एसएमएस' करके धमकियां दी जा रही थीं। मुनव्वर राणा ने अपनी बात तो कह दी थी, लेकिन मतांध मीडिया को उनकी बात का वह हिस्सा सुनाई नहीं दिया। क्या देश को यह जानने का अधिकार नहीं है कि वे 'हजारों लोग' कौन हैं, जो किसी साहित्यकार को पुरस्कार वापस न करने पर धमकियां दे रहे हैं?
अंग्रेजी अखबार और टीवी चैनल आजकल केंद्र के मंत्रियों, भाजपा के मुख्यमंत्रियों या अन्य भाजपा नेताओं को बाकायदा 'टारगेट' कर रहे हैं। पहले उनका साक्षात्कार करते हैं। फिर उनके मुंह में अपनी मर्जी की बात डालकर विवाद खड़ा करते हैं। इसके बाद कुछ पिछलग्गू हिंदी न्यूज चैनल उनकी खबरों को जैसे का तैसा उठाकर दिखाने लगते हैं। यह भी नहीं देखते कि अंग्रेजी अखबार ने अपने कम हिंदी ज्ञान के चलते वह विवाद पैदा किया है। अंग्रेजी मीडिया की यह आदत पुरानी है।
गुजरात में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के मोहरे संजीव भट्ट को सर्वोच्च न्यायालय की फटकार की खबर भी मीडिया में उचित जगह नहीं बना पाई। अदालत ने यहां तक कह डाला कि वे विपक्षी दल के इशारे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। लेकिन जैसी कि उम्मीद थी, सेकुलर मीडिया ने अपने 'प्रिय पात्र' के बारे में इस खबर को लगभग दबा दिया। यह वही मीडिया है, जो कुछ दिन पहले संजीव भट्ट की बर्खास्तगी के प्रशासनिक फैसले को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में जुटा था। बीते हफ्ते एक पाकिस्तानी परिवार की कहानी सभी न्यूज चैनलों ने दिखाई। बताया गया कि मुंबई में हाजी अली दरगाह पर मत्था टेकने आए इस परिवार को किसी होटल ने रहने की जगह नहीं दी। हर हिंदी, अंग्रेजी चैनल ने यह समाचार ऐसे दिखाया जैसे कि इस पाकिस्तानी परिवार पर कितना बड़ा अत्याचार भारत में हो गया। लेकिन बड़ी ही चतुराई के साथ किसी चैनल ने यह नहीं बताया कि इस परिवार के पास मुंबई में ठहरने के लिए जरूरी अनुमति नहीं थी। इसके बिना अगर कोई होटल उन्हें कमरा देता तो उस होटल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती थी।
कुल मिलाकर मीडिया का माहौल बेहद निराशाजनक है। मीडिया का काम सरकार की आलोचना करना है। आलोचना के ढेरों वास्तविक मुद्दे भरे पड़े हैं। लेकिन मीडिया उन पर ध्यान न देकर ऐसे विषयों को चुन रहा है, जिससे न तो देश और न ही समाज का कोई भला हो रहा है। जाहिर है इसके पीछे वजह सिर्फ 'टीआरपी' या 'सर्कुलेशन' नहीं, बल्कि एक राजनीतिक परिवार के लिए संपादकों की निजी निष्ठा ज्यादा बड़ी वजह है। – नारद
टिप्पणियाँ