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गत 12 अक्तूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने ‘कारगिल घोटाले’ पर दाखिल जनहित याचिका निरस्त करते हुए उसमें तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस को बेदाग साबित कर दिया। कारगिल युद्ध के दौरान सरकार ने अमरीका से 2500 डालर प्रति ताबूत के हिसाब से ताबूत खरीदे थे। सीएजी ने उस खरीद में अनियमितता होने की रपट दी थी। विपक्ष ने जार्ज पर आरोप लगाए और उनको इस्तीफा देना पड़ा था। अब देश की सर्वोच्च अदालत ने उनको बेदाग साबित कर दिया है, लेकिन अलजाइमर से पीड़ित जार्ज इस हालत में नहीं हैं कि उस निर्णय को सुन-समझ पाएं। इस पूरे प्रकरण और अदालत के फैसले पर पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने जार्ज की राजनीतिक सहयोगी रहीं, समता पार्टी की पूर्व अध्यक्ष जया जेटली से विस्तार से बात की। यहां हम उसी बातचीत के संपादित अंश प्रस्तुत कर रहे हैं।
कारगिल युद्ध के आसार बनने पर रक्षामंत्री के नाते श्री जार्ज फर्नांडीस की व्यस्तताएं किस प्रकार की थीं?
मुझे अच्छी तरह याद है, जार्ज साहब हर चुनौती के समय बहुत मजबूत हो जाया करते थे और कारगिल युद्ध पहले भी वे एक मजबूत भूमिका में उतर आए थे। उस समय अटल जी, अडवाणी जी, जसवंत सिंह जी और जार्ज साहब, ये चारों मिलकर इस विषय पर चर्चा-मंत्रणा करते थे।
उस दौरान कुछ विरोधी नेताओं द्वारा जार्ज फर्नांडीस को लेकर कई ओछी टिप्पणियां की गर्इं?
आपको याद होगा, जार्ज साहब ने कहा था कि कारगिल की पूरी योजना के बारे में नवाज शरीफ को जानकारी नहीं थी। इस पर कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं ने कहना शुरू कर दिया कि जार्ज साहब तो पाकिस्तान समर्थक हैं। लेकिन बाद में सच सामने आ गया कि पूरा षड्यंत्र जनरल मुशर्रफ ने रचा था और शरीफ को कानोंकान खबर नहीं होने दी थी। यह बात अमरीकी गुप्तचर संस्था ने सरकार के साथ साझा की थी, लेकिन जार्ज साहब तो खुलकर इस बारे में नहीं बता सकते थे। इसी बात का विरोधियों ने बेमतलब फायदा उठाया और देश के मनोबल को तोड़ने का काम किया। विपक्षी नेताओं ने जार्ज साहब जैसे राष्टÑभक्त और स्पष्टवादी नेता के खिलाफ हमले शुरू कर दिये थे। विरोधियों ने यह झूठ भी फैलाया कि पाकिस्तान से घुसपैठ करने वालों को जार्ज साहब छोड़ देंगे। सोनिया गांधी ने तो वाजपेयी जी की लाहौर बस यात्रा का मजाक उड़ाने के लिए प्लास्टिक की एक बस बनाकर, उसमें भरी हवा निकालकर कहा था कि बस यात्रा की हवा निकल गयी।
लेकिन सरकार के स्तर पर क्या तैयारी चल रही थी?
एक तरफ विरोधी माहौल को मजाक में ले रहे थे तो दूसरी तरफ सरकार और हमारी सेना सावधानी से रणनीति बना रही थी। वह कठिन युद्ध था हमारे लिए। पाकिस्तानी ऊंचाई पर थे और हम नीचे। ऐसे कठिन समय में जार्ज साहब सेना और जवानों का हौसला बढ़ा रहे थे जिसके बूते हमारे बहादुर जवानों ने पहाड़ पर बोफर्स तोपें चढ़ाकर दुश्मन को परास्त किया। ऐसे में जहां एक तरफ कम्युनिस्ट जार्ज साहब को ‘पाकिस्तान परस्त’ घोषित कर रहे थे तो दूसरी तरफ कांग्रेस सरकार का मजाक उड़ाते हुए कह रही थी कि देखिए, कल तक बोफर्स को खराब बताने वाले आज उसी को इस्तेमाल कर रहे हैं। कांग्रेसियों को यह पता होना चाहिए था कि बोफर्स को खराब नहीं बताया जाता था, बल्कि आरोप उसकी खरीद में दलाली का था।
जार्ज साहब ऐसे पहले रक्षामंत्री थे जो सियाचिन, कारगिल जैसे दुर्गम मोर्चों पर कई बार गए थे। क्या उनकी सैन्य चिंताएं पूर्व रक्षामंत्रियों के मुकाबलें ज्यादा गहरी गम्भीर थी?
वे सुबह से रात तक काम में डूबे रहते थे। सैनिकों के साथ बेहद आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करते थे। इसीलिए मोर्चों पर सैनिकों से मिलने जाया करते थे। वे सियाचिन गये, कारिगल गये और वहां जाकर सैनिकों की तकलीफें देखीं। उन्होंने ही सियाचिन ग्लेशियर पर ‘स्नोमोबिल’ खरीदने की व्यवस्था की थी। सैनिकों को उससे पहले ग्लेशियर की दरारों में धंसकर दबने का खतरा रहता था और यह खरीद दो साल से लटकायी जाती रही थी। जार्ज साहब ने इसको चिंता करके खरीदा। उन्होंने रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों को मोर्चों पर जाकर वहां सैनिकों की तकलीफों को खुद अनुभव करके उनको दूर करने का आदेश दिया था। वे कहते थे, दिल्ली में बैठकर जैसलमेर के रेगिस्तानों की मुश्किलों का अनुभव नहीं किया जा सकता। इस चीज का सेना के मनोबल पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। रक्षामंत्री बनने से ठीक पहले उन्होंने मुझसे कहा था, ‘मैं कुर्ता-पायजामा और चप्पल पहनने वाला इंसान उन चुस्त वर्दी वालों के बीच कैसे काम कर पाऊंगा?’ तब मैंने उनसे कहा था, जार्ज साहब, आपने भारत, तिब्बत, बर्मा की सुरक्षा से जुड़े कितने ही सेमिनार किये हैं, आपके हर काम में भारत का हित सबसे ऊपर होता है इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन कैसा कपड़ा पहनता है। रक्षामंत्री के नाते वे जवानों के साथ इतने घुलमिल गये थे कि उनके साथ ही खाना खाते थे। अधिकारियों और नौकरशाहों से ऊपर वे जवान की बात सुनते थे, क्योंकि उनका कहना था कि मोर्चे पर बंदूक थामकर दुश्मन के आगे वही तो खड़ा होता है।
ऐसे सादा जीवन जीने वाले और देश की चिंता करने वाले नेता के ऊपर जब कोई विरोधी उस तरह के आरोप लगाएं तो उस पर क्या कहा जा सकता है? श्री फर्नांडीस की उन आरोपों पर क्या प्रतिक्रिया थी?
जार्ज साहब पर जीवन में कितने ही शारीरिक और मानसिक हमले हुए लेकिन उन्होंने सबका डटकर मुकाबला किया, हार नहीं मानी। लेकिन यह आरोप लगने के बाद उन्हें बहुत खराब लगा कि उससे और कुछ नहीं, सेना का, जवानों का मनोबल टूटेगा। जार्ज साहब अपने बारे में नहीं, बल्कि सोनिया गांधी के आरोपों से जवानों को खराब लगने की चिंता कर रहे थे।
इन आरोपों का उन्होंने संसद के अंदर और बाहर किस प्रकार जवाब दिया?
ताबूत वाले मामले में तो उनको किसी बात की जानकारी तक नहीं थी। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम फैसले से साबित हुआ, जार्ज साहब के हाथ में इसकी फाइल आती ही नहीं थी। क्योंकि जार्ज साहब मंत्री थे और मंत्री के पास एक तय राशि से ऊपर की खरीद से जुड़ी फाइलें ही आती हैं। उन्होंने तो संसद में चुनौती देते हुए कहा था कि राजीव गांधी के समय से लेकर उनके समय तक 75 करोड़ रु. से ऊपर के हर सौदे की सीएजी से जांच कराकर देख लें। इससे कई लोगों के माथों पर बल पड़ गये थे और वे जार्ज साहब का दिन-रात विरोध करने लगे। इसलिए ताबूत की खरीद (जिसमें जार्ज साहब पर घोटाले का अरोप लगाया गया था) की राशि महज 2 या 3 करोड़ रु. की थी इसलिए उसकी फाइल के उनके पास आने का सवाल ही नहीं था। उन पर सचिव स्तर से ही हस्ताक्षर और निर्णय हो जाया करते हैं। इसलिए जब उन पर इस तरह के आरोग लगे तो उन्होंने दो-तीन दिन तक उसकी वजह खोजने की कोशिश की, क्योंकि बिना कारण जाने और तैयारी किये वे प्रेस के सामने नहीं जाना चाहते थे। लेकिन इस बीच कैबिनेट के एक वरिष्ठ सदस्य के कहने पर उनको प्रेसवार्ता करनी पड़ी। लेकिन मीडिया और चीख-पुकार मचाने वाले लोग उनकी इस बात से संतुष्ट नहीं हुए कि वे अभी कागजों की पड़ताल कर रहे हैं, जिसके बाद वे स्थिति और स्पष्ट कर देंगे। बहरहाल, उन्होंने जब कागज देखे तो चीजें सामने आयीं कि खरीद के आदेश तो पहले की सरकारों ने लिए थे। जिस कंपनी को खरीद के आदेश दिये गये थे उसके दाम सबसे उचित पाये गये थे। ये वही कंपनी थी जिससे संयुक्त राष्टसंघ भी ताबूत खरीदता था। यहां तक कुछ गलत नहीं था। पुरानी चिट्ठी-पत्री निकाली गयीं। उससे पकड़ में आया कि आदेश को टाइप करने वाले ने 12 गेज की जगह 12 के.जी. टाइप कर दिया था। इससे सारी गड़बड़ शुरू हुई थी। हल्के गेज का सामान आने से हल्ला मचना स्वाभाविक ही था, लेकिन जार्ज साहब जैसे कद के नेता को बेवजह आरोप के घेरे में खड़ा किया गया जबकि यह बहुत बड़ी खरीद नहीं थी। यह कोई तोप या गोले खरीदने का सौदा नहीं था। यह ताबूत का सौदा था जो सिर्फ और सिर्फ युद्ध होने पर ही खरीदे जाते हैं। यह सौदा कभी पैसा बनाने वाला सौदा हो ही नहीं सकता था। जार्ज साहब ने जब पूरी स्थिति स्पष्ट करने वाले कागजात मीडिया को देने चाहे तो कांग्रेस ने मीडिया के साथ मिलकर आरोप लगाया कि आप सरकारी गुप्त दस्तावेज कैसे बांट सकते हो। यानी आप आरोप लगाओ और जब कोई आरोप को निराधार साबित करने वाला सबूत दे तो उसे स्वीकार न करके नया आरोप जड़ दो, यह कहां का न्याय है?
उस समय मीडिया के एक वर्ग ने भी बिना तथ्यों को जांचे जार्ज फर्नांडीस को जैसे आरोपी ही सिद्ध कर दिया था।
यह बात सौ फीसदी सही है। मीडिया कांग्रेस और कम्युनिस्टों के हाथ में तब भी था, आज भी है। आज जो मीडिया प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ छाप रहा है तो उसके पीछे भी उन्हीं लोगों की शह है जो खुद को अनदेखा, अलग-थलग महसूस कर रहे हैं, जिनको मलाई की आस थी पर नहीं मिली। वे मीडिया के जरिए सरकार पर निशाने लगाते हैं।
इस आरोप के बाद जार्ज फर्नांडीस क्या फौरन इस्तीफा देने को तैयार हो गए थे?
जार्ज साहब ने इच्छा व्यक्त की थी कि मैं इस्तीफा दे देता हूं। तब मैंने उनसे कहा था कि पहले सचाई तो मालूम करें। आखिर मीडिया अधिकारियों और नौकरशाहों के साथ सीधा बातचीत कैसे कर सकता है? अगर बात हुई तो वह दफ्तर में हुई या उनके घरों पर? यह तो सरकारी गोपनीयता का उल्लंघन है। इस बीच संसद में हंगामा हो गया था, ममता बनर्जी सरकार छोड़कर चली गयीं। तब जार्ज साहब का इस्तीफा स्वीकार किया गया।
इस्तीफे के बाद क्या उनमें कोई बदलाव आया?
उन्हें कभी इस बात की परवाह नहीं रही कि वे मंत्री हैं या नहीं। वे अपने काम में लगे रहे, बाहर आते-जाते रहे। वे पूर्वोत्तर से लेकर केरल तक प्रवास करते रहे।
लेकिन आरोप से उन्हें ठेस तो लगी होगी?
उन्हें ठेस तो लगी पर यह सोचकर कि जिन जार्ज को राष्टÑभक्त और सेना के लिए समर्पित व्यक्ति माना जाता था, अगर उन पर इस तरह का आरोप लगेगा तो फिर सेना किस पर भरोसा करेगी। यह बड़ा सवाल था। दूसरा, उन्हें यह भी खराब लगा कि मेरे ऊपर आरोप लगाया गया। सिर्फ इसलिए कि मेरे जरिए जार्ज साहब को घेरा जा सके। जार्ज साहब जानते थे कि मेरी निष्ठा पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। इसलिए उन्हें इस बात बहुत दुख था। तीसरे अटल जी ने जब उनको वापस सरकार में शामिल किया तो दो साल तक विरोधियों ने उनको सदन में बोलने तक नहीं दिया। वे जब बोलने खड़े होते तब वे ‘कफन चोर’ का शोर मचाने लगते। मंत्री को संसद में बोलने न देना, उसका फर्ज न निभाने देना, यह उनको बहुत चुभता था।
जार्ज साहब की आज जो शारीरिक स्थिति है, क्या उसके पीछे वही सब दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं नहीं हैं?
यह पक्के तौर पर नहीं कह सकते, क्योंकि 1993 में उनके सर में चोट लगी थी। उनको वायरल बुखार हो गया था जिसकी डॉक्टर ने बहुत तेज दवाइयां दी थीं। उसी हालत में वे एक दिन बाथरूम में कपड़े धोने गए, पैर फिसला, सिर में चोट लगी, हेमरेज हुआ, दिमाग में खून जम गया, जिसे दो बार निकालना पड़ा था। वह एक पुरानी चोट तो थी। लेकिन उसके बाद वे सालों तक बहुत सक्रिय रहे। पर डीएनए में भी कुछ लक्षण रहते हैं जिस कारण अल्जाइमर बीमारी हो जाया करती है, थोड़ी शुगर भी है। यह सब मिलकर उनकी आज की शारीरिक स्थिति बनी होगी।
क्या उनको चेतना है?
चेतना तो है। सर्वोच्च न्यायालय की इजाजत से मैं महीने में दो बार उनसे मिलने जाती हूं। करीब 15 मिनट उनके पास बैठती हूं। मैं जब उनको अपने आने के बारे बताती हूं तो वे आंख खोलकर मेरी तरफ देखते हैं और आंखों से जैसे हालचाल पूछते हैं। बोलने की कोशिश करते हैं पर मुंह से शब्द नहीं निकलते।
न्यायालय के इस फैसले पर बात हुई?
नहीं समझेंगे वे। यह बात उनके दिमाग तक पहुंचेगी, इसमें संदेह है। लेकिन इसमें शक नहीं कि जार्ज साहब जैसे देशभक्त पर लगे प्रश्नचिन्हों को देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा हटाना बड़े सम्मान की बात है। इस मौके पर जार्ज साहब यही चाहेगे कि जिन लोगों ने ये आरोप लगाये वे कम से कम सेना के हित में देश से माफी मांगें। देशभक्त सैनिक और जार्ज साहब के बीच इस आरोप ने अगर कहीं कोई खटास पैदा की होगी तो वह इससे मिट जाएगी। देश की सुरक्षा के लिहाज से यह जरूरी भी है। मैं तो चाहूंगी कि सोनिया गांधी और कम्युनिस्ट माफी मांगें। उस समय प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह को भी अपनी तरफ से माफी मांगनी चाहिए।
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