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ऊनादिकाल से चली आ रही भारत की सभ्यता में हमारे देश में ऋषि परम्परा में तीन 'वकार' प्रचलित हैं-विश्वामित्र, वाल्मीकि और व्यास। ऋषि विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र की रचना की। भगवान वाल्मीकि ने 24000 श्लोकों में रामायण काव्य रचा तो व्यास ऋषि ने एक लाख श्लोकों वाले महाभारत महाकाव्य ग्रंथ की रचना की।
वाल्मीकि ने माता-पिता के दसवें पुत्र थे। उनके भाई ज्योतिषाचार्य भृगु ऋषि थे। महर्षि कश्यप और अदिति की नौवीं संतान थे पिता वरुण। वरुण का एक नाम प्रचेता भी है, इसलिए वाल्मीकि प्राचेतस नाम से भी विख्यात हैं। सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित दशम ग्रन्थ में वाल्मीकि को ब्रह्मा का प्रथम अवतार कहा गया है। परम्परा में महर्षि वाल्मीकि को कुलपति कहा गया है। वाल्मीकि का आश्रम तमसा नदी के किनारे पर स्थित था।
वाल्मीकि का नाम वाल्मीकि कैसे पड़ा इसकी एक रोचक कथा है। वाल्मीकि ने पूरी तरह भगवान से लौ लगाई और ईश्वर में तल्लीन रहने लगे। एक बार जब वह घोर तपस्या में लीन थे, उनके समाधिस्थ शरीर पर दीमकों ने अपनी बांबियां बना लीं। दीमकों की बांबियों को वाल्मीकि भी कहा जाता है। लेकिन वाल्मीकि को इसका आभास तक नहीं हुआ और वह तपस्या में मग्न रहे। उसी अवस्था में उन्हें आत्मज्ञान हुआ। आखिरकार, आकाशवाणी हुई, 'तुमने ईश्वर के दर्शन कर लिए हंै। तुम्हें तो इसका ज्ञान तक नहीं है कि दीमकों ने तुम्हारी देह पर अपनी बांबियां बना ली हैं। तुम्हारी तपस्या पूरी हुई। अब से तुम्हें वाल्मीकि के नाम से जाना जाएगा और इस तरह वाल्मीकि स्वयं भगवान हो गए।'
भगवान वाल्मीकि के जीवन में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं जिन्होंने न केवल उनके अन्तर्मन को हिलाकर रख दिया बल्कि यही रामायण के आविर्भाव और रामायण के अंतिम कांड उत्तरकांड की आधारशिला बना।
पहली घटना इस प्रकार है। एक बार सुबह के स्नान के लिए वाल्मीकि तमसा नदी की ओर जा रहे थे, साथ में उनके प्रमुख शिष्य भी थे। उन्होंने नदीं के किनारे पेड़ पर एकांत क्रौंच (बगुला) पक्षी का एक जोड़ा देखा। तभी वहां एक शिकारी आया और उसने प्रणय क्रीड़ारत जोड़े में से नर पक्षी को बाण से मार गिराया। अकस्मात् हुए इस हादसे से अकेली पड़ गई मादा विछोह न सह सकी और भूमि पर पड़े अपने नर के चारों चरफ घूम-घूम कर विलाप करने लगी, अंतत: उसने अपने प्राण त्याग दिए। इस हृदयविदारक दृश्य को देखकर अभिभूत वाल्मीकि के मुख से यह श्लोक उच्चरित हुआ-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम:शाश्वती समा:।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
(वाल्मीकि-रामायण-बालकांड श्लोक 15)
इसका अर्थ है, निषाद (व्याध या शिकारी) को मानो श्राप देते हुए वाल्मीकि ने कहा, 'अरे! ओ शिकारी, तूने काममोहित क्रौंच जोड़े में से एक को मार डाला, जा तुझे कभी चैन नहीं मिलेगा।' इसी श्लोक के गर्भ से रामायण महाकाव्य की रचना हुई। वाल्मीकि उद्वेग में उक्त श्लोक तो बोल गए लेकिन वैदिक मंत्रों को सुनने तथा बोलने के अभ्यस्त वे सोचने लगे कि उनके मुंह से यह क्या निकल गया? उन्होंने अपने शिष्य से कहा, मेरे शोकाकुल हृदय से जो सहसा शब्दों में अभिव्यक्त हुआ है, उसमें चार चरण हंै, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और उनमें मानों मंत्र की लय गूंज रही है। अर्थात् इसे गाया जा सकता हैै। लेकिन, शिष्य से अपनी बात कहने के बाद भी वाल्मीकि का मनोमंथन चलता रहा और वह उसी में तल्लीन थे कि ब्रह्मा जी उनके पास आए और उनसे कहा, यह श्लोक अनुष्टुप छद में है, और आप इसी छंद में राम-कथा लिखें।
वाल्मीकि राम के काल के ऋषि थे और अपने अन्त:चक्षुओं तथा बाह्य चक्षुओं से राम के वनगमन से लेकर रावण का वध कर सीता को साथ ले अयोध्या वापस आने तक लीला देख चुके थे। फलस्वरूप उन्होंने रामायण रची और उसके माध्यम से संस्कृति, मर्यादा व जीवनपद्धति को गढ़ा और इस तरह वाल्मीकि पहले आदिकवि भी बने।
भगवान वाल्मीकि के जीवन में दूसरी महत्वपूर्ण घटना तब हुई जब लोकनिन्दा के डर से राम ने गर्भवती सीता को त्याग दिया और राम के आदेश पर लक्ष्मण उन्हें तमसा नदी के किनारे छोड़ आए। नदी के किनारे असहाय बैठी सीता का रोना रुक ही नहीं रहा था। उनकी इस हालत की सूचना मुनि-कुमारों के जरिए वाल्मीकि तक पहुंची वह स्वयं तट पर पहुंचे और विकल-बेहाल सीता को देखा। वह अपने दिव्य चक्षुओं से पूरी घटना को जान चुके थे। उनका पितृत्व जागा और उन्होंने वात्सल्य से सीता के सिर पर हाथ फेरा और आश्वासन दिया कि वे पुत्रीवत् उनके आश्रम में आकर रहें। समय आने पर सीता ने दो पुत्रों लव और कुश को जन्म दिया। इन कुमारों को वाल्मीकि ने न केवल शास्त्र और शस्त्र विद्याओं में निपुण बनाया, बल्कि राम-रावण युद्ध और बाद में सीता के साथ अयोध्या वापसी, सीता के वनवास और सीता के पुत्रों के जन्म तक पूरी रामायण कंठस्थ करवा दी। जब राम ने राजसूय यज्ञ शुरू किया तो यज्ञ का घोड़ा वाल्मीकि के आश्रम स्थल से भी गुजरा। जिस घोड़े को तब तक कोई राजा नहीं रोक सका था, उसे लव-कुश ने रोका और उसके साथ चल रहे लक्ष्मण तथा हनुमान भी उनसे मुकाबला नहीं कर सके। वापस होकर लक्ष्मण और हनुमान ने इन दो ऋषि कुमारों के साहस की कथा राम को सुनाई। वाल्मीकि ने सीता की शुचिता (पवित्रता) पर राम से कहा कि उन्होंने हजारों वर्ष तक गहन तपस्या की है और यदि मिथिलेश कुमारी सीता में कोई भी दोष हो उन्हें उस तपस्या का फल न मिले। लेकिन सीता ने विकल होकर धरती माता से उनकी गोद में पनाह देने की गुहार लगाई और उसमें समा गईं।
इस प्रकार राम और सीता के चरित्र को लोक के सम्मुख लाने वाले भगवान वाल्मीकि सबके लिए वंदनीय हैं।
आलोक कुमार
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