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साहित्य क्षेत्र के कुछ नाम आजकल सुर्खियां बनने की होड़ में हैं। एक खास बिरादरी के अगुआ कहलाने वाले इन साहित्यकारों ने चुनिंदा घटनाओं की आड़ लेकर पुरस्कार लौटाने की शुरुआत तो की लेकिन बाकी मामलों पर चुप्पी के चलते घिर गए। सोनिया-मनमोहन शासन के दौरान मारे गए तर्कवादी दाभोलकर पर खामोश लेकिन अखलाक की मौत के बहाने सरकार पर निशाना लगाने की सेकुलर मुहिम भेड़चाल का रंग लेती इससे पहले ही इसकी असलियत खुलने लगी। जुलाई, 2013 में मेरठ के पास नागलमल नामक स्थान पर एक मंदिर में लाउडस्पीकर पर भजन बजने के विरुद्ध स्थानीय मुसलमानों की भीड़ ने मंदिर की बिजली बंद कर दी, भक्तों को पीटा। 2 लोग मारे गए, दर्जनों घायल हुए। लेकिन तब सेकुलर साहित्यकार मन न आहत होना था न हुआ। दूसरी घटना कर्नाटक की है। बेंगलूरु में कांग्रेस के राज में 2014 में गोवध के विरोध में पुस्तक बांट रहे एक हिन्दू कार्यकर्ता को उन्मादी भीड़ ने घेरकर पीटा। सेकुलर खामोशी तब भी बरकरार रही। तीसरी घटना भी मजहबी उन्मादियों पर उस सेकुलर चुप्पी से जुड़ी है जो गोमांस खाने को खाने पीने की आजादी से जोड़ते हैं और इसके भावनात्मक पक्ष को नकारते हैं। सितम्बर, 2014 में मध्य प्रदेश में जब कुछ मुस्लिम महिलाएं मांस – रहित ईद मनाने का अभियान चला रही थीं तो मुसलमानों की भीड़ ने उन पर पत्थर बरसाए, लेकिन सेकुलर जुबान तब तालू से चिपकी रही। कुछ दिन पहले गृह मंत्रालय ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उनके अनुसार 2012, 2013 और 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा की क्रमश: 668, 823 और 644 घटनाएं हुईं, जिनमें क्रमश: 39, 77 और 26 लोगों की जानें गईं। यह आंकड़े केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद देश में बढ़ती असहिष्णुता का रोना रोने वालों को आईना दिखाने के लिए काफी हैं। सवाल है, इन 'कलमवीरों' की आह में इतनी राजनीतिक पक्षधरता क्यों है? ऐसे लोगों के बारे में एक वर्ग में यह आशंका भी है कि कहीं वर्तमान राजग सरकार के नेतृत्व में देश को विकास पथ पर बढ़ता देख भारत के खिलाफ कोई बड़ी साजिश तो नहंीं रची गई है, जिसकी कठपुतली बनकर ये लोग अपने ही देश की छवि बिगाड़ने की चालें चल रहे हैं? प्रस्तुत है साहित्य अकादमी के सम्मान को ओछी राजनीति का हथियार बनाने वालों का अन्वेषण करता एक खास आयोजन।
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