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पिटे मोहरे,दोहरे मापदण्ड

by
Oct 20, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 Oct 2015 13:02:05

 

पहला दृश्य- साहित्यकारों के पुरस्कार वापस करने के विषय को लेकर समाचार चैनल पर जोरदार बहस चल रही है। अपने दोनों हाथों को मसलते हुए एंकर बताता है कि ‘समूचे देश में जो माहौल है उससे घुटन हो रही है। अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है।’ अपने मनमाफिक जवाब पाने के लिए वह कुछ वक्ताओं को मौका देता है। इस बीच दूसरे पक्ष का वक्ता अपनी बारी का धैर्य से इंतजार कर रहा है। एक-दो बार उसने बोलने की कोशिश भी की, लेकिन     ‘ब्रेक’ का वक्त आ गया। अगर किसी आरोप का जवाब देने की कोशिश की तो इससे पहले कि जवाब पूरा हो, उड़ता हुआ नया सवाल सामने आ गया।

दूसरा दृश्य-बिहार चुनाव की ‘कवरेज’ चल रही है। रिपोर्टर एक आदमी को रोक कर सवाल पूछता है कि किसको वोट दोगे? जवाब मिलता है-भाजपा को। अगला सवाल-किस जाति के हो?

ये दो उदाहरण भारतीय मीडिया की वास्तविकता हैं कि कैसे कुछ पत्रकार अपने निजी एजेंडे के लिए अपने चैनलों या अखबारों का प्रयोग करते हैं। वरना क्या किसी एंकर या रिपोर्टर को बिना किसी तथ्य के देश में दम घुटने जैसी बात करनी चाहिए? या फिर किसी वोटर से उसकी जाति पूछनी चाहिए क्योंकि वह भाजपा को वोट देने की बात कह रहा है?

दरअसल मीडिया के लिए बीता सप्ताह दादरी कांड के ‘फॉलोअप’ का रहा। यह सच्चाई सामने आ गई कि हमले के पीछे असली कारण गोहत्या नहीं, बल्कि कुछ और ही था। लेकिन मीडिया और देश के स्वयंभू बुद्धिजीवियों को इससे फर्क नहीं पड़ता। अपने भतीजे राजीव गांधी के हाथों साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने वाली नयनतारा सहगल ने दादरी कांड के बहाने अपना पुरस्कार लौटाने की घोषणा की। इसके बाद एक सिलसिला चल पड़ा। न्यूज चैनलों और अखबारों ने जोरशोर से यह खबर दिखाई, लेकिन लगभग सभी ने बड़ी चालाकी से यह बात छिपा ली कि सम्मान लौटाने वालों में से ज्यादातर या तो कांग्रेसी या वामपंथी हैं।

गोमांस का मुद्दा भी मीडिया में छाया रहा। खुद को ‘लिबरल’ बताने वाले कई ढोंगियों ने गोमांस खाने की खुलेआम वकालत की। लगभग सभी समाचार चैनलों ने उनके बयान सुनाए। बिना यह सोचे कि ऐसी बयानबाजी से क्या हिंदू समुदाय आहत नहीं होगा? जिन अखबारों और चैनलों ने फ्रांस में ‘चार्ली एब्दो’ के दफ्तर पर हमले के बाद पैगंबर मोहम्मद के कार्टून दिखाने तक की हिम्मत नहीं की थी, हिंदुओं की भावनाओं की बात आने पर उन्होंने प्रगतिशीलता का चोगा ओढ़ लिया।

भारतीय मीडिया का यह दोहरा चेहरा ही लोगों के मन में चिढ़ का एक बहुत बड़ा कारण है। पाकिस्तानी गजल गायक गुलाम अली का मुंबई में होने वाला शो शिवसेना के विरोध के कारण रद्द करना पड़ा। देश में पहले भी ऐसी परिस्थितियों में पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध होता रहा है। लेकिन इस बार मीडिया ने इसे ऐसे दिखाया मानो पहले कभी ऐसा हुआ ही न हो। इसी दौरान मुंबई में अंग्रेजी नाटक ‘एग्नेस आॅफ गॉड’ को लेकर कैथोलिक संगठन भी विरोध कर रहे थे। इस नाटक में एक नन को बच्चा पैदा करते दिखाया गया है। ईसाइयों के विरोध के चलते इस नाटक के कई शो रद्द करने पड़े। लेकिन मजाल क्या जो अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर दुबले होते जा रहे किसी पत्रकार या चैनल ने इस पर 2-3 मिनट की खबर भी दिखाई हो!

मुख्य धारा की मीडिया के ऐसे दोहरे मापदंड सोशल मीडिया की आंखों से कभी छिप नहीं पाते। फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों पर बैठे आम लोग समाचार चैनलों या अखबारों की ऐसी तमाम चालाकियों को पकड़ लेते हैं और सवाल पूछने शुरू कर देते हैं। शायद यही वजह है कि आजकल कुछ बड़े संपादक और एंकर फेसबुक, ट्विटर से बेहद चिढ़े हुए हैं। उन्हें लगता है कि मीडिया के इस विकेंद्रीकरण से लोग उनके ‘खेल’ को समझने लगे हैं।

बिहार चुनाव भी चैनलों पर छाया हुआ है। प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए लालू यादव की स्तरहीन बयानबाजी सभी चैनलों पर खूब दिखाई गई। सबने देखा कि हार के डर से बौखलाया हुआ एक नेता कैसी-कैसी बातें करने लगता है। लेकिन यह सवाल अभी रह जाता है कि क्या देश के प्रधानमंत्री के लिए ऐसी अभद्र भाषा को दिखाया जाना चाहिए? क्या इस बारे में मीडिया को अपनी सीमाएं नहीं तय करनी चाहिए?

इधर, दिल्ली में आम आदमी पार्टी का नाटक जारी रहा। जीतेंद्र तोमर, सोमनाथ भारती जैसे विधायकों का खुलकर समर्थन करने वाले अरविंद केजरीवाल ने अपने पाप धोने के लिए एक स्टिंग आॅपरेशन का सहारा लिया। उन्होंने अपने मंत्री को रिश्वतखोरी के आरोप में हटा दिया। इसी बहाने उन्होंने खुद को ईमानदारी का प्रमाणपत्र भी दे दिया और अच्छी ‘मीडिया कवरेज’ भी मिल गई।

आजतक चैनल ने ‘ऊपरवाला सब देख रहा है’ नाम से एक नए तरह का कार्यक्रम शुरू किया है। इसमें किसी मुद्दे पर सभी पक्षों के लोगों को एक बंद कमरे में बिठा दिया जाता है। इस दौरान उनके पास कोई एंकर नहीं होता। कार्यक्रम की पहली कड़ी गोमांस विवाद पर ही थी। जिस तरह से इस कार्यक्रम में सकारात्मक बातचीत हुई और एक अच्छे निष्कर्ष पर बहस खत्म हुई, उसे देखकर यही लगता है कि स्टूडियो में होने वाले तमाम लड़ाई-झगड़ों के पीछे असली कारण कहीं बीच-बचाव के नाम पर बैठे एंकर ही तो नहीं होते! नारद

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