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साहित्यकार सम्मान लौटाएं, यह स्थिति दु:खद है। इस दु:खद स्थिति का विवेचन इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि इसकी व्याप्ति राष्ट्रीय बताई जा रही है। प्रचारित किया जा रहा है कि यह सिर्फ चंद लेखकों से जुड़ी बात नहीं है। लेकिन, क्या सभी लेखक उन तथ्यों से सहमत हो सकते हैं जो दिए जा रहे हैं? जिन पुरस्कारों को प्राप्त करने वाले हजारों हैं उनके नकार की मुहिम में पचास का भी न जुटना इस अभियान का खोखलापन बताता है। दरअसल, बात जितनी बड़ी है उससे ज्यादा बड़ी दिखाई-बताई जा रही है। कुछ लोग जिन्हें लगता है कि उन्हें सब जानते हैं, लेकिन कोटरियों के बाहर जिनकी साहित्यिक पहचान न बराबर है उन्होंने इस लौटा-फेरी की शुरुआत की। अब मुद्दा चूंकि व्यक्तियों से परे समाज, समाज की सहिष्णुता, सरकार और अंत में पूरे देश से जोड़ा जा रहा है, इसलिए इसके विविध पक्षों की पड़ताल जरूरी है।
कहते हैं, 'दूसरे पर एक अंगुली उठाने वाले की तीन अंगुलियां स्वयं उसी की ओर उठी रहती हैं।' इसलिए पहला सवाल तो उन लोगों से पूछा जाएगा जो सम्मान लौटाने वालों के अगुआ दिखना चाहते हैं। चूंकि संक्षिप्त समारोह में स्वीकारे गए सम्मान भरपूर मुनादी करके लौटाए गए हैं, इसलिए बात बढ़ गई है। अब यह उन अनुशंसाओं से परे की बात है जो अलां-अलां कमेटी ने फलां-फलां के 'उत्कृष्ट रचनाकर्म' के लिए की थीं। यह अब कमेटी का नहीं, सड़क-चौराहे का मुद्दा है। पुरस्कार मिला, ठीक, कैसे मिला, अब इसका जिक्र लोग कर रहे हैं। उत्कृष्टता की परतें उघड़ रही हैं। देशी भाषा के जिन साहित्यकारों को संभ्रांत अंग्रेजीदां गुटरगूं में 'कल्चर जार' यानी 'संस्कृति के शहंशाह' कहा जाता रहा, उन शाहों को उनके किस काम के चलते ताज पहनाया गया, अब यह बात लोग जानना चाहते हैं। बात अब गली-मुहल्ले की चर्चाओं का विषय है। भोले-भाले सरल लोग भले ही इतने 'बड़े' लोगों के नाम न जानते हों, लेकिन काम और सम्मान का संबंध जानने की जिज्ञासा चरम पर है। इस सामाजिक जिज्ञासा को शांत करना आवश्यक है। सो, काम की परख तो होनी ही चाहिए।
लौटाए जा रहे पुरस्कारों में अखिल भारतीय स्तर के पुरस्कार शामिल हैं। इसलिए सवाल बनता है कि राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए कसौटी क्या हो? शायद यही कि राष्ट्र के प्रति दायित्वबोध रचनाकर्म में झलकता हो! क्या इसके इतर कोई और मापदंड हो सकता है? लेकिन दूसरा प्रश्न खड़ा होता है। क्या इस कसौटी का पालन हुआ? दशकों पुराने तमगे लौटाकर ताजा सुर्खियां बटोर रहे 'साहित्यकारों' का काम इसी आधार पर जांच भी लिया जाए तो क्या हर्ज है! इस सम्मानित-पुरस्कृत लेखन में व्यक्ति को सिर्फ अपने बारे में सोचने से ऊपर उठने की सलाह कितनी है? समाज को एक मन होकर इस देश के बारे में सोचने के लिए प्रवृत्त करने का भाव कितना है? चरित्र गढ़ने का प्रयास है या व्यक्ति और समाज के मूल्यों के स्खलन को ही 'स्वतंत्रता' और प्रगतिशीलता का बाना ओढ़ाया गया है? सोशल मीडिया पर लोग हर पहलू छान-फटक रहे हैं। राष्ट्र के प्रति दायित्ववान साहित्यकारों को इस सबसे भी नहीं घबराना चाहिए।
सम्मान लौटाने की हवा के पीछे कुछ हत्याएं हैं, ऐसा सम्मान लौटाने वालों की अगुआई करने वालों का दावा है। कलबुर्गी या अखलाक हत्याकांड की जांच होने के बीच इस खास कुनमुनाहट को लोग समझना चाहते हैं। इन घटनाओं से लेखक मन व्यथित हुआ। जब वे कहते हैं तो मान भी लेना चाहिए। आहत होना संवेदनशीलता का लक्षण है। संवेदना रचनात्मकता का आधार है, इसलिए मान लेना चाहिए। लेकिन लोग यह भी जानना चाहते हैं कि सोनिया-मनमोहन शासन के दौरान हुई तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर की हत्या पर साहित्यकारों की राय क्या है? क्या वे इसके लिए तत्कालीन केंद्र सरकार को दोषी ठहराते हैं? आपातकालीन प्रताड़नाओं पर जो बुक्कल मारे बैठी रही,1984 के सिख कत्लेआम पर जो न उभरी, हजारों कश्मीरी हिन्दुओं की हत्या पर जो खामोश रही, उस संवेदनशीलता को लोग सवालिया नजरों से देख रहे हैं। क्या सेकुलर-प्रगतिशील नजरों में भारतीय नागरिक सिर्फ भारतीय नहीं हो सकता? उसे हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई में बांटे और सुविधानुसार छांटे बिना काम नहीं चल सकता? सामूहिक हत्याकांडों पर चुप्पी और चुनिन्दा हत्याओं पर हाहाकार वाली इस गंभीर साहित्यिक मुद्रा को भी लोग समझना चाहते हैं।
तमगे फीते लौटाने की शुरुआत करने वालों का एक आरोप यह भी रहा कि केंद्रीय सत्ता में परिवर्तन के बाद देश में असहनशीलता बढ़ने लगी। हालांकि, इस बारे में तथ्य और आंकड़े (देखें आवरण कथा) उनकी समझदारी की पोल खोलने के लिए काफी हैं। समाज की सहनशीलता घटी है या असहिष्णु साहित्यकारों को छांह देने वाली छतरी हटी है? लोग चंद 'बड़े' व्यथित साहित्यिक मनों की थाह पाना चाहते हैं।
अंत में बात उस सम्मान की, जो अकादमियों की ओर हाथ जोड़कर स्वीकारा गया था और सरकार की तरफ मुंह फुलाकर लौटाया जा रहा है। सम्मान के अपमान की होड़ प्रारंभ करने वाले साहित्यकार क्या यह मानते हैं कि अकादमियों से पुरस्कार प्राप्त करने में सत्ता और राजनीति का खेल शामिल था? यदि हां, तो इससे शर्मनाक लांछन साहित्यिक बिरादरी के लिए हो नहीं सकता। ज्यादा घृणित बात यह है कि चुनिंदा साहित्यकारों ने अपनी पूरी बिरादरी पर यह आरोप थोपने की कोशिश की है। यदि लोकतंत्र में जनता द्वारा किया गया राजनीतिक परिवर्तन ही सम्मान लौटाने की व्यथा का मूल है तो निस्संदेह उन्हें यह पुरस्कार लौटा देने चाहिए। साथ ही इन सम्मानों को सड़क के ठीकरे की तरह उछालने वालों को यह भी बताना चाहिए कि उन्हें पदक-प्रमाणपत्र के साथ और क्या-क्या मिला था, जिसे वे लौटा रहे हैं।
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