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समाचारपत्रों में पढ़ा है कि अनेक लेखकों ने साहित्य अकादमी से मिले अपने पुरस्कार लौटा दिए हैं। किसी ने लेखन की स्वतंत्रता के बाधित होने के कारण लौटाया है। किसी ने साम्प्रदायिकता का विरोध करने के कारण लौटाया है। किसी ने अपने संप्रदाय का पक्ष रखने के लिए लौटाया है। कुल मिलाकर यह राजनीति है। जिस घटना और नीति से वर्तमान केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय साहित्य अकादमी का कोई संबंध नहीं है, उसके लिए भी उसे दोषी ठहराने का प्रयत्न किया जा रहा है। वषोंर् पहले घटित घटनाओं, जो किसी और सरकार के शासन में घटी थीं, के संदर्भ में, आज अचानक सम्मान और पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं। (सरकारी पैसे से किए गए विदेशों के सैर- सपाटे तो लौटाए नहीं जा सकते।) मैं सोच रहा हूं कि इन लेखकों ने अपनी अन्तरात्मा के जागने पर सम्मान लौटाए हैं या किसी राजनीतिक विचारधारा के आदेश पर वे यह करने को बाध्य हुए हैं? कर्नाटक और उत्तर प्रदेश की घटनाओं के लिए उन प्रदेशों की सरकारों से जवाब क्यों नहीं मांगा जा रहा? जिस दिशा में यह धारा बह रही है, उससे तो बंगलादेश में हुई ब्लागरों की हत्या के लिए भी ये लेखक अपने देश की सरकार को दोषी ठहराएंगे।
-डॉ. नरेन्द्र कोहली, वरिष्ठ साहित्यकार
जिस घटना पर बवाल हो रहा है यदि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के स्तर पर उसकी तत्काल निंदा हो जाती, वे अपना विचार दे देते तो ऐसा अवसर न आता। सरकार के हस्तक्षेप का इसमें कोई प्रश्न नहीं होना चाहिए। सरकार भले चुप रहे, वास्तव में यह दायित्व अकादमी अध्यक्ष का था। साहित्य चिंतकों को यह सोचना चाहिए कि आप जहां सहमत हैं वहां भी और जहां नहीं हैं वहां भी अपनी राय तो देनी ही चाहिए। सरकार का मामला इसमें नहीं है। जब कांग्रेस की सरकार रही तब भी आलोचना हुई है और अब अगर भाजपा या राजग की सरकार है तब भी निंदा हो सकती है। लेकिन जब साहित्य अकादमी साहित्यकारों की संस्था है तो उसे जनसरोकारों पर चर्चा करनी ही चाहिए और अपनी राय भी रखनी चाहिए, इसमें सरकारों को घसीटने की जरूरत नहीं है।
-डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, हिन्दी आलोचक
1 नवंबर 1995 को आउटलुक ने प्रकाशित किया…
'हिन्दी और उर्दू साहित्य में वामपंथियों का वर्चस्व है और कई राज्य सम्मान भी यही पाते हैं। बेशक ज्ञानपीठ और उद्योगपतियों द्वारा स्थापित पुरस्कार कभी भी वामपंथियों को नहीं मिले। और तो और फैज अहमद फैज को भी ज्ञानपीठ नहीं मिला।'
-श्रीलाल शुक्ल, शीर्ष हिन्दी उपन्यासकार
नि:संदेह साहित्य में माफिया सक्रिय है। किसी एक या अन्य को बढ़ाने के लिए मौन रूप से निर्णय लिया जाता है। यह एक मिलाजुला खेल है जो बाहरी लोगों का प्रवेश नहीं होने देता। केवल कुछ लोगों को ही इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की 'बार' में प्रवेश का अधिकार है जहां ज्यादातर चीजें तय होती हैं।
-कृष्णा सोबती, वरिष्ठ लेखिका
'हिन्दी साहित्य में कोई अशोक वाजपेयी को गंभीरता से नहीं लेता। वह सत्ता के दलाल हैं। इतिहास उन्हें एक स्वयंभू ठेकेदार के रूप में ही याद करेगा।'
-उदय प्रकाश, प्रसिद्ध लेखक
पुरस्कार व सम्मान लौटाना अपने मतभेद को जाहिर करने का एक तरीका बन गया है। ग्रेटर नोएडा के हत्याकांड को लेकर लेखक साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा रहे हैं लेकिन इसमें साहित्य अकादमी का क्या हस्तक्षेप है? मैं इनसे पूछती हूं, इतने वर्ष आपने इस पुरस्कार का उपभोग किया। क्या इन वर्षों में कुछ ऐसा अनैतिक नहीं घटा जिसने आपकी आत्मा को झकझोरा हो? सन् 2012 में निर्भया के सामूहिक बलात्कार और तद्स्वरूप मृत्यु के बाद आप इस सम्मान को लौटा सकते थे। क्या निर्भया का बलात्कार, जिसने समस्त देश को झिंझोड़कर रख दिया था, आपको इतना नहीं झकझोर गया कि आप अपना क्रोध जाहिर करते? इतने सारे बम धमाकों में जब सैकड़ों जानें गईं तब आप इस सम्मान को लौटा सकते थे। क्या सिर्फ एक मजहब का मुद्दा आपके लिए सर्वोपरि है?
एक बार पुरस्कार ले लेने के बाद उसे वर्षों बाद लौटाना, आखिर इस कृत्य की अहमियत ही क्या है। माना कि यह कृत्य आपका क्रोध दर्शाने का प्रतीक है लेकिन देश के अन्य अनेक गलत हो रहे कामों पर भी आपको क्रोध
आना चाहिए।
-मणिका मोहिनी
सुप्रसिद्ध लेखिका
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