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दादरी में अखलाक की हत्या की निन्दनीय घटना के पीछे का सच क्या है, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन यदि यह मान भी लिया जाये कि वह अपने घर में सचमुच ही गोमांस पका रहा था, तब भी किसी को उसे मारने का हक नहीं था। पर दादरी की इस दुखद घटना के बाद जिस प्रकार देश भर में बहस चल रही है, वह सचमुच आश्चर्यचकित करने वाली है। होना तो यह चाहिए था कि सभी राजनैतिक दल एक स्वर से इस अमानुषिक हत्या की निन्दा करते और बहस इस बात को लेकर करते कि भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में ले लेने के बढ़ते चलने को कैसे रोका जाये। लेकिन बहस इस बात को लेकर हो रही है कि गोमांस खाना चाहिए या नहीं?
अपने आपको देश के प्राचीन इतिहास का ज्ञाता बताने वाले चार-पांच बुजुर्ग इतिहासकारों के एक प्रतिनिधि ने तो अंग्रेजी भाषा में बाकायदा एक लम्बा लेख प्रकाशित करवाया, जिसमें बड़ी मेहनत से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि हिन्दुस्थान के लोग प्राचीन काल में किस प्रकार चाव से मांस खाया करते थे और बैल के मांस का तो कहना ही क्या। वैसे तो ये बुजुर्ग इतिहासकार अपने सारे काम-धाम छोड़ कर अरसे से यही स्थापित करने में लगे हैं कि प्राचीन काल में यहां के लोग गोमांस खाते थे। लेकिन जब देश में गोहत्या को लेकर कोई झगड़ा हो जाता है, तो इनकी उछलकूद देखते ही बनती है। कचहरियों के पेशेवर गवाहों की तरह इनको तुरन्त गवाही के लिये बुलाया जाता है। इस बार किसी ने नहीं बुलाया तो इनमें से एक-दो ने स्वयं ही आसपास घूमना शुरू कर दिया कि शायद आवाज पड़ जाये। इनकी जिद को देखते हुये सदा यह खतरा बना रहता है कि प्राचीन काल में गोमांस खाने के कालखंड को इक्कीसवीं सदी में भी प्रासंगिक सिद्ध करने वाले ये बुजुर्ग इतिहासकार कहीं प्रतिक्रिया में इससे भी पीछे के ऐतिहासिक कालखंड में न चले जायें। तब ये यह सिद्ध करने में लग जायेंगे कि उससे भी पहले के कालखंड में हिन्दुस्थान के लोग जंगलों में जानवरों की तरह निर्वस्त्र रहते थे और जानवरों की तरह ही शिकार करते थ। जाहिर है तब ये इतिहासकार निर्वस्त्र रहने की उस परम्परा के अनुरूप इक्कीसवीं सदी में भी निर्वस्त्र रहने की जिद कर सकते हैं। ये लोग उन लोगों से भी ज्यादा खतरनाक हैं जिन्होंने अखलाक को मारा। ये अपराधियों को उनके कृत्य का वैचारिक आधार प्रदान करते हैं। जिस प्रकार एक विश्वविद्यालय में पिछले दिनों गोमांस भक्षण का बाकायदा एक उत्सव मनाया गया, संभव है उसी प्रकार निर्वस्त्र रहने का सार्वजनिक उत्सव भी मनाए जाने की जिद होने लगे।
लेकिन ताज्जुब है कि इखलाक की हत्या किस प्रकार की मानसिकता में हुई, इसकी चिन्ता किसी को नहीं है। उसकी कब्र पर रुदन करके किस प्रकार राजनीतिक रोटियां सेंकी जा सकती हैं, उसका बेशर्म प्रदर्शन हो रहा है। ये घोषणाएं करने की होड़ लगी रही कि ‘मैं भी गोमांस खाता हूं।’ यहां तक कि लालू प्रसाद यादव भी इस प्रतियोगिता में कूद पड़े। वे यह तो नहीं कह सकते थे कि ‘मैं भी गोमांस खाता हूं’, क्योंकि सब जानते हैं कि वे ऐसा नहीं करते। इसलिए उनका झूठ पकड़ में ही नहीं आ जाता बल्कि वे हंसी के पात्र भी बनते (वैसे तो अब भी बनते ही रहते हैं)। इसलिए इस बहस में उन्होंने यह कह कर छलांग लगाई कि हिन्दू भी गोमांस खाते हैं। लेकिन वे यहीं तक नहीं रुके। आगे उन्होंने यह भी बताया कि गोमांस और बकरी के मांस में कोई अन्तर नहीं हैं। वैसे जब वे विभिन्न प्रकार के मांस का परीक्षण कर ही रहे थे, तब यह भी कह सकते थे कि गोमांस, बकरी के मांस और आदमी के मांस में भी कोई अन्तर नहीं है। अपनी बात को पुख्ता करने के लिये नर मांस भक्षण के निठारी कांड का उदाहरण भी दे ही सकते थे। उत्तर प्रदेश के एक मंत्री आजम खान इससे भी एक कदम आगे बढ़ गये। उनका तर्क सीधा था कि ‘अब तो इस देश में गोमांस खाना मुश्किल हो गया है। स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि यदि कोई मुसलमान अपने घर में भी गोमांस खाता है तो लोग जाकर उसे मार देते हैं। इसलिए यह देश एक प्रकार से हिन्दू राष्टÑ बन गया है और अब यहां के मुसलमानों का क्या होगा?’
अपनी यह चिन्ता वे टेलीविजन चैनलों पर व्यक्त कर रहे हैं। पुराना जमाना होता तो वे अपनी यह चिन्ता अंग्रेज बहादुर के पास जाकर व्यक्त करते, जैसे मोहम्मद अली जिन्ना किया करते थे। लेकिन आजम खान के दुर्भाग्य से अंग्रेज बहादुर को इस मुल्क से गये लगभग सात दशक हो गये हैं और वायसराय भवन भी राष्टÑपति भवन बन गया है। पर लगता है आजम खान भी जिन्ना की तरह जिद्दी हैं। उन्होंने अमरीका स्थित संयुक्त राष्टÑ संघ को लम्बी चिट्ठी लिख दी है कि अब इस देश में मुसलमानों का क्या होगा? साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव से व्यक्तिगत रूप से मिलने का समय भी मांगा है। वे खुद जाकर उन्हें सारी स्थिति समझाना चाहते हैं। आजम खान उत्तर प्रदेश में मंत्री हैं। लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि संयुक्त राष्टÑ संघ के महासचिव से मिलने के इस कार्यक्रम को भी वे सराकरी ड्यूटी ही मानेंगे या व्यक्तिगत कार्य? वैसे आजम खान को पता होना चाहिये कि हिन्दुस्थान के मुसलमान गोमांस नहीं खाते। यह उनकी परम्परा या भोजन शैली का हिस्सा नहीं है। वे इसी देश के रहने वाले हैं। वे अरब, ईरान या अफगानिस्तान से नहीं आये हैं। उनकी विरासत इस देश की विरासत है। उन्होंने केवल अपना मजहब या पूजा करने का तरीका बदला है, अपने पुरखे, परम्परा या विरासत नहीं। पर इससे क्या होता है!
यह बात तो जिन्ना भी जानते थे। जिन्ना अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिये इस देश के मुसलमानों को इस देश की परम्परा से काटना चाहते थे। अब यही काम आजम खान करना चाहते हैं। जिन्ना को अपने काम में अंग्रेज बहादुर की सरकार से मदद मिलती थी। यहीमदद मांगने के लिये आजम खान संयुक्त राष्टÑ संघ जाना चाहते हैं।
जम्मू-कश्मीर विधान सभा के एक सदस्य राशिद शेख ने तो विधान सभा होस्टल में ही गोमांस ‘फीस्ट’ बाकायदा घोषणा करके दी। उनका कहना था कि देश के उच्चतम न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर के निवासियों को गोमांस के बारे में अनुमति प्रदान कर दी है। दरअसल जम्मू-कश्मीर राज्य की दंड संहिता में ही गोहत्या पर सजा का प्रावधान है। पिछले दिनों प्रदेश के उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया था कि इस प्रावधान का जमीनी तौर पर पालन भी सुनिश्चित किया जाये। इसको चुनौती देते हुये कुछ लोग उच्चतम न्यायालय में चले गये। उस न्यायालय ने इस निर्णय को फिलहाल स्थगित कर दिया। उसका लाभ उठाते हुये राशिद ने गोमांस भक्षण की पार्टी ही आयोजित कर दी, वह भी विधान सभा सदस्यों के आवास स्थान पर। कश्मीर घाटी के लोग आमतौर पर गोमांस नहीं खाते। वह उनकी जीवन शैली का हिस्सा नहीं है। लेकिन राशिद का उद्देश्य मांस खिलाना तो था नहीं। उनका उद्देश्य घाटी के अल्पसंख्यकों को केवल चुनौती देना था। इस प्रकार की साम्प्रदायिक मनोवृत्ति की निन्दा की जानी चाहिए। राशिद ने यहीं बस नहीं किया बल्कि विधान सभा के अन्दर भी अपनी इस बहादुरी के किस्से सुनाने लगे। खबरें छपी हैं कि उत्तेजना में किसी विधायक ने वहां राशिद से हाथापाई भी की।
एक सज्जन और एक महिला खुलेआम यह चिल्लाते हुये घूम रहे हैं कि ‘मैं भी गोमांस खाता या खाती हूं, मुझे भी मारो।’ केरल के एक कालेज में कुछ तथाकथित प्रगतिवादियों ने तो गोमांस भक्षण का प्रदर्शन ही आयोजित कर डाला। यह देश का साम्प्रदायिक वातावरण खराब करने की गहरी चाल दिखाई देती है। अखलाक की लाश को आगे करके खेला जा रहा भारतीय राजनीति का यह बहुत ही घिनौना खेल है। इसकी जितनी निन्दा की जाये, उतनी कम है। राष्टÑपति प्रणव मुखर्जी ने ठीक ही चेताया है कि लोग भारतीय मूल्यों और परम्पराओं को न भूलें और इस देश को भारत ही बना रहने दें। उनकी चिन्ता जायज है और उन्होंने ठीक समय पर यह व्यक्त भी की है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने और भी सटीक कहा कि लोग इन नेताओं की बात न सुन कर राष्टÑपति की आवाज सुनें। मोदी के अनुसार, राष्टÑपति का सुझाया हुआ रास्ता ही भारत का रास्ता है। यही सही रास्ता है। गोमांस को लेकर जन भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिये।
कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
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