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नवरात्र उत्सव का अनुष्ठान छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष सभी को सहज ही सात्विकता की ओर मोड़ देता है। इस पूजन के अंतर्गत पूरे उत्तर भारत में अष्टमी अथवा नवमी के दिन छोटी-छोटी कन्याओं का श्रद्धा एवं भक्ति भाव से विशिष्ट आसन में बैठा कर पुष्प-गंध-अक्षत से पूजन किया जाता है। उन्हें पूरी, हलवा, चने के साथ चूड़ी, चुन्नी, वस्त्र आदि अपनी सामर्थ्य अनुसार भेंट करते हैं। कुछ लोग कॉपी-पेंसिल भी देते हैं। कन्याओं की संख्या अपने कुल और परंपरा के अनुसार निश्चित होती है। सजी-संवरी, हंसती-बतियाती कन्याओं की उपस्थिति वातावरण में रोशनी सी बिखेर देती है। उनकी निर्मल छवि में सरलता, करुणा और आनंद के दर्शन होते हैं। साथ ही पवित्रता का भाव मां जगदंबे की स्मृति कराता रहता है।
तात्विक दृष्टि से जैसे सारे पुरुष, पुराण-पुरुष के प्रतिनिधि हैं, इसी प्रकार समस्त नारी जाति आदिशक्ति, पराशक्ति की प्रतीक मानी गई है। कन्याओं को भगवती रूप में, दुर्गा रूप में पूजने की अति प्राचीन परंपरा है। यह परंपरा मात्र धार्मिक नहीं, वरन्््् परिवार में, समाज में नारी के प्रति सम्मान और श्रद्धा बढ़ाने वाली है। यदि समाज का केन्द्र परिवार है तो परिवार का केन्द्र मां है जो जन्म से ही अपने बच्चों को संस्कारों की घुट्टी पिलाती है। आशा, दया, सहनशीलता, उदारता जैसे गुणों के बीज परिवार में नारी ही बोती है। माता, पत्नी, बहन, बेटी का स्नेह रूपी अनुदान पाकर ही मनुष्य शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक दृष्टि से सुसंस्कृत, सुविकसित बनता है। बहन, बेटियां तो जीवन में पवित्र प्रेरणा का प्रवाह पैदा करती हैं। उनसे अधिक पवित्रता, स्नेह और ममता का बोध शायद ही कहीं और दिखे। बेटी को मानवता के संस्कार बचपन से ही दिए जाते हैं, तभी तो वह परिवार में सद्भाव, समरसता बढ़ाते हुए ताजा हवा के झोंके सा प्यार का आदान-प्रदान आजीवन करती है।
कन्या पूजन की स्वस्थ परंपरा का आधार अपने हृदय में समता का भाव जागृत करना है। यदि उसमें भेदभाव को देखेंगे तो भगवती की स्थापना नहीं होगी। नवकन्या के पूजन में वर्ण, कुल का विचार नहीं किया जाता। जिस समय कन्या को पूजा का आसन दे दिया, उस समय वह साक्षात् देवी है। जैसे पत्थर की मूर्ति बनाते समय किसी विशेष ट्रेड मार्क को नहीं देखते, सब पत्थर एक जैसे हैं, उनमें देवता की स्थापना करते ही उस देवता का विशेष भाव-गुण आ जाता है। उसी प्रकार सब कन्याएं एक सी हैं- जब उनमें भगवती की स्थापना की तब वे भगवती स्वरूपा हैं।
इस पूजन के जाती है माध्यम से हमें अपने पूर्वजों की दूरदृष्टि का भी पता चलता है। परिवार का मुखिया जब अपने मोहल्ले की कन्याओं को दुर्गा मां समझ कर पूजेगा,'या देवी सर्वभूतेषु मातृरुपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:' बोलकर प्रणाम करेगा तब उसके पुत्र और पौत्र भी वैसा ही अनुकरण कर नतमस्तक होंगे। परिणाम यह होता है कि कन्या के युवती हो जाने पर भी अपने मुहल्लेे के युवक कुदृष्टि करने का साहस नहीं कर पाते। मातृ भाव का संस्कार उन्हें मर्यादित आचरण करने को प्रेरित करता है। इस प्रकार पारिवारिक परंपरा समाज को संगठित करते हुए सहज रूप से आचार-विचार को संयमित और संतुलित करती रही है।
वास्तव में नारी का दायित्व प्रारंभ होने से पूर्व बालिका रूप में ही उसके पूजन का विधान उसके अन्दर छुपी शक्ति और सामर्थ्य का सम्मान है। समाज को बताना है कि उसके नैसर्गिक गुणों की सराहना होनी चाहिए। वहीं किसी ने बालक की पूजा का विधान न देखा, न सुना होगा। यद्यपि यह परंपरा ऊंच-नीच, अमीर-गरीब की खाई को पाटते हुए समाज को समरसता के सूत्र में बांधती रही है, किन्तु आज यह पर्व, अपने मूल दर्शन की उपेक्षा कर औपचारिकता और आडम्बर के जाल में फंस गया है। भड़काऊ संगीत के बीच, बॉलीवुड की तर्ज पर कन्या पूजन तथा भेंट आदि देने की परंपरा तो निभाई जा रही है, किंतु कन्या के प्रति, नारी के प्रति सम्मान की भावना सूखती जा रही है- कन्या भ्रूण हत्या, तेजाब आक्रमण, बलात्कार की घटनाएं इसका प्रमाण हैं। स्त्री-पुरुष का घटता अनुपात भी इस सत्य को उजागर करता है।
दिल्ली में सेवा भारती ने लगभग 30 वर्ष पहले सामूहिक कन्या पूजन की शुरुआत की थी। आज भी सेवा भारती के कार्यकर्ता इस परम्परा को निभा रहे हैं। अमीर परिवार के लोग सेवा बस्तियों में जाते हैं और वहां की कन्याओं को घर लाकर उनकी पूजा करते हैं। वहीं कई स्थानों पर सामूहिक कन्या पूजन भी होता है। इससे समाज में समरसता बढ़ रही है।
कन्या पूजन की विधि
कन्या पूजन नवरात्र व्रत का अनिवार्य अंग है। आसन लगाकर गणेश जी, वटुक तथा कन्याओं को एक पंक्ति में बैठाकर पहले 'ऊं गणपतये नम:' से गणेश जी का पंचोपचार-पूजन करें। फिर 'ऊं वटुकाय नम:' से वटुक तथा 'ऊं कुमार्यै नम:' से कन्याओं का पूजन करें। इसके बाद हाथ में पुष्प लेकर निम्न मंत्र से कन्याओं की प्रार्थना करें-
मन्त्राक्षरमयीं लक्ष्मीं मातृणां रूपधारिणीम्।
नवदुर्गात्मिकां साक्षात् कन्यामावाहयाम्यहम्॥
जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरूपिणी।
पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमास्तु॥
अष्टमी या नवमी के दिन कड़ाही-पूजा की परम्परा भी है। कड़ाही में हलवा बनाकर उसे देवी की प्रतिमा के सम्मुख रखें। तत्पश्चात् चम्मच और कड़ाही में मौली बांधकर 'अन्नपूर्णायै नम:' इस नाम-मंत्र से कड़ाही का पंचोपचार-पूजन भी करें। फिर थोड़ा सा हलवा कड़ाही से निकाल कर देवी मां को नैवेद्य
अर्पण करें और मां भगवती की आरती
मिलकर गाएं। उसके बाद कुमारी बालिकाओं को भोजन कराकर उन्हें यथाशक्ति वस्त्राभूषण, दक्षिणादि दें।
मान्यता है कि एक कन्या की पूजा से ऐश्वर्य की, दो की पूजा से भोग और मोक्ष की, तीन की अर्चना से धर्म, अर्थ, काम की, चार की अर्चना से राज्य पद की, पांच की पूजा से विद्या की, छह की पूजा से षट्कर्मसिद्धि की, सात की पूजा से राज्य की, आठ की अर्चना से सम्पदा की और नौ कुमारी कन्याओं की पूजा से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है।
कुमारी-पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं की ही पूजा की जाती है। दो वर्ष की कन्या कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छह वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष वाली सुभद्रा-स्वरूपा होती है।
दुर्गा पूजा : पांच दिवसीय धार्मिक अनुष्ठान
महालय : यह पहला दिन होता है। महालय दुर्गा पूजा से ठीक पहले होता है तथा इस दिन परिवार के सदस्य अपने पूर्वजों को याद करते हैं। इस कर्मकाण्ड को तर्पण कहते हैं। पूजा मण्डपों व घरों में श्लोकोच्चारण किए जाते हैं। महालय के बाद आने वाले सप्ताह को देवी-पक्ष कहा जाता है। दुर्गा पूजा पांच दिन की जाती है।
षष्ठी पूजा : बंगाल, बिहार, झारखण्ड आदि राज्यों में नवरात्र की षष्ठी तिथि को दुर्गा जी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाती है। माना जाता है कि देवी अपने मायके आई हैं। इसलिए देवी के इस पहले दिन का स्वागत ढोल-ध्वनि से या शंख बजाकर किया जाता है। माताएं अपने बच्चों के शुभ के लिए उपवास करती हैं। घटस्थापन क्रिया द्वारा मूर्ति में दिव्यता लाई जाती है। इसे प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करना भी कहते हैं।
सप्तमी पूजा : सप्तमी का प्रारंभ नौ वृक्षों की टहनियां बांधने के साथ होता है। मूर्तियों को गंगाजल से नहलाया जाता है, श्वेत साड़ी के लाल बूटे में इन्हें लपेटा जाता है तथा श्रीगणेश के साथ रख दिया जाता है। फिर पवित्र समय में संधि पूजा की जाती है।
महाअष्टमी पूजा : तीसरे दिन की यह पूजा निरामिष भोजन की प्रतीक है। अष्टमी तिथि के अंत तथा नवमी के प्रारंभ होने के बीच आरती का आयोजन होता है तथा एक हजार दीपक जलाए जाते हैं। सायंकाल में कन्या की पूजा देवी के रूप में की जाती है।
नवमी पूजा : देवी मां का यह दिन अपने पिता के घर में रहने का अंतिम दिन होता है। इस दिन हवन कराकर महोत्सव का समापन किया जाता है। यह महापूजा का दिन होता है।
दशमी पूजा : अगले दिन मां दुर्गा अपने घर
प्रस्थान करती हैं। भक्त इस समय समारोह में अश्रुपूर्ण आंखों से दीपक जलाकर, फल बांटकर तथा वस्त्र प्रदान करके देवी के विदाई समारोह को पूर्ण करते हैं।
इस दिन विसर्जन-समारोह भी होता है। प्रात: एक पूजा की जाती है। मूर्ति के आगे रखे बर्तन को पुरोहित हिलाता है, जिसका संकेत है महोत्सव का समापन। तब पुरोहित मूर्ति की परिक्रमा करता है और सौभाग्यवती महिलाएं देवी के माथे पर सिंदूर भरती हैं, पान के पत्तों से देवी के मुख को साफ करती हैं तथा इन्हें विदा करने से पूर्व प्रसन्नता और वैभव पाने की कामना करती हैं।
इसके पश्चात् स्त्रियां उल्लास से एक-दूसरे के माथे पर सिंदूर लगाकर एक-दूसरे का अभिनन्दन करती हैं। इसके बाद मूर्तियों को विसर्जित कर दिया जाता है।
इन्दिरा मोहन
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