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चीन के साथ 1962 में हुए युद्ध के बाद पहली बार रणभूमि में देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीरों की याद में युद्ध स्मारक बनाने की मांग हुई थी। आधी सदी गुजरने और कई युद्ध होने के बाद अब राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का सपना सच होने जा रहा है।
केन्द्र सरकार ने आखिरकार राष्ट्रीय स्मारक और युद्ध संग्रहालय के निर्माण को अनुमति प्रदान कर दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में 7 अक्तूबर को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी प्रदान की गई। स्वतंत्रता के बाद देश के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले सैनिकों की याद में यह स्मारक और संग्रहालय इंडिया गेट के पास प्रिंसेस पार्क में बनाया जाएगा। इसके निर्माण पर करीब 500 करोड़ रुपए की लागत आने का अनुमान है और यह स्मारक व संग्रहालय करीब पांच वर्षों में तैयार किया जाएगा। स्वतंत्रता के पश्चात करीब 22500 सैनिक राष्ट्र की रक्षा में विभिन्न मामलों में अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं। यह स्मारक यहां आने वालों के मन में राष्ट्र भक्ति की भावना को और भी बढ़ाएगा।
1962 से की जा रही थी मांग
स्वतंत्रता के बाद देश की सेनाओं ने 1962 में चीन और 1948, 1965, 1971 और 1999 में पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध किए। 1987 से 1990 तक श्रीलंका में ऑपरेशन पवन के दौरान भारतीय शांति सेना के शौर्य को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। इन विभिन्न युद्धों के दौरान 1948 के युद्ध में 1,110 जवान, 1962 में 3,250 जवान, 1965 में 364 जवान, श्रीलंका में 1,157 जवान और 1999 में 522 जवान वीरगति को प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त अलगाववादियों का सामना करते हुए अपने प्राण देने वाले जवानों की संख्या भी कम नहीं है।
बीते लोकसभा चुनाव के अभियान के समय नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली में युद्ध स्मारक के निर्माण का वादा किया था। उसके बाद उनके नेतृत्व में केन्द्र सरकार का गठन हुआ। उनके वित्त मंत्री अरुण जेटली ने युद्ध स्मारक तथा संग्रहालय के निर्माण के लिए अपने पहले अंतरिम बजट में 100 करोड़ की राशि रखी थी। कारगिल युद्ध के बाद राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के निर्माण की मांग ने जोर पकड़ा था। हालांकि चीन के विरुद्ध युद्ध के बाद भी स्मारक बनवाने की मांग हुई थी। पहले स्मारक को इंडिया गेट परिसर में बनी छतरी के पास ही बनाने की बात थी। सरकार की ओर से युद्ध स्मारक में 50 हजार हुतात्माओं के नाम अंकित करने का प्रस्ताव है। इसमें अलगाववादियों से मुकाबला कर वीरगति को प्राप्त हुए जवान भी शामिल होंगे।
देखा जाए तो यह काफी दुखद है कि अंग्रेजों ने विश्व युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वाले भारतीय सैनिकों की याद में इंडिया गेट बनवाया। वहां सभी के नाम अंकित हैं, लेकिन हमें देश स्वतंत्र होने के बाद भी अपने योद्धाओं के लिए स्मारक बनाने में इतना समय लग गया। पाकिस्तान से 1965 में हुए युद्ध में उनके फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान की पुस्तक का नई दिल्ली में विमोचन करने की अनुमति दी।
अरशद संगीतकार अदनान सामी के पिता थे। यही नहीं, हम कारगिल युद्ध के लिए जिम्मेदार परवेज मुशर्रफ को अपने यहां संगोष्ठी में सुनते रहे। उनके दिल्ली वाला होने पर गर्व महसूस करते रहे। अब जब देश राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के बनाने को लेकर सरकार के फैसले का जश्न मना रहा है तो ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि अरशद और परवेज मुशर्रफ को हम अतिरिक्त सम्मान क्यों देते रहे। यह कहां तक सही है? यह बात है 28 फरवरी, 2008 की। पुस्तक का नाम था 'लाइफ पावर एंड पॉलिटिक्स।'
इस विमोचन के मौके पर पूर्व प्रधानमंत्री आई़ के. गुजराल और पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे अमरिंदर सिंह समेत कई नामी-गिरामी हस्तियां मौजूद रही थीं। क्या 1971 युद्ध के भारतीय नायक सैम मानेकशॉ को पाकिस्तान में अपनी पुस्तक के लोकार्पण का मौका मिलता? बिलकुल नहीं। बेशक, उदारवादी होना अच्छी बात है। पर याद रखिए कि अपने ऊपर हमला करने वालों या उसकी रणनीति बनाने यानी परवेज मुशर्रफ जैसे लोगों को संगोष्ठी में बुलाकर सुनना अपने वीरोंें का अपमान करने से कम नहीं है। लेकिन पाकिस्तान, भारत के वीरों की याद या उनके सम्मान में कोई कार्यक्रम वहां नहीं होने देता। ऐसे में हमारा उदारवादी दृष्टिकोण रखना बिलकुल सही नहीं था।
विरोध भी
हालांकि कुछ विद्वान युद्ध स्मारक बनाने के पक्ष में नहीं हैं। वे मानते हैं कि यह एक तरह से भारत का अमरीकीकरण करने की दिशा में एक और कदम होगा। वे युद्ध स्मारक की मांग को एक सिरे से खारिज करते हैं। उनका मानना है कि युद्ध स्मारक के अपने आप में दो पहलू हैं। पहला हुतात्माओं को याद रखना और दूसरा युद्ध के विचार को जीवित रखना। बहरहाल यह भी एक राय है, लेकिन देश तो चाहता है कि युद्ध स्मारक बने।
इससे अधिक निराशाजनक बात क्या हो सकती है कि पाठ्यपुस्तकों में उन युद्ध में वीरगति को प्राप्त करने वाले रणबांकुरों पर अलग से अध्याय तक नहीं हैं। हां, गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जवानों को याद करने की रस्म अदायगी हम जरूर कर लेते हैं।
सैनिकों को पहंुचती रही है ठेस
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए कि जब लुधियाना के मुख्य चौराहे पर 1971 युद्ध के नायक रहे वीरगति को प्राप्त करने वाले फ्लाइंग अफसर निर्मलजीत सिंह सेखों की मूर्ति के नीचे लगी पट्टिका को उखाड़ दिया गया था। काफी दिनों के बाद नई पट्टिका लगाने की जरूरत महसूस की गई। यह वही लुधियाना शहर है, जो कि सेखों का गृहनगर है।
उन्हें अदम्य साहस और शौर्य के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। सेखों के भतीजे अवतार सिंह कहते हैं, काफी भागदौड़ के बाद लुधियाना प्रशासन ने पट्टिका लगाने के बारे में सोचा। वीरांे के सम्मान को ठेस पहंुचाने का यह सिलसिला यहीं नहीं थम जाता। मोदीनगर (उत्तर प्रदेश) में 1965 युद्ध के नायक अमर बलिदानी मेजर आशा राम त्यागी की मूर्ति देखकर तो किसी भी सच्चे भारतीय का कलेजा फटने लगेगा। यही नहीं दिल्ली सरकार ने भी कभी 1971 की युद्ध के नायक अरुण खेत्रपाल के नाम पर किसी सड़क या अन्य स्थान का नामकरण किये जाने पर भी विचार नहीं किया। लेकिन युद्ध स्मारक के निर्माण को हरी झंडी मिलने के बाद से न केवल सैनिकों का सम्मान बढ़ेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ी भी वीरों को याद कर गौरव महसूस कर सकेगी।
विवेक शुक्ला
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