|
भारतीय संस्कृति में विश्वविद्यालयों का नाम कोई नया नहीं है। हजारों वर्षों से विश्वविद्यालय भारतीय सभ्यता के लिए सांस्कृतिक कोष का काम करते रहे हैं। इनके माध्यम से न केवल सांस्कृतिक परम्पराओं व मूल्यों की रक्षा हुई है अपितु वे ब्याज सहित समाज को वापस प्राप्त भी होते रहे हैं। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों ने उस समय में विद्या, ज्ञान तथा सांस्कृतिक मूल्यों के प्रसार का कार्य किया जिस समय पश्चिमी देश शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे। समय की विडंबना देखिए, जिन भारतीय विश्वविद्यालयों से धर्म व संस्कृति के ज्ञान की गंगा प्राप्त करने के लिए विदेशों से विद्यार्थी और विद्वान भारतवर्ष में आया करते थे, आज वहीं के विश्वविद्यालय पश्चिमी शिक्षा पद्धति के अनुगामी बन कर रह गए हैं। अपने मूल को भूल हम बाह्य पद्धतियों का अंधा अनुसरण करने में लगे हुए हैं। नया तकनीकी ज्ञान बुरा नहीं है अपितु कई मामलों में यह हमारे लिए लाभदायक भी सिद्ध हो रहा है। परन्तु अपनी सभ्यता के चिह्न मिटाकर इसको अपनाना क्या हमारी पहचान मिटाने के समान नहीं है?
आधुनिकता व बाजारीकरण के इस युग में कुछ शिक्षा तथा संस्कृति के मंदिर ऐसे भी हैं जिन्होंने हमारी संस्कृति के एक हिस्से को बचाने की पहल का शुभारंभ अनूठे ढंग से किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस संस्कृति के चिह्न बचाने की पहल में उन्होंने आम जनता की भागीदारी को प्रमुख रूप से महत्व दिया है। यहां बात हो रही है श्रीमद्भगवद् गीता की जन्मभूमि कुरुक्षेत्र में स्थित कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्रांगण में बने धरोहर नामक सांस्कृतिक संग्रहालय की। भारत की सांस्कृतिक विविधता इस देश को और अधिक खूबसूरत बनाती है। यहां के हजारों साल के इतिहास में अनेक संस्कृतियों का योगदान रहा है। इस काल में अनेक जातियां, समुदाय, सम्प्रदाय यहां पनपे और भारत की मिट्टी में ही रच-बस कर अपनी पहचान बनाए रखी। इन्हीं संस्कृतियों में हरियाणा की संस्कृति का भी प्रमुख स्थान है। हरियाणा की संस्कृति का इसके आसपास के क्षेत्रों, जैसे राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश पर भी गहरा प्रभाव रहा है। इसी हरियाणा की सांझी संस्कृति को धरोहर संग्रहालय का आधार बनाया गया है।
बात वर्ष 2006 के आसपास की है। विश्वविद्यालय के वरिष्ठ पदाधिकारियों व प्रबुद्ध बुद्धिजीवी शिक्षक वर्ग ने भारतीय नगरों व ग्रामीण जीवन की प्राचीन पारम्परिक पद्धति पर आधारित जीवन चक्र में आने वाले परिवर्तन पर चिंता व्यक्त की। इस गंभीर चिंतन का निष्कर्ष यह निकाला गया कि हरियाणा प्रदेश के कोने-कोने में फैली इस अंचल की विविध सांस्कृतिक विरासतों को सहेज कर धरोहर के रूप में संरक्षित किया जाए ताकि आने वाली पीढ़ी अपनी इस महान सभ्यता के मूल रूप से कुछ हद तक परिचित रहे। वरिष्ठ गुरुजनों की देखरेख में बनी कमेटियों ने प्रदेश भर में घूम-घूम कर आम जनता से जब इन धरोहरों को एकत्रित करने का कार्य प्रांरभ किया तो अप्रत्याशित परिणाम सामने आने लगा। आम जनता ने सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने के इस प्रयास को हाथों हाथ लिया। प्रदेश के प्रत्येक भाग से विश्वविद्यालय के दलों को भरपूर मात्रा में वस्तुएं, पांडुलिपियां, सिक्के, आभूषण, गले-हाथों की डूमें, ताले, कृषि से जुड़ी अलग-अलग वस्तुएं, हल, करौंत, रंदा, जुआ, धातु व लकड़ी के संदूक, दरवाजे, रथ, बैलगाड़ियां, डोली, बिजणे, वस्त्र, बर्तन, टोकनियां, देग, चंगेरी, झाल्ला, कुठार, हुक्के, चरखे, हाथ से बने अनेक प्रकार के यंत्र, चारपाइयां, पीड़े, पालने, विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्र, चित्र, कलाकृतियां इत्यादि प्राप्त हुर्इं। कमाल की बात यह थी कि 90 प्रतिशत वस्तुएं हरियाणा की आम जनता द्वारा प्रसन्नता से दान में दी गर्इं।
वर्ष 2006 में 28 अप्रैल के दिन धरोहर को जनता के लिए खोल दिया गया। आम लोगों द्वारा प्राप्त इन सभी वस्तुओं का अति सुंदर तथा व्यवस्थित ढंग से संग्रहालय में प्रदर्शन किया गया। ग्रामीण जनजीवन को आधार बनाकर कई प्रकार की झांकियां यहां रखी गर्इं जिससे लोगों को हरियाणा की समृद्ध संस्कृति का आभास हो सके। गांव की रसोई, पशु रखने का स्थान, सूत कातती, दूध बिलोती महिलाएं, पंचायत में बैठे पुरुष इत्यादि जैसे आम दृश्यों को यहां देख कर इस संस्कृति से जुड़ने का अहसास आम जनता तथा यहां आने वाले देश-विदेश के गणमान्य अतिथियों को होता है। इन सब के अतिरिक्त देश के स्वतन्त्रता संग्राम में आहुति देने वाले महान सेनानियों, राष्टÑ के लिए लड़ने वाले सेना के वीर जवानों सैनिकों के चित्रों को संग्रहालय में प्रमुखता से स्थान दिया गया है। कला दीर्घा में चित्रों के माध्यम से हरियाणा के खेत-खलिहानों, ऐतिहासिक इमारतों, प्राचीन हवेलियों, चौपालों, मंदिरों के साथ ही आम जनजीवन, मजदूरों, कामगारों, महिलाओं, किसानों आदि को प्रस्तुत किया गया है।
अपने निर्माण के बाद थोड़े ही समय में धरोहर ने इतनी प्रसिद्धि प्राप्त की कि जिसकी आवाज दूर-दूर तक सुनाई देने लगी। इसी के साथ धरोहर का संग्रह भी बढ़ता चला जा रहा था। तब आवश्यकता महसूस हुई कि संग्रहालय का दूसरा भाग निर्मित किया जाए जिसमें बारीकी से ग्रामीण जीवन पद्धति तथा लुप्त हो रही प्राचीन समाज व्यवस्था को उसके मूल रूप में सामग्री के साथ प्रस्तुत किया जाए। इस सपने को साकार करने के लिए विश्वविद्यालय की तरफ से किसी भी प्रकार की कोई कसर नहीं छोड़ी गई। समुचित शोध के उपरांत कुशल कारीगरों तथा जनता के सहयोग से शीघ्र ही भाग-दो का कार्य पूर्ण कर उसे जनता को समर्पित कर दिया गया। इस भाग में प्रवेश करते ही दादा खेड़ा का स्थान बनाया गया, जिनको प्रणाम किये बिना आज भी हरियाणा के किसी गांव व नगर में कोई भी परिवार कैसा भी शुभ कार्य प्रारंभ नहीं करता। इसी प्रकार लोक कला व परम्परा की प्रतीक सांझी व अहोई अष्टमी के सुंदर चित्र यहां की दीवारों पर उकेरे गए हैं।
जीवन में आमतौर पर कई प्रकार की हलचल ऐसी होती है जिनके हम आदि होते हैं उनमें समय के अनुसार होने वाला बदलाव इतना चुपचाप आता है कि उसकी आहट से हम बेखबर रहते हैं। आज ऐसा ही बदलाव हमारे आस-पास के वातावरण में हो चुका है जिसकी पदचाप को हम सुनकर भी अनसुना कर जाते हैं। हम सबने अपने बचपन में जिस प्रकार के ग्रामीण व शहरी जीवन को देखा उसका स्वरूप आधुनिक समय में बदल गया है तथा इसमें लगातार परिवर्तन आ रहा है। धरोहर में आकर सभी को अपने जीवनकाल के प्रारंभिक वर्षों की यादें अवश्य झकझोर देती हैं। ऐसा लगता है मानो समय की पुस्तक का कोई पन्ना पलट कर फिर से आपका गुजरे समय में ले आया होे गांव की गलियों में जीवनयापन के लिए छोटे-बड़े परन्तु महत्वपूर्ण काम करने वाले कुम्हार, जुलाहे, ठठेरे, छाजवाले, टोकरे बनाने वाले, चर्मकार, दरजी, चिनाईगीर, बड़ई, सिकलीगर अर्थात ताले वाले इत्यादि को उनके सामान के साथ धरोहर में जीवंत रूप में प्रदर्शित किया गया है। लीलगर अर्थात कपड़ा रंगाई वाला, मनियार अर्थात चूड़ियों वाला, भड़भूजा या मक्की भूनने वाला, सुनार, पंसारी इत्यादि किस प्रकार पारम्परिक रूप से अपना काम किया करते थे, यह आज धरोहर में सुंदर मॉडल, चित्रों व झांकियों के माध्यम से देखा जा सकता है। रहट चलाते बैल, पानी भरती पनिहारनें, गुड़ बनाते किसानों की झांकियां देख कर युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति के लुप्त होते जा रहे अध्याय से परिचित होती है। पशुओं के माध्यम से चलने वाले पुरातन वाहनों के कई प्रकार, जैसे रथ, रेहड़ू, टमटम, मंझौली, बैलगाड़ी, घोड़ा-बग्गी, ठोकर, बहल, बागड़ी गड्ढा, तांगा इत्यादि केवल इसी भवन में देखे जा सकते हैं।
यज्ञ भारतीय संस्कृति का कितना प्रमुख भाग है, यह यहां देखा जा सकता है। इन सभी के अतिरिक्त हरियाणा की भूमि से प्राप्त कुषाणकालीन, गुप्तकालीन, हड़प्पा काल की र्इंटों, बर्तनों को भी यहां रखा गया है। ब्रज, बागड़, खादर, अहीरवाल, बांगड़ इत्यादि संस्कृतियों के लोग वर्षों से किस प्रकार पारम्परिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं, यह भी धरोहर में प्रदर्शित है। तांतिया, तेली, बोहिया, हारा कला, मुड्डा जैसी लुप्त होती जा रही कलाओं के अवशेषों को भी धरोहर के रूप में सहेजा गया है।
हालांकि यहां प्रदर्शित अधिकतर सामान विभिन्न लोगों द्वारा विश्वविद्यालय को दान में दिया गया है परन्तु इस धरोहर को सहेजने व व्यवस्थित रूप से प्रदर्शित करने में विश्वविद्यालय द्वारा कोई कसर नहीं छोड़ी गई। वस्तुओं के प्रदर्शन में बारीक से बारीक बातों का ध्यान रखा गया है ताकि इनके सांस्कृतिक व मूल रूप में कोई परिवर्तन न हो। वर्तमान में धरोहर के क्यूरेटर डॉ. महासिंह पुनिया ने तो मानो अपने जीवन का ध्येय ही धरोहर के विस्तार को बना लिया है। उनका मानना है कि संस्कृति का कोई भी पहलू धरोहर में अछूता नहीं रहना चाहिए। इस विरासत को समेटने के उद्देश्य से डा. पुनिया अब तक कई हजार किलोमीटर की यात्राएं कर चुके हैं। उनके इस तप का ही परिणाम है कि आज तक लाखों लोग इस विरासत का अवलोकन कर चुके हैं। भविष्य में आगे भी इस र्अिभयान को विस्तार देने की कई योजनाओं पर काम चल रहा है, जिसके अर्न्तगत हरियाणा के विभिन्न भागों में खाया जाने वाला देसी भोजन व पेय पदार्थों को जनता तक पहुंचाने के प्रयास चल रहे हैं ताकि आज की पिज्जा प्रेमी संतति अपने देश व राज्य के ठेठ व शुद्ध खान-पान को भी जान पाए।
अभिनव
टिप्पणियाँ