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जातीय समीकरण हमारे देश की राजनीति की एक कड़वी सच्चाई हैं। राजनीतिक दल अपनी सुविधा के लिए इसका इस्तेमाल करते रहते हैं। लेकिन क्या मीडिया को भी इसी हवा में बह जाना चाहिए? लगभग सभी टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में बिहार चुनाव छाया हुआ है। सभी में जीत-हार की अटकलबाजी जातीय समीकरण और वोट बैंक के आधार पर हो रही है। मानो बिहार के चुनाव में कोई और मुद्दा है ही नहीं। सामाजिक सुधार की बड़ी-बड़ी बातें करने वाला हमारा मीडिया जाने-अनजाने इस बुराई को बढ़ावा देने में जुटा हुआ है। एक बड़े समाचार चैनल ने शाम की अपनी बहस में विषय रखा- ‘क्या दलित भाजपा पर भरोसा करेंगे?’ यही चैनल बिहार की अलग-अलग जातियों के स्वयंभू नेताओं के बयान लेकर ‘हवा का रुख’ बता रहा है। आमतौर पर जब चुनाव होते हैं तो न्यूज चैनल अपनी टीमें भेजकर ‘ग्राउंड रिपोर्ट’ देते हैं कि कहां पर क्या अच्छा काम हुआ या क्या काम नहीं हुआ। लेकिन बिहार के लिए कवरेज बिल्कुल अलग है। हर चैनल के संवाददाता जिले-जिले जाकर वहां के जातीय समीकरण का हिसाब-किताब बताने में जुटे हैं। सड़क, बिजली, पानी जैसे बुनियादी सवाल पूरे विमर्श से गायब हैं।
आज तक चैनल के संवाददाता ने बिहार भाजपा के नेता गिरिराज सिंह से पूछा कि असदुद्दीन ओवैसी भी अपने उम्मीदवार उतार रहे हैं, आपकी क्या प्रतिक्रिया है? जवाब में गिरिराज सिंह ने कहा, ‘चुनाव मैदान में ऐसे लोग आ रहे हैं जो अपने भड़काऊ भाषणों और शैतानी भरे बयानों के लिए जाने जाते हैं, इससे बिहार में चुनाव आयोग का काम चुनौतीपूर्ण हो गया है। पहले सिर्फ लालू जहर उगलते थे, अब ये भी वही काम करेंगे।’ चैनल ने इसे ‘गिरिराज सिंह का आपत्तिजनक बयान’ कहते हुए दिन भर चलाया। अब उनसे कौन पूछे कि इसमें किस बात की आपत्ति उन्हें नजर आ रही है।
कुछ दिन पहले संगीतकार ए.आर. रहमान के खिलाफ मुंबई की एक कट्टरपंथी सुन्नी संस्था ने फतवा जारी कर दिया। मामला देश के सबसे पसंदीदा फिल्म संगीतकार का था, लेकिन 2-3 दिन तक तो मानो किसी समाचार चैनल और उसके संपादक को हवा तक नहीं लगी। किसी ने अगर ये खबर दिखाई भी तो ऐसे जैसे कोई रोजमर्रा का मामला हो। क्या किसी हिंदू संगठन या हिंदू नेता के लिए भी मीडिया की प्रतिक्रिया इसी तरह की होती? हैरत की बात यह रही कि खुद को सेकुलर बताने वाली फिल्म इंडस्ट्री के किसी छोटे-बड़े चेहरे ने ए.आर. रहमान के समर्थन में एक बयान तक जारी नहीं किया। मीडिया भी मौन और तथाकथित बुद्धिजीवी भी मौन। ये वही लोग हैं जो पुणे के फिल्म संस्थान में एक नियुक्ति पर पूरे देश में हंगामा खड़ा करने की कोशिश करते हैं। शबाना आजमी ने तो यह तक कह डाला कि ‘मुझे पता है कि रहमान ऐसा कोई काम ही नहीं कर सकते, जिससे मुसलमानों को ठेस पहुंचती हो।’ मतलब यह कि कला के नाम पर हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करना ‘क्रिएटिविटी’ है और जब रहमान कठमुल्लों का शिकार बन रहे हैं तो ‘क्रिएटिविटी’ का तर्क गायब हो गया। मामला एक पंथ विशेष का था, शायद इसलिए लगभग सभी चैनलों ने बस रस्म अदायगी करने के लिए आधी-अधूरी खबर दिखा दी।
ऐसा ही एक मामला मुंबई में सामने आया। अंधेरी के सेंट जेवियर्स स्कूल में एक पादरी ने स्कूल के बच्चों के साथ यौन शोषण किया। इस समाचार पर मीडिया की संवेदनशीलता देखने लायक थी। 2 दिन से यह खबर आ रही थी, लेकिन कहीं कोई कवरेज नहीं थी। कहीं नीचे पट्टी में खबर चली भी तो सिर्फ यह कि स्कूल के प्रिंसिपल पर बच्चों के यौन शोषण का आरोप लगा है। न स्कूल का नाम, न प्रिंसिपल का। एनडीटीवी ही नहीं, लगभग सभी हिंदी-अंग्रेजी चैनलों ने सप्रयास इस तथ्य को छिपाया कि यह घृणित घटना एक मिशनरी स्कूल में हुई है। उस मिशनरी द्वारा जो कभी शिक्षा और कभी चिकित्सा का ढोंग करके देश भर में कन्वर्जन का अभियान चला रही है।
मीडिया में एक और गलत खबर ‘प्लांट’ कराने की कोशिश की गई। खबर आई कि सरकार ऐसा नियम बनाने जा रही है जिसके बाद हर किसी को ‘इंटरनेट चैटिंग’की ‘एप्लिकेशन्स’ जैसे व्हाट्सएप और हैंगआउट के संदेश कम से कम 90 दिन तक बचाकर रखने होंगे। झूठ का ये गुब्बारा फूटते भी देरी नहीं लगी। दरअसल यह एक विचार पत्र था, जो लोगों के सुझाव के लिए जारी किया गया था। लेकिन झूठ के इस गुब्बारे को फोड़ने का श्रेय मुख्यधारा मीडिया नहीं, बल्कि सोशल मीडिया को जाता है, जिस पर लोगों ने इस अफवाह की पोल बहुत जल्द खोलकर रख दी।
ऐसी ही अफवाहों और उसे उड़ाने वालों से निपटने की सीधी कीशिश महाराष्ट के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने की। उन्होंने झूठे तथ्यों के आधार पर लिखे राजदीप सरदेसाई के ‘खुले पत्र’ का जवाब दिया। अपने आप में यह अनोखा मामला था जब किसी बड़े पत्रकार के दुष्प्रचार अभियान का किसी मुख्यमंत्री ने तर्क और तथ्य के आधार पर जवाब दिया। सोशल मीडिया पर लोगों ने फड़नवीस का यह जवाब बेहद पसंद किया। इससे भी साबित होता है कि पक्षपाती पत्रकारों से लोग कितने उकता चुके हैं।
उधर दिल्ली में डेंगू और प्याज के मोर्चे पर केजरीवाल सरकार की नाकामी चर्चा में रही। डेंगू पर मीडिया की प्रतिक्रिया भी दिल्ली सरकार की तरह ही सुस्त रही। लेकिन मीडिया ने कमोबेश दिल्ली सरकार के दावों की सच्चाई जनता तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एबीपी न्यूज ने विस्तार से दिखाया कि कैसे डेंगू से ज्यादा सरकार का ध्यान विज्ञापनबाजी पर है। -नारद
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