|
उर्दू क्या एक बार फिर पाकिस्तान के लिए खलनायिका साबित होगी? क्या एकबार फिर यह पाकिस्तान की राष्टÑीय एकता को खंडित करेगी? उर्दू क्या एक बार फिर पाकिस्तान के अंदर भाषायी संप्रभुताओं के बीच घृणा व वैमनस्य का कारण बनेगी? क्या यह सही में सिर्फ मुहाजिरों यानी शरणार्थियों की भाषा है? उर्दू क्या सही में पाकिस्तान की बहुमत वाली आबादी पर थोपी जा रही है?
उर्दू के खिलाफ पाकिस्तान में राजनीतिक-भाषायी स्थितियां तेजी से न केवल जटिल बन रही हैं बल्कि खतरनाक होती जा रही हैं। उर्दू को मुहाजिरों यानी शरणार्थियों की भाषा करार दिया गया है। पाकिस्तान के अंदर मुहाजिरों के खिलाफ बड़ी तेजी के साथ घृणा व वैमनस्य का वातावरण बनता जा रहा है। कुछ दिन पूर्व ही मुहाजिरों के सबसे बड़े नेता ने मुहाजिरों के कत्लेआम को रोकने के लिए भारत सहित पूरी दुनिया से पाकिस्तान पर दबाव डालने और पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की थी। मुहाजिर पाकिस्तान के अंदर दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं। अगर विभिन्न भाषायी अस्मिताओं की ऐसी ही सक्रियता जारी रही तो निश्चित तौर पर उर्दू के खिलाफ राजनीतिक स्थितियां खतरनाक होने के साथ ही उर्दू बोलने वाले मुहाजिरों के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ सकती हैं। पंजाबी, सिंधी, सराइकी, पश्तो, बलूची जैसी भाषायी अस्मिताओं ने पाकिस्तान के शासकों को धमकी दी है कि अगर उर्दू को राष्टÑभाषा बनाया गया और उर्दू को जोर-जबरदस्ती से थोपा गया तो फिर पाकिस्तान की संप्रभुता की स्थितियां खतरनाक होंगी। वर्तमान में पाकिस्तान में सरकारी कामकाज की भाषा अंग्रेजी है। पाकिस्तान के अंदर सबसे ज्यादा बोली जानी वाली भाषा पंजाबी है, करीब 48 प्रतिशत लोग पंजाबी बोलते हैं, जबकि उर्दू मात्र आठ प्रतिशत लोग ही बोलते हैं।
ताजे बवाल की जड़ में पाकिस्तान सर्वोच्च न्यायालय का आदेश है। पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने पाकिस्तान सरकार को आदेश दिया है कि सरकारी कार्य की भाषा उर्दू को बनाया जाये यानी उर्दू को राष्टÑीय भाषा का दर्जा दिया जाये और उसे राष्टÑीय भाषा बनाया जाये। सर्वोच्च न्यायालय अपने आदेश में यहीं तक सीमित नहीं रहा बल्कि उसने कहा कि ‘उर्दू सुंदर भाषा है, अर्थपूर्ण भाषा है, उर्दू साहित्य बेहद संपन्न रहा है, उर्दू कई सौ साल तक सत्ता की प्यारी भाषा रही है।’ हालांकि अदालत के इस आदेश पर पाकिस्तान के शासकों ने अभी तक कोई अंतिम राय व्यक्त नहीं की है और न ही ऐसा कोई संकेत दिया है जिससे साफ हो जाये कि सही में उर्दू को पाकिस्तान की राजकीय भाषा बनाने की कोई सरकारी नीति भी है या फिर सरकार अदालत के आदेश का पालन करेगी।
पाकिस्तान के शासक इस प्रश्न पर प्रत्यक्ष तौर पर कोई राय भले ही न प्रकट कर रहे हों पर पिछले दरवाजे से उर्दू को राजकीय भाषा बनाने की कोशिशें काफी पहले से ही चल रही हैं। खासकर 1990 के दशक से वहां उर्दू को ऊपर रखने की राजनीतिक प्रक्रिया अप्रत्यक्ष तौर पर चली थी। सरकारी प्रशासन, सेना, शिक्षा और न्यायपालिका में उर्दू की तकनीकी शब्दावली बनाने और विकसित करने के लिए कई संस्थाएं गठित हुई थीं। ये संस्थाएं उर्दू के विकास में अभी भी लगी हुई हैं। अप्रत्यक्ष तौर पर उर्दू के विकास की नीति क्या हो सकती है? इसका उत्तर यह हो सकता है कि धीरे-धीरे पाकिस्तान में उर्दू की सर्वश्रेष्ठता को स्थापित किया जाए। पर समस्या यह है कि उर्दू पाकिस्तान की किसी भी क्षेत्र की मूल भाषा नहीं है, उर्दू सिर्फ कराची, इस्लामाबाद जैसे शहरों की भाषा है। पाकिस्तान के रईस और पढेÞ-लिखे लोग उर्दू में बात करना अपनी शान के खिलाफ मानते हैं, वे अंग्रेजी बोलते हैं। जहां तक पाकिस्तान के दूरदराज इलाकों की बात है तो वहां पर उर्दू का नामोनिशान तक नहीं है। पाकिस्तान के ग्रामीण इलाकों में पंजाबी, सिंधी, बलूची, सराइकी, पश्तून आदि क्षेत्रीय भाषाओं का आधिपत्य है।
उर्दू को राष्टÑीय भाषा बनाने के प्रश्न पर पाकिस्तान का मीडिया भी दो भागों में बंट गया है। उर्दू मीडिया जहां उर्दू को राष्टÑभाषा बनाने का समर्थन कर रहा है वहीं गैर उर्दू मीडिया उर्दू को राष्टÑीय भाषा बनाने का विरोध कर रहा है। अंग्रेजी और अन्य भाषायी मीडिया का कहना है कि पाकिस्तान को अंधेरगर्दी, पिछड़ेपन में ढकेलने की साजिश हो रही है। पूरी दुनिया जहां अंग्रेजी को अपनाकर विश्व में अवसर प्राप्त कर अपने विकास को सुनिश्चित कर रही है वहीं पाकिस्तान उर्दू को राष्टÑीय भाषा बना कर अपना ही बंटाधार करने में लगा हुआ है।
1950 से लेकर 1980 के दशक तक उर्दू को राष्टÑ भाषा बनाने पर जोर था, भावनाएं भी काफी मुखर थीं। पर आज के दौर में यह निरर्थक बन चुका है। खासकर बलूची मीडिया और बलूची भाषाई लोग कहते हैं कि मुहाजिरों यानी शरणार्थियों की भाषा को राष्टÑभाषा क्यों बनाया जाना चाहिए? मुहाजिर अल्पसंख्यक हैं, उनकी भाषा को बहुसंख्यकों पर थोपा जा रहा है। डॉन अखबार के संपादक कहते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का आदेश बेवजह का है, उर्दू न तो सुंदर भाषा है और न ही सभ्य भाषा है। पाकिस्तान और उर्दू का इतिहास देखेंगे तो साफ हो जायेगा कि उर्दू को लेकर पाकिस्तान में नाराजगी, आक्रोश, अलगाववाद उस देश के जन्मकाल से ही रहा है। पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना ने उर्दू को राष्टÑभाषा घोषित किया था। जिन्ना ने जैसे ही उर्दू को राष्टÑभाषा घोषित किया वैसे ही कई क्षेत्रीय अस्मिताएं विरोध में खड़ी हो गई थीं। प्रमुख थे सीमांत गांधी। सीमांत गांधी न केवल उर्दू को राष्टÑभाषा बनाने को लेकर विरोध में खड़े थे बल्कि उन्होंने पाकिस्तान की अवधारणा को भी नकारा था, उन्होंने पाकिस्तान से अलग संप्रभुता के लिए आंदोलन किया था। पंजाबी, बलूची, पश्तुन, बंगला और सिंधी भाषायी लोगों के विरोध के बाद पाकिस्तान के अंदर उर्दू की सर्वश्रेष्ठता की जिद छोड़ दी गयी थी। फिर भी उर्दू विरोधी राजनीतिक प्रक्रियाएं शांत नहीं हुई थीं। इसलिए क्योंकि उर्दू की सर्वश्रेष्ठता के सामने क्षेत्रीय भाषाएं न केवल पिछड़ रही थीं बल्कि अपमानित भी हो रही थीं। पंजाबी, सिंधी, पश्तून, बलूची भाषायी लोग कहते हैं कि उर्दू के कारण उनकी भाषा, उनकी संस्कृति खतरे में है।
पाकिस्तान के लिए उर्दू तब खलनायिका साबित हुई जब बंगलादेश का निर्माण हुआ। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की भाषा बंगला थी। पर जैसे ही पाकिस्तान का जन्म हुआ वैसे ही बंगला भाषा और बंगलाभाषी आबादी पर पाकिस्तान के शासकों का अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न और अपमान की घटनाएं जोर पकड़ती गई थीं। उस समय पाकिस्तान की सेना पर उर्दू हावी थी। पाकिस्तान की सेना ही नहीं बल्कि पाकिस्तान की सरकार भी चाहती थी कि पूर्वी पाकिस्तान से बंगला भाषा का नामोनिशान मिट जाये और उर्दू वहां की एकमात्र भाषा बन जाये। पूर्वी पाकिस्तान की आबादी को हाशिये पर भी ढकेल दिया गया था। ऐसी स्थिति में पूर्वी पाकिस्तान की आबादी के बीच उर्दू को लेकर विखंडनवादी सोच बढ़ी, उर्दू और पाकिस्तान के खिलाफ आंदोलन तेज हुआ। आंदोलन को दबाने के लिए पाकिस्तान की सेना ने कत्लेआम पर कत्लेआम किए। भारत के हस्तक्षेप पर बंगलादेश का निर्माण हुआ, बंगलादेश का नाम भी बंगला भाषा पर ही रखा गया था।
जिस पाकिस्तान का निर्माण इस्लाम और उर्दू के नाम पर हुआ था उसी पाकिस्तान के लिए आज उर्दू और इस्लाम खलनायक साबित हुए हैं। इस्लाम के कई फिरकों में विखंडनवादी प्रक्रियाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। बलूची, सिंधी, पश्तून अस्मिताएं अपने लिए अलग देश मांग रही हैं। उर्दू की वर्चस्वता के खिलाफ विरोध की राजनीतिक प्रक्रियाएं तेज हुई हैं। यह सही है कि उर्दू केवल पाकिस्तान के लिए ही खलनायक साबित नहीं हुई है, बल्कि भारत के लिए वह ऐसी ही है। भारत के विभाजन में उर्दू भाषी मुसलमानों का योगदान काफी मुखर और निर्णायक था। उर्दू कभी भी भारत की भाषा नहीं रही है। उर्दू को लेकर खुशफहमियां भी गहरी रही हैं। तथ्यारोपण यह है कि उर्दू भारत की भाषा है। उर्दू अगर भारत की भाषा है तो फिर उर्दू की लिपी अरबी क्यों है, उर्दू के अधिकतर शब्द अरबी क्यों हैं? सच तो यह है कि मुगलों ने अपनी सत्ता को स्थायी रखने के लिए उर्दू भाषा चलवाई थी। आठ सौ साल के मुगल शासन काल में उर्दू फली-फूली। लोगों ने मजबूरी में उर्दू को स्वीकार किया था। कहना न होगा, पाकिस्तान की बुनियाद ही अब पाकिस्तान की कब्र खोद रही है। -विष्णुगुप्त
टिप्पणियाँ