|
बिहार के विधानसभा चुनाव इस समय सबके कौतुक का केन्द्र हैं। आप बिहार के हैं, और बिहार में रहते हैं, तो आपका ज्यादातर समय इसी चर्चा में जाता है कि इन चुनावों में क्या होगा। अगर आप बिहार के हैं, लेकिन बिहार से बाहर रहते हैं तो आपका अधिकांश समय घर से मिल रही सूचनाओं का, अपनी समझ के साथ तालमेल बैठाने में जाता है। जो बिहार के नहीं हैं लेकिन इस चुनावी मेले को देखने बिहार आए हुए हैं, उन्हें यह सब एक कौतुक जैसा लग रहा है।
इस सारे विमर्श का निचोड़ क्या है? भविष्यवाणी करने का यह समय नहीं है। समय सिर्फ चलती चर्चा को भांपने और प्रत्यक्ष दिखते प्रमाणों को पहचानने का है।
कोई शक नहीं कि बिहार को समझने के लिए थोड़ी गहराई में उतरना जरूरी है। इस गहराई में उतरें, उसके पहले दो प्रत्यक्ष प्रमाणों की बात करना जरूरी है। एक जैसे यह कि बिहार के लोगों ने असदुद्दीन ओवैसी का नाम मोटे तौर पर तब तक नहीं सुना था, जब तक मीडिया ने उन्हें नहीं सुनाया था। मीडिया से भी जयादा बौखलाहट थी नीतीश-लालू कैंप में। लालू प्रसाद यादव नि:संदेह बहुत उद्भट संवादकार हैं। हर विषय पर उनके पास कोई न कोई अजीबोगरीब नुस्खा हमेशा तैयार रहता है। वह हर मर्ज की दवा के तौर पर भाषण देने में आगे रहते हैं। लेकिन ओवैसी? ओवैसी का नाम आते ही लालू प्रसाद यादव की बोलती बंद हो जाती है।
उधर नीतीश कुमार हैं। वे लालू प्रसाद की टक्कर के खिलंदड़े भाषणबाज नहीं हैं। जो भी बोलते हैं, पूरा होमवर्क करके बोलते हैं लेकिन ओवैसी के नाम पर 'होमवर्क' तो दूर, घिग्घी ही ऐसी बंधी है कि तमाम चिर-परिचित अहंकार भी उसे नहीं छिपा पा रहा है। नीतीश ने जवाब में दूसरी कतार के नेताओं से कानाफूसी टाइप की बातें पेश करने की कोशिश की। जैसे शिक्षामंत्री पी.के. शाही ने दावा किया है कि ओवैसी को भाजपा ने पैसे दिए हैं, मुस्लिम वोट काटने के लिए। दिग्विजय सिंह इन दोनों से ज्यादा बहादुर निकले, लेकिन वे उस रेस पर कमेंट्री कर रहे हैं जिसमें न वे खेल रहे हैं न अम्पायर हैं, न बारहवें खिलाड़ी। बिहार चुनाव के इस पांच दिन के मैच में कांग्रेस का खोमचा स्टेडियम के बाहर लगा है। दिग्विजय के जोर से आवाज देने से मैच पर कोई फर्क नहीं पड़ना है।
लालू-नीतीश-दिग्विजय तिकड़ी की तरफ देखें तो ऐसा लगेगा जैसे सारा चुनाव इनके और ओवैसी के बीच ही होना है। यह खेमा ओवैसी को भाजपा से जुड़ा हुआ दिखाने पर आमादा है, तो दूसरी तरफ ओवैसी ने कह दिया है अगर कोई उन्हें भाजपा या आरएसएस से जुड़ा हुआ ठहराएगा, तो वह उसके खिलाफ हैदराबाद में आपराधिक मामला दायर करा देंगे।
बात वोट काटने की है। महागठबंधन को सिर्फ यह डर नहीं है कि ओवैसी उनसे मुस्लिम मतों का एक बड़ा हिस्सा छीन लेंगे। खुद जदयू के एक बड़े नेता निजी बातचीत में कहते हैं कि ओवैसी की पार्टी का चुनाव लड़ना महागठबंधन के लिए संजीवनी बूटी की तरह भी है। उनका कहना है- 'अब अगर महागठबंधन चुनाव हारता है, तो लालू-नीतीश आसानी से इसका दोष ओवैसी पर मढ़ सकते हैं। अगर ओवैसी बीच में न हो, तो न नीतीश के लिए अपनी
हार कबूल करना संभव रहेगा, न लालू के
लिए। कांग्रेस तो पहले ही नाममात्र की लड़ाई लड़ रही है।'
ओवैसी कौन से वोट काट रहे हैं? जो लोग बिहार के बाहर रहते हैं, उनके लिए आसान सा जवाब है- मुस्लिम वोट। लेकिन बिहार के भीतर से देखें, तो यह वे वोट हैं, जिनमें बहुत बड़ी संख्या में राशनकार्डशुदा बंगलादेशियों की है।
और बिहार में बंगलादेशी घुसपैठिए सेकुलर राजनीति का 'हॉल मार्क' बन चुके हैं। गैर घुसपैठिए वोटरों के मुद्दे अलग हैं, घुसपैठियों के अलग। यह वह जमीनी सच है जो मुस्लिम वोट बैंक के ध्रुवीकरण या वोटों के कटने के तमाम सिद्धांतों को जमीनी स्तर पर नकार देता है।
हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने पश्चिम बंगाल से सटे मुसलमान-बहुल किशनगंज और कुछ अन्य विधानसभा क्षेत्रों में अपना ध्यान केन्द्रित किया है। यदि वे मुसलमान वोट को बांटने में सफल रहे तो इसका नुकसान भी महागठबंधन को ही होगा। किशनगंज और उसके आसपास के लगभग डेढ़ दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमान मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं। इनमें बंगलादेशी मुसलमान घुसपैठियों की बहुत बड़ी संख्या है। ये बंगलादेशी घुसपैठिए किस राजनीतिक दल को वोट करेंगे, इसका निर्धारण स्थानीय मुसलमान नेता करते हैं। इसके बदले वे नेता उन्हें राशन कार्ड बनवा कर देते हैं और किसी सरकारी जमीन पर उन्हें बसाने के लिए माहौल बनाते हैं। पहले ये घुसपैठिए कांग्रेस को वोट करते थे। इसके बाद इन घुसपैठियों ने लालू प्रसाद को अपना समर्थन दिया। लालू भी उन्हंे बचाते रहे। लालू के राज में विधानसभा अध्यक्ष रहे दिवंगत गुलाम सरवर तो कहते थे कि बिहार क्या पूरे भारत में एक भी बंगलादेशी घुसपैठिया नहीं है। यही कारण है कि आज किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार, अररिया जैसे जिलों में मुसलमानों की आबादी बढ़ गई है। इसी मुस्लिम आबादी के बल पर ओवैसी बिहार विधानसभा में अपना खाता खेलना चाहते हैं। इससे महागठबंधन और तीसरे मोर्चे के नेता परेशान हैं। उन्हें लग रहा है कि यदि मुसलमानों का वोट कटा तो भाजपा और उसके सहयोगियों को ही लाभ होगा। इसलिए पहले तो इन लोगों ने ओवैसी को चुनाव लड़ने से ही रोकने का प्रयास किया, लेकिन ओवैसी माने नहीं। इसके बाद एक अंग्रेजी अखबार में खबर छपवाई गई कि ओवैसी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नई दिल्ली में भेंट हुई और उसके बाद ही ओवैसी ने बिहार के चुनावी मैदान में उतरने का एलान किया। इस खबर को भाजपा ने बिल्कुल निराधार बताया है और यह भी कहा है कि इस झूठी खबर के लिए उस अखबार के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। वहीं जदयू महासचिव के.सी. त्यागी ने इस मामले पर तुरन्त प्रधानमंत्री कार्यालय से स्पष्टीकरण की मांग कर दी। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ओवैसी की पार्टी के चुनाव लड़ने से महागठबंधन के नेता कितना असहज महसूस कर रहे हैं। इस खबर का एकमात्र मकसद था मुसलमान मतदाताओं को यह बताना कि ओवैसी भाजपा की मदद के लिए बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं। दूसरा प्रत्यक्ष प्रमाण है महागठबंधन के प्रचार से लालू प्रसाद की तस्वीरों का गायब होना। पटना ही नहीं, बिहार भर के शहरी इलाके बड़ी होर्डिंग्स से पटे पड़े हैं। लेकिन महागठबंधन की होर्डिंगें से, पोस्टरों से लालू प्रसाद की तस्वीरें लगभग पूरी तरह नदारद हैं। कहने को कहा जा रहा है कि महागठबंधन यह चुनाव ही नीतीश कुमार के नाम पर लड़ रहा है, लेकिन अंदरखाने यह भी कहा जा रहा है कि खुद महागठबंधन लालू प्रसाद को एक बोझ मानकर चल रहा है। राजद के नेताओं का कहना है कि लालू प्रसाद भी समझ सब रहे हैं, लेकिन कोई बखेड़ा खड़ा करने के पहले वह अपने बेटों को विधायक बनवा देना चाहते हैं। पत्नी और पुत्री की हार से लालू प्रसाद को जो सदमा लगा था उससे बाहर निकलने का उनके पास यह संभवत: अंतिम अवसर है।
अब तक के चुनावी माहौल को देखें तो इस बार कांग्रेस अपने इतिहास में बिहार में सबसे कम विधानसभा क्षेत्रों (41) में चुनाव लड़ रही है। 35 वर्ष तक बिहार में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस के लिए इससे दु:खदायी स्थिति और क्या हो सकती है कि जिन लालू प्रसाद ने 1990 में बिहार से कांग्रेस का तम्बू उखाड़ दिया था अब वही कांग्रेस लालू की पिछलग्गू बन गई है। एक विडम्बना और भी है कि जो लालू प्रसाद कांगे्रस विरोध की राजनीति करते हुए बिहार से लेकर केन्द्र की राजनीति तक छा गए थे, वे अब अपने राजनीतिक वजूद को बचाने के लिए कांग्रेस के 'हाथ' की मदद मांग रहे हैं।
राजग के लिए सुखद बात यह है कि अभी तक इसके वोट में कहीं सेंधमारी नहीं हुई है। अब तक जिन विधानसभा क्षेत्रों के लिए टिकटों का बंटवारा हुआ है वहां कुछ बागियों ने आवाज जरूर उठाई है। पर समय के साथ ऐसे लोगों की आवाज स्वत: दब जाती है। इसलिए लोग उनकी बात ज्यादा कर नहीं रहे हैं। राजग से ज्यादा महागठबंधन में विद्रोहियों की संख्या अधिक है। तीसरे मोर्चे में अधिकतर राजद व जदयू से छिटके हुए लोग हैं और इनका आधार भी वही है जो महागठबंधन का है। इसलिए तीसरा मोर्चा जितना वोट काटेगा उसका सीधा नुकसान महागठबंधन के उम्मीदवारों को ही होगा। निश्चित रूप से इसका लाभ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मिलेगा।
इससे पहले महागठबंधन ने प्रधानमंत्री के डी.एन.ए. वाले बयान को गरमाने का प्रयास किया था। इसी के तहत लोगों के बाल और नाखून काटकर दिल्ली भेजने की कवायद की गई, लेकिन बिहार के लोगों ने उसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। दरअसल, बिहार में बाल और नाखून एक साथ कटवाने को अच्छा नहीं माना जाता है।
बिहार की राजनीति भी प्रदेश में बहने वाली नदियों के मिजाज की तरह ही है। गंगा के इलाके का राजनीतिक मिजाज अलग है, तो कोसी, सोन, बागमती व गंडक के इलाके का राजनीतिक स्वाद कुछ और। इन सबमें कुछ समानता है तो वह है जाति। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बिहार में सामाजिक समीकरण जिस भी दल के पक्ष में होगा उसका पलड़ा भारी रहेगा। फिलहाल इस मामले में दोनों बड़े गठबंधन बराबर दिख रहे हैं, लेकिन राजग के पक्ष में जो एक बात जाती है वह है उसके प्रति युवाओं का झुकाव। 2010 के विधानसभा चुनाव और 2015 के विधानसभा चुनाव के बीच मतदाताओं की संख्या में एक करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है। 2010 में 5.51 करोड़ मतदाता थे, इस बार 6.68 करोड़ हैं। 6.68 करोड़ में 3.79 करोड़ युवा मतदाता हैं। युवाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू अभी भी बरकरार है। इसको लेकर राजग में उत्साह है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव के समय ही वंचित समुदाय की सबसे मजबूत जाति पासवान को अपने पाले में कर लिया था, तो अति पिछड़े में कुशवाहा को। इस विधानसभा चुनाव के पहले जीतनराम मांझी को अपने पाले में लाकर भाजपा ने एक बड़ी लड़ाई पहले ही जीत ली है। मांझी भुइयां मुसहर जाति से आते हैं और कोसी तथा मध्य बिहार के इलाके में इस जाति का अच्छा-खासा वर्चस्व है। राजनीतिकतौर पर ये लोग भी सजग हैं। भाजपा का भी मुसहर व पासवान जाति में अच्छी पैठ है। अगड़े पूरी तरह से भाजपा के साथ दिख रहे हैं। राजग ने अतिपिछड़ों और पिछड़ों के भी अच्छे वोट का इंतजाम कर लिया है। भाजपा ने अब तक 65 अगड़ों को टिकट दिया है। पिछड़ों में यादव को 19 तथा वैश्य को 19 टिकट दिया है। वैश्य भाजपा के परंपरागत मतदाता माने जाते हैं।
बिहार क्या अब तो देश के एक बड़े भाग में कांग्रेस अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। 1989 से पहले बिहार में मुसलमान मतदाता कांग्रेस के साथ होते थे। भागलपुर दंगे (1989) के बाद बिहार के मुसलमान कांग्रेस से बिदक गए। इसका नतीजा यह हुआ कि 1990 के चुनाव में जनता परिवार ने कांगे्रस को पटखनी दे दी और लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने। इसके बाद लालू ने कांग्रेस के बचे-खुचे जनाधार को भी समाप्त कर दिया। कांग्रेस की हालत इतनी पतली हो गई कि पिछले चुनाव में उसे सिर्फ चार सीटें मिली थीं। कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर भी सिमरी बख्तियारपुर से चुनाव हार गए थे।
मुसलमान वोट पर अब नीतीश व लालू दोनों का दावा है। मुसलमान वोट बंट न जाए इसीलिए इन्होंने अपने साथ कांग्रेस को भी रखा है। महागठबंधन में जहां कांग्रेस के उम्मीदवार हैं वहां के मुसलमान उन्हें कितना स्वीकार कर पाएंगे, यह भी विचारणीय प्रश्न है। ऐसे में इसका लाभ तीसरे मोर्चे या निर्दलीय उम्मीदवारों को मिल सकता है।
भाजपा की भी नजर मुसलमान वोट पर है, लेकिन मुसलमान उसको वोट करेंगे इसकी संभावना कम ही दिखती है। असल में बिहार भाजपा के पास ऐसा कोई मुसलमान चेहरा नहीं है जिसकी स्वीकार्यता मुसलमानों में हो। भाजपा अति पिछड़ों को भी अपनी ओर करने का जी-तोड़ प्रयास कर रही है। प्रधानमंत्री के नाम पर भाजपा ने अति पिछड़ा कार्ड खेला है। इसका लाभ भी मिलता दिख रहा है। लोग इस बात की चर्चा जोर-शोर से कर रहे हैं कि भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के रूप में देश को पिछड़े वर्ग का एक प्रधानमंत्री दिया है। एक बात और है जो भाजपा के पक्ष में जाती दिख रही है। भाजपा ने चुनाव की घोषणा से काफी पहले ही 'परिवर्तन यात्रा', 'परिवर्तन रैली', 'परिवर्तन रथ', 'महासंपर्क अभियान' आदि कार्यक्रमों के जरिए अपना चुनाव प्रचार शुरू कर दिया था। इसका भी लाभ राजग को मिल सकता है।
कोसी क्षेत्र में राजद के बागी सांसद पप्पू यादव का अच्छा-खासा प्रभाव है। वे महागठबंधन के विरुद्ध हैं। उनको भी अपना राजनीतिक वजूद चुनाव में दिखाना है। इसका मतलब है कि वे भी महागठबंधन को ही नुकसान पहुंचाने वाले हैं।
– ज्ञानेन्द्र बरतरिया/अरुण कुमार सिंह साथ में पटना से नीना मिश्रा
राजग
अनुकूल बातें
– केंद्र में सरकार
-युवाओं में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जादू
– बिहार के दो बड़े दलित चेहरे रामविवास पासवान व जीतनराम मांझी का साथ
– केंद्र की ओर से बिहार को दिया गया सवा लाख करोड़ का पैकेज
– समर्पित कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज
– विरोधी के मुकाबले प्रचार में आगे
कमजोरी
– पिछड़ों व अति पिछड़ों में कम पैठ
– पार्टी में अंतर्विरोध
– अगड़ी जाति के नेता हाशिए पर
महागठबंधन
अनुकूल बातें
– पिछड़ों और अति पिछड़ों में पैठ
– राज्य के दो पिछड़े चेहरे लालू व नीतीश का साथ होना
– नीतीश कुमार की विकासवादी छवि
कमजोरी
– नीतीश कुमार और लालू का साथ
– प्रचार में राजग से पीछे
– तीसरे मोर्चे के द्वारा महागठबंधन के वोट में सेंधमारी
– भाजपा के मुकाबले नेताओं की कमी
– हर मुद्दे पर केंद्र का विरोध
टिप्पणियाँ