|
रबी में कहावत है कि ‘दोगलों का संग कभी मत करो। और यदि बचना संभव न हो तो कम से कम उनका भरोसा मत करो।’ सीरिया में जो प्रहसन जारी है, और जिस प्रकार मंच और नेपथ्य से सारा ताना-बाना बुना जा रहा है उससे कदम-कदम पर यह कहावत चरितार्थ होती है। कुछ दिन पहले सारी दुनिया के समाचार जगत में एक चित्र छाया रहा। एक तीन वर्षीय सीरियाई बालक एलन कुर्दी का समुद्र किनारे पड़ा शव संवेदनशील हृदयों को व्यथित कर रहा था। इस चित्र ने एशिया के पश्चिमी छोर पर जारी भीषण मानवीय त्रासदी को एक बार फिर चर्चाओं के केंद्र में ला दिया। सीरिया के आंकड़े भयावह हैं। वर्षों से जारी खून-खराबे के चलते सीरिया की आधी आबादी शरणार्थी बन चुकी है। एक लाख 90 हजार लोग मारे जा चुके हैं और एक करोड़ 80 लाख लोगों को तत्काल मानवीय सहायता की आवश्यकता है। यूरोप में जनवरी से अगस्त तक वैध रूप से पहुंचने वाले शरणार्थियों की संख्या साढ़े तीन लाख है। लेबनान में 10 लाख सीरियाई शरणार्थी हैं, जो उसकी आबादी का 26 प्रतिशत होता है। जॉर्डन अपनी आबादी के 10 प्रतिशत, 6 लाख 18 हजार शरणार्थियों को आसरा दे रहा है। तुर्की में 10 लाख 60 हजार, इराक में सवा 2 लाख, और मिस्र में लगभग डेढ़ लाख सीरियाई सिर छुपाए हुए हैं। अब बात सबसे रईस अरबों की। कतर, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और कुवैत ने एक भी शरणार्थी स्वीकार नहीं किया है। हां, सऊदी अरब ने इन सीरियाई शरणार्थियों के लिए जर्मनी में दो सौ मस्जिदें बनवाकर देने की इच्छा जरूर जताई है। दुनिया जानती है कि अगर बन सके, तो ये दो सौ नए वहाबी अड्डे होंगे। सनद रहे कि इस्लामिक स्टेट वहाबी सोच की ही पैदाइश है।
आइये, खून रंगे हाथों की गिनती शुरू करते हैं। इस्लामिक स्टेट की बर्बरता सारी दुनिया देख रही है। इसके सबसे दुर्दांत लड़ाके सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी के पुराने लोग हैं। वही सद्दाम हुसैन, जिसने शिया बहुल इराक को अपने सुन्नी शासन में जूते के नीचे दबाकर रखा और गांव के गांव धरती से मिटा दिए। सद्दाम के पतन के बाद शिया रक्त के प्यासे बाथ पार्टी के सिपाहियों को बगदादी का खूनी लश्कर रास आ गया। और उनको मौका दिया सीरिया के शिया तानाशाह बशर-अल-असद ने। साल 2011 का बसंत। अरब जगत में ‘अरब स्प्रिंग’ या गुलाबी क्रांति की गहमा-गहमी चल रही थी। सीरिया भी सुर्ख हो रहा था। असद ने अपने लोगों की बात सुनने के स्थान पर सेना की संगीनें उनकी छातियों पर टिका दीं। असद के खिलाफ, और वास्तव में शियाओं के खिलाफ, बगदादी और उसके जैसे मैदान में उतर आए।
इसी साल मई के महीने में तुर्की से अधिकृत खबर आई कि तुर्की और सऊदी अरब ने असद के खिलाफ लड़ रहे सुन्नी लड़ाकों को सहायता देने के लिए हाथ मिला लिया है। इन सुन्नी लड़ाके गुटों में से इस्लामिक स्टेट भी एक है। विडम्बना देखिये, सीरिया में जिन जिहादियों पर अमरीका बम बरसा रहा है, उन्हीं जिहादियों को अमरीका के ही दो सहयोगी, लोकतांत्रिक तुर्की और तानाशाह सऊदी अरब हथियार, पैसा और दूसरी सहायता दे रहे हैं। प्रकट रूप से यह सहायता इस्लामिक स्टेट के प्रतिस्पर्धी सुन्नी गुट जैश-अल-फतह और जबत-अल-नुसरा को जा रही है। लेकिन, इन तंजीमों के विचारों और क्रियाकलापों में वे सारे तत्व मौजूद हैं जो बगदादी के गुर्गों में हैं। छुपे रास्तों से तुर्की, कतर और सऊदी अरब इस्लामिक स्टेट की भी मदद कर रहे हैं। सुन्नी सत्ता के इन पैरोकारों के हित सीरिया में अमरीकी और पश्चिमी हितों से टकरा रहे हैं। साल भर पहले अमरीकी राष्टÑपति बराक ओबामा ने अमरीकी रणनीति की ओर इशारा किया था, जिसके अंतर्गत सीरिया में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ने वाले गुटों को मदद दी जानी थी। यह योजना धरातल पर उतरी मई 2015 में, और महीने भर बाद ही अमरीका के अरब सहयोगियों ने इस रणनीति को आधिकारिक रूप से पलीता लगा दिया। अमरीका अनिर्णय में रहा और दो पुराने विरोधी सुन्नी चरमपंथ के समर्थन में एक हो गए। दरअसल तुर्की के राष्टÑपति और सऊदी अरब के पूर्व सुल्तान मरहूम अब्दुल्ला के बीच अविश्वास की गहरी खाई थी। कारण था तुर्की का मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड को समर्थन देना। मुस्लिम ब्रदरहुड सऊदी अरब की सुल्तानशाही को अखिल इस्लामवाद और अरब एकता में रोड़ा मानता है। जब मिस्र में चुनाव हुए तो सत्तासीन होने वाले गठबंधन में मुस्लिम ब्रदरहुड को भी महत्वपूर्ण हिस्सा मिला। नवलोकतंत्र मिस्र इस्लामिक कट्टरपंथ की राह पर चल पड़ा। उसी दौरान दुनिया ने मिस्र से निकले ‘शौहर को मृतक पत्नी के साथ विदाई रूपी सहवास का अधिकार’ जैसे वाहियात इरादे और फतवे देखे। आखिरकार सेकुलर तबियत वाली (वास्तव में तानाशाह) मिस्र की सेना ने इस सरकार को उखाड़कर फेंक दिया।
कट्टरपंथी लोकतंत्र समर्थक (ब्रदरहुड और दूसरे) और कट्टरपंथी सेना समर्थक सड़कों पर आमने-सामने आ गए। परिस्थितियां बदल गयी थीं। तुर्की और सऊदी अरब दुविधा में थे। फिर जब उन्होंने असद की शिया तानाशाह सत्ता को उखाड़ फेंकने के अमरीकी संकल्प में परिवर्तन होता देखा तो अमरीका और पश्चिम की सारी चिंताओं को धत्ता बताते हुए सुन्नी आतंकवाद को और परवान चढ़ाने के लिए हाथ मिला लिए। सऊदी अरब की अमरीका से और भी नाराजगियां हैं। उसे लग रहा है कि अमरीका पश्चिम एशिया के शिया-सुन्नी संतुलन को बिगाड़ रहा है। और सीरिया और उत्तर-पश्चिमी ईराक में इस्लामिक स्टेट को कमजोर करने के लिए शिया ताकत के रूप में ईरान को उभरने का मौका दे रहा है। तुर्की को अपने दक्षिण में स्थित पेशमार्गा (शिया) अलगाववाद खड़ा होने का खतरा दिखाई दे रहा है। इसलिए तुर्की की खुफिया एजेंसियां हर उस आतंकी संगठन के साथ खड़ी हैं जो शिया ताकत को कुचलने की कोशिश कर रहा है।
अमरीका की स्थिति ‘उगलत-निगलत पीर घनेरी’ जैसी है। सीआईए और यूरोप की कई खुफिया संस्थाओं ने कुछ साल पहले असद की तानाशाही को चुनौती देने के लिए सुन्नी चरमपंथियों को हथियार और प्रशिक्षण देना शुरू किया था। लेकिन शिकार के लिए जो शेर लाया गया था वह आदमखोर हो चुका है। अमरीकी देख पा रहे हैं कि सीरिया दूसरा अफगानिस्तान और इस्लामिक स्टेट तालिबान का बाप बनने की कगार पर है। तालिबान के पास न तो इस्लामिक स्टेट जैसी तकनीक थी और न ही इस्लामिक स्टेट जितना पैसा। तेल भंडारों के मुहानों पर बैठा इस्लामिक स्टेट शिया-सुन्नी बारूद और पेट्रो डालर की मदद से भस्मासुर होने को है।
अरब-मुस्लिम जगत की इन प्रतिद्वंद्विताओं का विस्तार सीरिया और इराक तक सीमित नहीं है। इसके और भी मोर्चे हैं। जंग की एक नयी जमीन है यमन। 5000 जानें जा चुकी हैं। यमन पर अपना सिक्का जमाने के लिए यमन की सरकार और कबीलाई लड़ाके यमन रिवोल्युशनरी कमेटी, सालेह समर्थकों और हौती लड़ाकों के विरुद्घ लड़ रहे हैं। यहां पर भी शिया-सुन्नी ताकतों की जोर-आजमाइश जारी है। सरकारी सेनाओं के समर्थन में खड़े हैं सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कुवैत, मिस्र, जॉर्डन, कतर, मोरक्को और सूडान। बाहर से साथ देने वालों में हैं अमरीका और पाकिस्तान। सरकार विरोधी सालेह समर्थकों के साथ खड़े हैं ईरान और उत्तर कोरिया। यमन में सऊदी अरब की वायुसेना ईरानी प्रभाव को समाप्त करने के लिए हौती विद्रोहियों पर बम बरसा रही है। 80 के दशक में यमन में तेल की खोज हुई और यमन ताकतवर होने लगा। चूंकि सऊदी अरब और यमन में सीमा विवाद रहे हैं, इसलिए सऊदी अरब अदने से यमन को अस्थिर बनाये रखने में रुचि लेता रहा है। ये खेल मजे से चलता रह सकता था, लेकिन जब यमन की अस्थिरता के बीच ईरान का प्रभाव वहां बढ़ने लगा, तो समीकरण बदल गए। अब कसाई को बकरे की फिक्र हो रही है।
पाकिस्तान, जो जुल्फिकार अली भुट्टो के जमाने से सऊदी अरब का पिट्ठू रहा है, इस छायायुद्ध में सुन्नी ताकतों का साथ दे रहा है। सीरिया का खून-खराबा लेबनान तक भी पहुंच गया है। सुन्नी आतंकियों के समर्थक और विरोधी, लेबनान की धरती पर आकर एक-दूसरे पर हमले कर रहे हैं। परिणामस्वरूप लेबनान के शिया असद के समर्थन में और सुन्नी इस्लामिक स्टेट के समर्थन में एक-दूसरे पर तलवारें भांज रहे हैं। यह लड़ाई त्रिपोली, सिडोन, अक्का, अरसल और बेरूत के इलाकों में पहुंच चुकी है। अगस्त 2015 तक 700 जानें जा चुकी थीं। लेबनान के सुन्नी कट्टरपंथियों के साथ इस्लामिक स्टेट, अल-नुसरा, फतह-अल-इस्लाम और सऊदी अरब आ जुटे हैं। वहीं दूसरी ओर असद समर्थकों के पीछे ईरान समर्थक आतंकी संगठन हिज्बुल्ला, लेबनान कम्युनिस्ट पार्टी, सीरिया, ईरान, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और अमरीका खड़े हैं।
अब लौटते हैं, दुर्भाग्य के मारे बालक एलन कुर्दी पर। एलन कुर्दी के पिता ने अपनी पत्नी और बच्चों की मृत्यु के लिए कनाडा की सरकार को दोषी ठहराया कि उसने शरण देने की उसकी याचिका पर ध्यान नहीं दिया। इस मौके को कनाडा की अल्पसंख्यक (मुस्लिम) वोटों की भूखी कुछ राजनैतिक ताकतों ने लपक लिया और कनाडा सरकार की निंदा शुरू कर दी। यूरोप के कई देशों ने सीरियाई शरणार्थियों को राहत देने के लिए अपने दरवाजे खोले, लेकिन स्वाभाविक रूप से कुछ हिचक भी थी। क्योंकि शिया-सुन्नी सत्ता प्रतिद्वंद्विता से जार-जार हो रही पश्चिम एशिया की धरती से उजड़े ये लोग यूरोप में बसने की मानसिकता को लेकर आये थे। यूरोपीय सरकारों और प्रशासनों की इस हिचक ने उन्हें यूरोप के वामपंथियों और समाजवादियों के निशाने पर ला दिया। यूरोप के ‘इस्लाम विरोधी’ चरित्र पर लेख लिखे गए। लाखों शरणार्थियों को स्थान दे रहे यूरोपीय देशों को अपना दिल थोड़ा और बड़ा करने और इस ‘तंगदिली’ से बाहर आने की नसीहतें दी गयीं। एलन कुर्दी की कहानी में तब नया मोड़ आ गया जब एलन के पिता अब्दुल्ला कुर्दी के दावों पर कई सवाल उठने लगे। द गार्जियन के मुताबिक, कुर्दी परिवार पिछले तीन वर्षों से तुर्की में रह रहा था न कि सीरिया में। परिवार सुरक्षित था, उन्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ मिल रहा था। अब्दुल्ला कुर्दी की जेब में लगभग साढ़े चार हजार डालर थे। वह शांति से रह रहा था। तो सवाल यह है कि उसने यह खतरनाक यात्रा क्यों चुनी? अब्दुल्ला की बहन ने बताया कि उसका भाई बाल काटने का काम करता है, जो तुर्की में आ कर रह रहा था और कनाडा जाकर अपना भविष्य संवारना चाह रहा था। इसके लिए उसने मानव तस्करों की सहायता ली और तब समुद्र में यह घटना घटी। कुछ दिन बाद कुर्दी की कहानी में और भी छिद्र सामने आने लगे। विश्लेषकों ने उसकी ‘आपबीती’ पर सवाल उठाए। जैसे कि उसकी पत्नी का पानी में डूबकर मरना और शव का तत्काल पानी में तैरने लगना, बालक एलन के डूबने के लम्बे समय के बाद उसके शव का पूरी तरह सुरक्षित समुद्र तट तक पहुंचना और शव पर लम्बे समय तक पानी में रहने से होने वाले परिवर्तनों का नदारद दिखना। सवाल और गहरा गए जब तीन वर्ष से सुरक्षित रह रहे अब्दुल्ला को कुछ माह पूर्व सीरिया में ‘यातना दिए जाने’ की खबरें मीडिया में तिरने लगीं।
एक और खुलासा हुआ। जिस नाव पर कुर्दी परिवार सवार था, उसी नाव के एक और सवार, एक इराकी दंपत्ति ने बताया कि नाव को अब्दुल्ला कुर्दी ही चला रहा था। और वास्तव में कमान उसके ही हाथ में थी। ऐसे में यूरोप के राष्टÑवादी और दक्षिणपंथी सवाल उठा रहे हैं कि आलोचना किसकी होनी चाहिए? सीरियाई शरणार्थियों के प्रति संवेदनशीलता दिखाने वाले यूरोप की या पश्चिम एशिया को झुलसा रहे मुस्लिम देशों की? यदि युद्ध पीड़ित लोगों को शरण देना नैतिक जिम्मेदारी है तो यह जिम्मेदारी रवांडा, बुरुंडी और कांगो के नरसंहार पीड़ितों के लिए क्यों नहीं ध्यान आई? यजीदियों के लिए किसी का दिल क्यों नहीं पसीजा? सऊदी अरब, कतर, तुर्की, जॉर्डन और कुवैत की जिम्मेदारी कौन तय करेगा? और अरब भूमि के इन बाशिंदों के लिए वहीं कोई हल क्यों नहीं खोजा जा रहा है?
उनकी सबसे बड़ी चिंता है कि क्या भविष्य में ये मुस्लिम शरणार्थी यूरोप के जीवन मूल्यों को अपनाएंगे? क्योंकि पूर्व के दशकों में आए मुस्लिम अप्रवासी अन्य अप्रवासियों की तरह यूरोप के समाज में घुल-मिल नहीं सके। उच्च जननदर व निरंतर योजनाबद्ध अप्रवासी आगमन के चलते इनकी संख्या बढ़ती गई, और मूल यूरोपीय श्वेतों के साथ इनके अलगाव की खाई भी दिन पर दिन स्पष्ट होती गई। आज यूरोप के शहरों में लेबनान, मोरक्को, इराक, ईरान, पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान व अरब देशों से आए लाखों मुस्लिम अप्रवासी एक प्रभावी व आक्रामक अल्पसंख्यक समुदाय बनकर उभर आए हैं।
अब यूरोप में अनेक स्थानों पर ‘शरिया नियंत्रित क्षेत्र’ की तख्तियां देखी जा सकती हैं। रात के समय मुस्लिम युवकों के आतंकी ‘मुस्लिम पेट्रोल’, 31 दिसंबर की रात को बड़े पैमाने पर आगजनी की परम्परा (फ्रांस), शरिया फॉर यूरोप के नारे, सड़कों पर सामूहिक नमाज, प्रतिवर्ष सैकड़ों ‘आॅनर किलिंग’, हिंसा की बढ़ती घटनाओं आदि से यूरोपीय आशंकित हैं। एक ओर, यूरोप में एक बडेÞ वर्ग का सुनिश्चित मत है कि एक मासूम बालक के शव को लेकर कहानी गढ़ी गयी ताकि यूरोप पर ‘मुस्लिम शरणार्थी लहर’ को स्वीकार करने के लिए दबाव बनाया जा सके। दूसरी ओर एक भयावह मानवीय त्रासदी है जिसका कोई अंत नहीं दिख रहा। सामने हैं प्रश्न, कि एलन कुर्दी के अपराधी कौन-कौन हैं? जिम्मेदारी किसकी है? हल क्या है?
चलते-चलते, एक और बेहद खास बात। सितम्बर के तीसरे हफ्ते में खुलासा हुआ है कि हाल ही में यूरोप पहुंचने वाले हर पांच में से सिर्फ एक शरणार्थी सीरिया का है। 27 हजार तो अकेले अफगानिस्तान से हैं। –प्रशांत बाजपेई
टिप्पणियाँ