आवरण कथा - बदलता मौसम बढ़ती चुनौतियां
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आवरण कथा – बदलता मौसम बढ़ती चुनौतियां

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Sep 21, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 21 Sep 2015 14:32:25

आइए भारतीय कृषि पर चर्चा करें। कैसे करेंगे? बहुत आसान है। आप चाहें तो कृषि और कृषक हितों के पैरोकार बनकर चर्चा कर सकते हैं। चाहें तो इसे अर्थशास्त्र के जानकार होने की हैसियत से देख सकते हैं, चाहें तो समाजशास्त्री बन सकते हैं, राजनेता बन सकते हैं, उसे शहरी उपभोक्ता की नजर से देख सकते हैं। गांवों तक पहुंचने के और भी कई छायादार और फलदार मार्ग हैं। आप ग्राम-प्रेमी, प्रकृति-प्रेमी, ग्रामीण मार्केटिंग प्रेमी, रियल एस्टेट हितचिंतक दूरदृष्टा छोटे किसान, और यहां तक कि पर्यावरण हित चिंतक, पशु हित चिंतक, कवि, निबंधकार, फिल्मकार आदि कुछ भी हो सकते हैं। आप चाहें तो गरीबी के विश्लेषक के नाते भारत की कृषि (और ग्रामीण) क्षेत्र पर बात कर सकते हैं, और चाहें तो भारत की कृषि और ग्रामीण क्षेत्र को भारत की सकल कमजोरियों का स्रोत मानने वाले भी बन सकते हैं। आप  चाहें तो कृषि की स्थिति के लिए सरकार को दोष दे सकते हैं, चाहें तो सरकार की स्थिति के लिए कृषि को दोष दे सकते हैं। वास्तव में आप किसी भी क्षेत्र के कैसे भी जानकार हों, भारत की कृषि पर तो टिप्पणी कर ही सकते हैं।
भारत का कृषि जगत वास्तव में इतने आयाम समेटे हुए है कि उसने हर दिशा से आगम मार्ग खुला छोड़ रखा है। हर दिशा से विचारों की भारी भीड़ है। आईआईएम संस्थानों के विशेषज्ञों से लेकर गांवों की चौपालों तक और विश्व की शीर्ष संस्थाओं तक न जाने कितने लोगों ने कितनी बातें कही-बताई हैं। लेकिन इस स्वच्छंद, रूमानियत भरी और प्राय: अव्यावहारिक चिंतक भीड़ का अस्तित्व बना रहना ही इस बात का प्रमाण है कि या तो कोई भी वास्तविक बात होना अभी बाकी है या जो भी बात है, उसे गांवों में सुना जाना बाकी है। और अब इस रूमानियत को तिलांजलि देने की आवश्यकता बिल्कुल आसन्न है। जब मानसून में चंद प्रतिशत बिन्दुओं की कमी-पेशी शेयर बाजार हिलाने लगे, जब साधारण खाद्य वस्तुओं के दाम शहरी क्षेत्र के बूते से बाहर नजर आने लगें, जब किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला चल पड़ा हो, तो जान लीजिए कि खेती-बाड़ी में कुछ तो गहरी समस्या है।
वास्तविकता यह है कि कृषि के दर्द की गंभीरता को समझने के लिए न तो किसी का कृषि विशेषज्ञ होना जरूरी है, न एक भी बार गांव जाना जरूरी रह गया है। जो बात है, वह ड्राइंग रूम में बैठे व्यक्ति के लिए भी बहुत साफ है। 2007 के आंकड़े के अनुसार, खेती, वानिकी, मत्स्य उत्पादन आदि मिंलकर सकल घरेलू उत्पाद का 16़ 6 प्रतिशत रह गए थे (2010-11 के आंकड़ों के अनुसार 14.़2 प्रतिशत)। यह उस खेती की आमदनी थी, जो भारत की 60 प्रतिशत जनसंख्या का पेट पालती है, जो भारत के कुल निर्यात में 8़ 56 प्रतिशत का योगदान देती है और जो भारत के 43 प्रतिशत भू-क्षेत्र में फैली हुई है।
फिर से देखिए, 60 प्रतिशत जनसंख्या के हिस्से आ रही है 16़ 6 प्रतिशत आमदनी। और यह गरीब अगर अपनी आमदनी बढ़ाने के बारे में सोचे, तो इतने भर से शहर महंगाई से त्राहि-त्राहि करने लगता है। तो क्या शहरों में सस्ते खाद्य पदार्थों के लिए जरूरी है कि गांव वाले गरीब बने रहें? कम से कम तकनीकी तौर पर ऐसा नहीं होना चाहिए। दुनिया भर का प्रबंधन 'विन-विन' फार्मूले की बात करता है। क्या कोई 'विन-विन' फार्मूला भारतीय खेती के लिए नहीं हो सकता?
सही और ईमानदार उत्तर है- पता नहीं। और इस तरह की रूमानियत का मौका नहीं बचा है कि -भारत में अधिकांश किसान जीवनयापन के लिए कृषि करते हैं, माने जो उगाते हैं, उससे अपना ही पेट भर पाते हैं। या यह कि भारत में खेती घाटे का सौदा हो चुकी है। व्यावहारिक बात यह है कि उनके पास कोई कोई 'विन-विन' फार्मूला उपलब्ध नहीं है। परिणाम यह है कि उन्होंने अपनी ही समझ से अपने लिए फार्मूले गढ़ने की कोशिश की है। जैसे खेती की जमीन बेचकर पेट भरना (जिसके पीछे एक पहलू जोत के छोटे से छोटे होते जाने का भी है) और उस जमीन पर कोई इमारत, मकान, दुकान, मॉल या कुछ भी और बना देना। अब यह तरीका भी पस्त पड़ गया है। किसानों का गढ़ा गया दूसरा फार्मूला है-खाद्य फसलों की जगह ऐसी फसलें उगाना, जो ज्यादा लाभ देती हों। इसके परिणामस्वरूप कई स्थानों पर दाल के ऐवज में तम्बाकू, मैन्था, सफेदा भी उगाई जाने लगी है। जाहिर है, इस फार्मूले को कोई 'विन-विन' फार्मूला नहीं कहा जा सकता है। आप अपने ही लोगों को खाने के लिए दाल के स्थान पर तम्बाकू परोस रहे हैं। एक और तरीका निकला है। आर्गेनिक और डिजाइनर खेती। कई बार इसका सार यह होता भी है कि आप उगाएं, विदेश में बेचें और यूरोप खाए। देश फिर भी भूखा ही रहे। हो सकता है कुछ और भी प्रयोग कुछ स्थानों पर किए गए हों। लेकिन क्या उन्हें 'विन-विन' फार्मूला कहा जा सकता है? क्या कोई और तरीका नहीं हो सकता है?  
ऊपर दी गई तस्वीर में फसल धान की है, जिसे हमारा कोई भी किसान देखते ही पहचान लेगा। और जितने सघन धान के पौधे हैं, उतनी ही सघन मछलियां हैं। यह तस्वीर इंडोनेशिया की है। इसे धान और मछली की खेती कहा जाता है। धान की छांव में मछलियां आसमान से झांकते खतरों से सुरक्षित बनी रहती हैं। मछलियों के मल से धान की फसल को लगातार खाद मिलती रहती है। पौधों में लगने वाले कीड़ों को मछलियां चट कर जाती हैं, और घूम-घूम कर पूरे खेत में आक्सीजन का फैलाव सुनिश्चित करती रहती हैं। धान के खेत में मछलियां छोड़ने से धान की पैदावार 10 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। मछलियों से होने वाली आमदनी इसके अलावा होती है। खाद की बचत अपने स्थान पर है। कीड़ों से बचाव एक अतिरिक्त लाभ है। मछलियों की सफाई से जो खाद बनती है, वह भी एक महत्वपूर्ण जैविक खाद होती है।
माने, बढि़या है ना? क्या खाक बढि़या है। आज पूवार्ेत्तर भारत को छोड़कर हमारे यहां यह काम ना के बराबर होता है। वह भी तब, जब आज से लगभग 2000 वर्ष पहले, विश्व में सबसे पहले, यह विधा भारत ने ही दुनिया को सिखाई थी। लेकिन? किन्तु? परन्तु? फिर धान तो हमारी मुख्य फसल है। और धान पैदा करने में हम कितने नासमझ हैं, इसे भी देखिए। हम 4 करोड़ 40 लाख हेक्टेयर में धान बोते हैं, और लगभग 10 करोड़ 62 लाख टन धान काटते हैं। माने एक हेक्टेयर से 2़ 4 टन धान। विश्व में हम कहां ठहरते हैं?  धान उगाने वाले 47 देशों में 27वें नंबर पर। चीन में धान की प्रति हेक्टेयर पैदावार 4़ 7 टन (हमसे लगभग दुगुनी) है। और ब्राजील में प्रति हेक्टेयर पैदावार 3़ 6 टन है। चीन को छोडि़ए। अगर हम मिस्र से तुलना करेंगे, तो कहीं नहीं ठहरेंगे। वह हमसे तीन गुना पैदावार लेता है। गेहूं में भी स्थिति कोई बहुत भिन्न नहीं है। गेहूं की पैदावार जरूर 3़15 टन प्रति हेक्टेयर है, लेकिन 41 देशों में भारत 19वें स्थान पर है। और यह स्थिति तब है, जब 1983 से लेकर 2013 तक, हमारी फसलों की उत्पादकता औसत पौने दो से दो प्रतिशत तक की सालाना दर से बढ़ती जा रही है। लेकिन इसी का दूसरा पक्ष यह है कि 1991 से 2007 के बीच भारत में कपास को छोड़कर लगभग सभी फसलों की पैदावार स्थिर रही है। इस अवधि में गेहूं, धान, दालें, सोयाबीन और गन्ने की उपज में वृद्धि मात्र 0़19 प्रतिशत से लेकर 1़ 4 प्रतिशत रही है। जाहिर तौर पर, एक ओर तो अभी काफी फासला तय करना बाकी है, और दूसरी तरफ लक्षण थकान के भी हैं।
यह कोई नहीं कहता कि हर किसान को धान के साथ मछली पालनी ही चाहिए। कोई आवश्यक नहीं कि कोई एक फार्मूला देश भर में सफल हो सकता हो। लेकिन यह नहीं तो और सही। कोई तो नया फार्मूला होगा। 'विन-विन' फार्मूला उत्पादकता में वृद्धि के साथ ही आएगा, और उत्पादकता में वृद्धि के लिए उत्पादन के तरीके भी बदलने होंगे।
 उत्पादन के तरीके हमने पहले भी बदले हैं। बदले क्या हैं, बदलने के नाम पर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की झड़ी लगा दी है। यह समझ लिया गया कि जितनी ज्यादा मात्रा में रासायनिक खाद एवं कीटनाशक इस्तेमाल किया जाएगा, उत्पादन उतना बढ़ाया जा सकेगा। इतना ही नहीं, जब सरकार या सरकारी संस्थान किसानों को वैज्ञानिक ढंग से खेती करने की सलाह देते हैं, तो अक्सर उसका अर्थ भी रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल तक सीमित होता है। परिणाम यह है कि अब जमीन भी जहरीली हो गई है, फसल भी और पानी भी, और तो और दूध भी। रासायनिक खाद का अंधाधुंध इस्तेमाल जमीन को भी बंजर बना रहा है। भूमि की उर्वरा शक्ति घट रही है। उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद की मात्रा लगातार बढ़ानी पड़ रही है। अभी नया नारा जी.एम. फसलों का आया है। विशेषज्ञ कहते हैं कि प्रति बूंद अधिक फसल गैर रासायनिक खेती में ही संभव और सफल है, न कि जी.एम. बीजों से। अमरीका में लगातार चौथे वर्ष कैलिफोर्निया और टेक्सास में जी.एम. फसलें सूखे की स्थिति को नियंत्रित कर पाने में नाकाम रहीं।
इस स्थिति के एक समाधान के तौर पर जैविक खेती की संकल्पना उभरी है। वर्मी कंपोस्ट, हरी खाद, कम्पोस्ट, फार्म यार्ड खाद, नैडप की खाद, मूंगफली केक, मछली की खाद, महुआ केक आदि जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सफल साबित हुए हैं। इनके उपयोग से कम पानी से भी खेती संभव है और उत्पादन लागत भी कम पड़ती है। जैविक खेती से उगे अनाज का दाम भी बेहतर मिलता है।
रासायनिक खाद, कीटनाशक और नया बीज- पहली हरित क्रांति के यह तीन प्रमुख लक्षण थे। चौथा लक्षण था-डीजल। जो ट्रैक्टर से लेकर पंप सेट तक की आवश्यकता था। इसने खेती को पूरी तरह आयात निर्भर बना दिया था। क्या आप जानते हैं, आज भी आपकी रोटी में आयात की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत से अधिक है? आयातित रासायनिक खाद और आयातित डीजल के कारण। इनकी प्रदूषण में भी भूमिका है। लेकिन अगर आप इनका समाधान निकालते हुए आगे बढ़ते हैं, तो रास्ता भी है। छत्तीसगढ़ में रायगढ़ के धरमजयगढ़ के ग्राम रिलो के रहने वाले एक 8वीं पास किसान ने जो कर दिखाया है, वह देखने लायक है। इस किसान ने रासायनिक खाद और कीटनाशक का तोड़ निकाला जैविक खेती में और डीजल का तोड़ निकाला सौर ऊर्जा में। नाम है मोहनलाल गभेल। मोहनलाल 15 वर्ष की उम्र से खेती करते आ रहे हैं। उन्होंने कृषि विभाग, नाबार्ड, क्रेडा और सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाली सहायता के बूते अपने खेतों में सोलर पंप, जैविक खेती, कंपोस्ट खाद और सिंचाई के लिए भूमिगत पाइपलाइन का इस्तेमाल शुरू किया। वह प्रति एकड़ उत्पादकता बढ़ाकर पांच गुना तक ले गए। वह आज सफल और संपन्न ही नहीं, बेहद संपन्न किसान हैं।
ऐसे उदाहरण देश के लगभग हर जिले में हैं। फिर कौन कहता है कि बड़े-बड़े विचार जमीन तक नहीं पहुंच पाते?  पहुंचते हैं, लेकिन सब उन्हें अपना नहीं पाते। क्यों? यह मूल सवाल है। और इसका जवाब खोजना किसी विशेषज्ञ के कार्य क्षेत्र में नहीं आता। सुझावों को न अपना सकने की परिस्थितियों को समझने के पहले आपको ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समग्र रूप में समझना होगा। समग्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अर्थ है गांव की वह बात जो सिर्फ खेती तक सीमित न हो। वास्तव में भारत के गांवों की एक सबसे दुखती रग यह है कि यहां कई बार देश के गांवों को भी वैसा ही समझा गया, जैसा विश्व बैंक ने समझाना चाहा। गांवों में गैर कृषि रोजगार पूरी तरह समाप्त हो चुका है। गांवों में जोत छोटी होते-होते बहुत छोटी हो चुकी है। जहां पानी की, उर्वरता की समस्या है, वहां कोई फार्मूला काम नहीं करता। जहां जानकारी का अभाव है, जानकारी को ग्रहण कर सकने की क्षमता की कमजोरी है, जहां मूलभूत ढांचे की अल्पता है, वहां सारे वैज्ञानिक सुझाव किसी मधुर कथा से भिन्न नहीं हैं। सिंचाई के ढांचे की अल्पता, बाजार तक पहुंचने के ढांचे की अल्पता, यातायात के ढांचे की अल्पता किसानी को पंगु बना देती है। योजनाओं का अंबार है, लेकिन कई जगह उसके आगे अंधेरा है।
ऐसा क्यों है? सच यह है कि इसका उत्तर सहज नहीं है। संभव है कि ऐसा इस कारण हो कि नीति निर्माताओं का कोई सीधा हित किसानों के, खेती के हित से नहीं जुड़ता। बल्कि इसका उल्टा ज्यादा फिट बैठता है। 2007 में गेहूं आयात घोटाले की बात सामने आई थी। उसके विवरण में जाए बगैर, इतना तो समझा ही जा सकता है कि घोटाला उद्योग के पनपने-फलने-फूलने के लिए जरूरी है कि भारत की खेती लाचार बनी रहे। लगभग ऐसी ही स्थिति जल विद्युत परियोजनाओं की है। भारत अपनी काफी सारी जल विद्युत क्षमता यूं ही मुफ्त बहा देता है। इसके पीछे कारण यह माना जाता है कि जल विद्युत परियोजनाएं उतनी कमाऊ  नहीं होतीं जितनी ताप परियोजनाएं। भ्रष्टाचार की इस लालसा का खामियाजा कृषि क्षेत्र को भी भुगतना पड़ा है। सिंचाई परियोजना हर बांध का अभिन्न हिस्सा होती है।  
29 जुलाई 2014 को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 86वें स्थापना दिवस समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो विशेष बातें कहीं थीं, उनका उल्लेख महत्वपूर्ण है। पहली यह कि 'कृषि तकनीक को किसानों तक पहुंचाना जरूरी है और मुझे विश्वास है कि इससे हमारा राष्ट्र भारी प्रगति करेगा।' उन्होंने यह भी कहा कि 'लैब टू लैंड' हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। दूसरी यह कि प्रगतिशील किसान वास्तविक प्रतिभाएं हैं, जो उपलब्ध संस्थागत ज्ञान का प्रयोग करके एक सकारात्मक परिवेश का निर्माण करते हैं। उन्होंने कृषि संस्थाओं को रेडियो का प्रयोग करके किसानों तक पहुंचाने की भी सलाह दी। तीसरा और बेहद महत्वपूर्ण पहलू था कि कृषि से जुड़े क्षेत्रों का भी साथ-साथ विकास करने की आवश्यकता। जैसे मछली पालन, पशुपालन और जल संरक्षण। उन्होंने मछली पालन क्षेत्र में क्रांति लाने की भी आवश्यकता जताई, जो वास्तव में अपने खाद्य में प्रोटीन की कमी झेल रहे इस देश की एक बड़ी आवश्यकता है। प्रधानमंत्री का चौथा विशिष्ट बिन्दु था जल संरक्षण। प्रधानमंत्री का कहना था कि हमें न केवल मौसम और पानी के चक्र में बेहतर तालमेल बैठाना चाहिए, बल्कि प्रत्येक बूंद के साथ ज्यादा खेती करने का लक्ष्य अपनाना चाहिए, ताकि किसान जल संरक्षण के महत्व को समझ सकें और मौसम के चक्र पर अपनी निर्भरता कम कर सकें। प्रधानमंत्री का पांचवां महत्वपूर्ण बिन्दु था भारतीय चिकित्सकीय जड़ी-बूटियों का। उन्होंने कहा कि हिमालय भारत और चीन दोनों के पास है, लेकिन चिकित्सकीय जड़ी-बूटियों के क्षेत्र में चीन कहीं आगे निकल चुका है।
ये बातें विपक्ष में रहते हुए नहीं कही गईं। और यह एक सुखद परिवर्तन है। आपको खेती की उत्पादकता बढ़ानी ही होगी। उसी से कई समस्याओं का समाधान निकलेगा। आपको गांवों में गैर कृषि रोजगार उपलब्ध कराने ही होंगे। उसी से छोटी होती जा रही जोत की समस्या का समाधान निकलेगा। आपको गांवों में मौजूद ज्ञानगत समस्या से, माने प्राथमिक शिक्षा से लेकर बच्चों के कुपोषण तक से अलग से निपटना ही होगा, तभी आपकी खेती की तस्वीर बदल सकेगी। आपको खेती अपने देश की आवश्यकताओं के अनुरूप करनी ही होगी। दलहन के स्थान पर तम्बाकू की खेती कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं हो सकेगी। आपको गांवों को बुनियादी व्यवस्था देनी ही होगी, जिससे वह लैब ही नहीं बाजार और स्कूल, अस्पताल तक पहुंच सके। पीने का पानी और बिजली जैसी सुविधाओं की उपलब्धता सिर्फ आवश्यक ही नहीं, मानवीयता के लिए भी अहम है।
स्थानीय मंडी का रहस्य
ऐसा नहीं है कि भारत के गांव और भारत की खेती जस की तस ही है। भारत सब्जियों और फलों (हार्टीकल्चर) का उत्पादन खाद्यान्न से भी ज्यादा कर रहा है। 2012-13 में देश में फलों-सब्जियों का उत्पादन 26़ 89 करोड़ टन हुआ, जबकि इसी अवधि में खाद्यान्न का उत्पादन 25़ 71 करोड़ टन हुआ है। इसमें 60 प्रतिशत हिस्सेदारी सब्जियों और 30 प्रतिशत हिस्सेदारी फलों की है। भारत में फलों और सब्जियों की कुल फसलों का क्षेत्र (रकबा)1991-92 में लगभग 1़ 27 करोड़ हेक्टेयर था, जो वर्ष 2012-13 में लगभग दुगुना होकर 2़ 36 करोड़ हेक्टेयर पर पहुंच गया है। इसी दौर में फलों और सब्जियों का कुल उत्पादन 2़ 8 गुना बढ़ा और उनकी उत्पादकता 1़ 5 गुना
बढ़ी है।
इसे आप किस रूप में देखेंगे? वास्तव में यह उस विद्रूपता का लक्षण है, जिसकी चर्चा ऊ पर की गई थी, जिसमें सकल घरेलू आय में कृषि की घटती हिस्सेदारी का उल्लेख था। वह घटती हिस्सेदारी अपने स्थान पर है, और उसी का एक पहलू यह है कि शहर में रहने वाला, सेवा क्षेत्र का नागरिक ज्यादा या अच्छा खासा कमा रहा है। लिहाजा शहरी क्षेत्रों में उस वर्ग की बढ़ती मांग को देखते हुए किसान अब फलों और सब्जियों के उत्पादन पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।
 लेकिन हर मोड़ पर न केवल बारीक नजर रखी जाना आवश्यक है, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसमें सरकारी हस्तक्षेप के लिए तैयारी भी जरूरी है। अगर फलों-सब्जियों का उत्पादन बढ़ रहा है तो उसका निहितार्थ यह है कि फलों-सब्जियों के भंडारण की क्षमता बढ़ाई जाए। वास्तव में कृषि उत्पादों के बाजार मूल्य में होने वाले भारी उतार-चढ़ावों में इस तरह की मध्यवर्ती व्यवस्था का अभाव बहुत बड़ा पहलू है। अगर फलों-सब्जियों के लिए रेफ्रिजरेशन, उनके परिवहन और भंडारण का ढांचा सुदृढ़ किया जाए,  तो हार्टीकल्चर फसलें कई किसानों के चेहरों पर फिर से मुस्कान ला सकती हैं। मजेदार बात यह है कि फलों-सब्जियों के क्षेत्र में भारत की उत्पादकता चीन के बराबर है, हालांकि कुल उत्पादन में वह चीन से काफी पीछे हैं। वर्ष 2012-13 में विश्व के कुल फल उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 12़ 6 प्रतिशत और सब्जियों में 14 प्रतिशत रही है।
क्या भारत के किसान इसी प्रयोगधर्मिता को, जो भले ही पड़ोस के शहर की मंडी की हालात से प्रेरित हुई हो, दूध, अंडे, मांस और मछली के उत्पादन में नहीं बदल सकते? उत्तर है, शायद नहीं। और इसका कारण इन उत्पादों के लिए अनिवार्य तकनीकी कौशल, बिजली और बाकी ढांचे की अनुपलब्धता है। धान के खेत में मछली पालना पूवार्ेत्तर में इसलिए भी हो जाता है, क्योंकि पास की मंडी में मछली खपाना आसान है। उसके रेफ्रिजरेशन, परिवहन और भंडारण के ढांचे की जरूरत ना के बराबर ही पड़ती है। लेकिन अगर यही काम हरियाणा में किया जाए, तो उसके लिए कम से कम रेफ्रिजरेटिड रेल की, विशेष स्टेशनों की जरूरत पड़ेगी। इसके अभाव में, अपने बूते किसान इतना जोखिम नहीं ले सकते।
फिर भी, सारा दारोमदार स्थानीय मंडी पर नहीं है। एक अध्ययन के मुताबिक, वर्ष 2020 तक भारत को अपनी पैदावार वर्ष 2007 के स्तर से दुगुनी करनी होगी। मांस, मछली और अंडों के लिए मांग में 2़ 8  गुना वृद्घि होगी। अनाज की मांग दुगुनी हो जाएगी। फलों और सब्जियों की मांग1़ 8 गुना और दूध की मांग 2़ 6 गुना होने की संभावना है। जाहिर है, या तो तब तक भारत बड़े पैमाने पर आयात आधारित थाली पर पहुंच जाएगा या यहां के किसानों को स्थानीय मंडी से परे के बाजार पर विचार करना होगा।
हमें चिंतित क्यों होना चाहिए? दो वैश्विक कारणों से। एक यह कि भारत के किसान का मुकाबला अब दुनिया भर के किसानों से होना है। भले ही विश्व व्यापार संगठन की बाली बैठक से भारत ने वाकआउट करके अपने किसानों को फौरी राहत दे दी हो, लेकिन भारत के शहरों की बढ़ती जेब वह लालच है, जो भारत के किसानों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाए रखेगा। दूसरा वैश्विक पहलू मौसम के बदलते मिजाज का है। मानसून का चक्र बिगड़ रहा है। इसका सबसे अधिक प्रभाव कृषि पर पड़ा है। बदलते मौसम से खेती का खर्च बढ़ा है और खेती के तरीकों में बदलाव आया है। एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार 1971-81 के दशक के बाद से औसत वर्षा में गिरावट आ जा रही है। मानसून की अनियमितता बढ़ रही है, खंड वृष्टि भी बढ़ी है, मानसून थोड़ा जल्दी आ रहा है, और ज्यादा खिंचने लगा है। वहीं शीतकालीन वर्षा, जो खेती के लिए बहुत अहम होती है, औसतन कम हो रही है। मौसम की असामान्य परिस्थितियां पिछले कई वषोंर् में बढ़ी हैं। एक ही दिन में भारी-भरकम वर्षा होना, पाला पड़ना और सूखे का अंतराल लंबा खिचना, फरवरी-मार्च माह में तेज गर्मी पड़ना, मार्च-अप्रैल में तेज बारिश होना, यहां तक कि ओले गिरना-सारा मौसम फसलें बरबाद करने वाला होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के इस खतरे से न किसान निपट सकते हैं और न ही सरकार। यह संघर्ष लंबा चलेगा। इसके लिए कमर कसनी होगी।        

– ज्ञानेन्द्र बरतरिया

अभी तक सरकारों की नीति किसानों के हित में नहीं रही, इसी कारण हाल में सर्वोच्च न्यायालय को किसानों की बदहाली पर संज्ञान लेना पड़ा। विकास के नाम पर किसानों के खेत उद्योगपतियों के हाथों में चले गए। खेतों के बाद पशु छीन लिए गए। जंगल से मिलने वाले औजार भी छीन लिए। फिर खाद और बीज भी कृत्रिम बांटे गए। फसलों पर बीमारियां बढ़ीं, कीड़े लगने लगे तो रासायनिक कीटनाशकों का मुंह खोल दिया सरकारों ने। बहुराष्ट्रीय उत्पादों और उनके प्रचलन ने किसान को पराश्रित कर दिया। जो खेती, बीज, बैल और औजार स्वाभिमान के प्रतीक थे, किसान को उनसे वंचित कर दिया गया। आज राष्ट्रीय कृषि विकास योजना पर सरकार छूट दे रही है, ये यदि बैलों पर दी जाती तो ज्यादा अच्छा रहता। बारहनाजा संस्कृति वाले इस देश में आज भी 30 से 40 तरह की फसलें वर्षभर में उगाई जा सकती थीं, लेकिन गन्ना, कपास जैसी फसलों के बजाय नकदी फसलों की दौड़ ने किसान को बेचारा बना दिया है। आजादी से पूर्व देश का किसान कर्जविहीन था, आज भारी कर्जे के चलते वह आत्महत्या को विवश हो रहा है। सरकार को लघु और सीमांत किसान के विषय में सोचना चाहिए। जलवायु परिवर्तन एक बड़ा संकट है। चैत्र-वैशाख में केदारनाथ में कई जगह बर्फ पड़ी, उत्तरकाशी और दून घाटी में ओलावृष्टि हुई लेकिन टिहरी में सूखा ही पड़ा रहा। मंडवा, झंगोरा और दालों पर जब फूल आने लगे तब वर्षा हो रही है। पहाड़ों की मिट्टी को रोकने के ठोस उपाय होने चाहिए। जमीन किसान का मूल धन है उसे सरकार को हर कीमत पर किसान के पास रहने देना चाहिए तभी देश प्रगति करेगा।

-विजय जड़धारी, संयोजक, बीज बचाओ आंदोलन

खेती मानवता को सनातन भेंट है परन्तु आज वह तनाव में है, मूलत: इसके कारणों से निजात पाने के लिए किसानों के मूलभूत अधिकारों को सशक्त करने को आवश्यकता है। खेती की मूलाधार-मिटटी, पानी, बीज से हटते अधिकार पूरी तरह से किसानों की हाथ में होने चहिये। इन सारी आवश्यकताओं को आधिकारिक रूप से किसानों को सौंपना होगा ताकि वह अपनी खेती की लागत खुद तय कर सके। आज बीज, खाद इत्यादि सबके लिए किसान बाजार पर निर्भर है और इनके दाम किसाओं के हित में नहीं हैं। बीजों के ऐसे उन्नत प्रकार उपलब्ध हों जिन्हें किसान खुद से बना सकें और इनकी भौतिक सम्पदा भी किसानों की ही हो,  खेती की लागत घटे। आज खेती से छूटती जा रही जमीन में यह सोचना जरूरी है कि जिस ऊपरी मिट्टी ने सैकड़ों वर्ष तक समाज का पालन पोषण किया उसका मोल कौन चुकाएगा? क्या आज का समाज इस ऋण का मोल दे सकता है? यदि हां तो उसका वास्तविक मूल्य क्या है? और क्या यह खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से हानिकारक नहीं है?
दूसरा, बाजार पर किसानों का उतना ही हक है जितना कि ग्राहकों का। यदि समाज ने भूमि के बढ़ते दामों को स्वीकारा है तो कृषि उत्पाद के दामों को क्यों जबरदस्ती दबाया जा रहा है?  इसका एक समाधान है, बाजार में पारदर्शिता और किसानों को मूल उपभोक्ता मूल्य का 60-70 प्रतिशत तक दाम मिलना। हमारे अनुभव में ज्यादातर कारोबार बाजारी मूल्य के 30-40 प्रतिशत मुनाफे में चल सकते हैं, लेकिन इसके लिए किसानों को पारदर्शिता से बाजार से जोड़ना होगा। तीसरे, इन दोनों मुद्दों और पर्यावरण असंतुलन से जुड़ा हुआ मुद्दा है जैविक खेती का। सामाजिक संस्थाएं गत 4 दशकों से जैविक खेती पर जोर दे रही हैं।
                                    – आशीष गुप्ता, कृषि विशेषज्ञ

कृषि पर सरकार को और संवेदनशील एवं सचेत होना होगा। सरकार को कृषि क्षेत्र में गंभीरता से निवेश करना चाहिए। आज किसान अर्जित कम कर पा रहा है अर्थात उसकी आमदनी कम हो रही है। जबकि उस अनुपात में दैनिक जीवन के खर्चे बहुत बढ़ रहे हैं। इस कारण किसानों की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। वैश्वीकरण और जलवायु परिवर्तन से बाजार में जोखिम की स्थिति है। फसल चक्र की पद्धति में भी जोखिम दिखाई पड़ रहा है। सरकार कृषि पर अपेक्षित व्यय नहीं कर रही है। किसान के पास आर्थिक सुरक्षा नहीं है। उत्पादन द्वारा कमाई और बढ़ते खर्च के कारण उसका जीवन दुखदायी हो रहा है। यदि किसान की आमदनी और उसके व्यय में संतुलन हो जाय तो आत्महत्या का प्रश्न ही नहीं उठता। किसान सुखी रहेगा तो कृषि लहलहाएगी और अर्थव्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से मजबूत होगी।
                                                   -डॉ. रामांजुनेयलु जी.वी.निदेशक, सेण्टर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर  

 

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