समरस समाज व्यवस्था में आरक्षण नीति की भूमिका
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समरस समाज व्यवस्था में आरक्षण नीति की भूमिका

by
Sep 14, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Sep 2015 12:00:04

 

सीताराम व्यास
आरक्षण नीति पर पुन: विचार-विमर्श की आवश्यकता है। संविधान में आरक्षण का प्रावधान क्यों रखा गया था। अभी तक आरक्षण-नीति को शासन-कर्त्ताओं ने जनता के सम्मुख तर्कसंगत ढंग से नहीं रखा, वरन् इसके सर्वथा विपरीत इसका तथाकथित शासकों द्वारा अपने संकीर्ण स्वाथार्ें की सिद्धि के लिए उपयोग किया जाता रहा है। अब पटेल जाति ने गुजरात में नौकरी में आरक्षण को लेकर जन-आन्दोलन खड़ा कर दिया है। इसी प्रकार हरियाणा में जाट भी आरक्षण की मांग को लेकर गत तीन साल से अडे़ हुए हैं। ऐसे स्वार्थनिष्ठ आन्दोलन जातीय संघर्ष का विकराल रूप धारण कर लेते हैं। जब-जब आरक्षण का आन्दोलन सिर उठाता है, समाज दो खेमों में बंट जाता है। एक खेमा अगड़ा और दूसरा पिछड़ा। इस प्रकार हिन्दू समाज को तोड़ने का यह सिलसिला योजनाबद्ध ढंग से लगातार चला आ रहा है। इस खेमेबन्दी में हमारे सामाजिक-धार्मिक नेता भी सम्मिलित हो जाते हैं।
ऐसी विषम परिस्थिति में देशवासियों को शान्त चित्त से, तर्कसंगत आरक्षण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चिन्तन करना चाहिये और उसके आधार पर किसी सर्वसम्मत निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिये। यदि इतिहास पर दृष्टिपात करें, तो अपने देश में आरक्षण का प्रश्न स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व ही उठ खड़ा हुआ था। सर्वप्रथम आरक्षण नीति के उद्घोषक स्वामी विवेकानन्द जी थे। स्वामीजी ने 1895 के पत्र में लिखा था। ''प्रकृति में विषमता होगी, तभी सभी को समान अवसर मिलना चाहियें। अगर किसी को ज्यादा तो किसी को कम अवसर मिलने वाले हांेगे तो निर्बलों को सबलों की अपेक्षा अधिक अवसर दिये जाने चाहियंे। ''
सन् 1902 में कोल्हापुर के छत्रपति शाहूजी महाराज ने राजकीय आदेश में ब्राह्मणेतर समाज के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी। इस आदेश के कारण कोल्हापुर राज्य में 1922 ईं. तक यदि शासन में 95 कर्मचारी थे तो उनमें 59 वंचित समाज के थे। इसी प्रकार मैसूर राज्य में सन् 1916 में राजा वाडियार ने आदेश निकालकर 25 प्रतिशत का आरक्षण किया। महाराजा ने आरक्षण हेतु सर लेस्ली समिति का गठन किया था। दक्षिण भारत में आरक्षण का मुद्दा अंग्रेजी शासन-काल में आ गया था, परन्तु उत्तर भारत में यह प्रश्न  नहीं उठा।
स्वतन्त्रता प्राप्ति केे  पश्चात भारत के संविधान ने अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिये आरक्षण का प्रावधान दस साल तक  रखा था। दस साल के पश्चात लोकसभा इसमें अनिवार्य रूप से दस साल की वृद्धि करे यह सुनिश्चित हुआ था। अगर ऐसा नहीं होता तो आरक्षण स्वत: समाप्त हो जाता। बाबा साहब की आरक्षण-नीति को संविधान में समाहित करने का उद्देश्य क्या था? इसका खुलासा उनके 25 नवम्बर सन् 1949 के भाषण से होता है, जो इस प्रकार है-''इस देश में राजनीतिक सत्ता कुछ गिने-चुने लोगों के अधिकार में थी, और कुछ लोग केवल सामान ढोने वाले बैल ही नहीं , बलि के बकरे थे।——-इस एकाधिकार ने पददलितों को न केवल स्वयं के अभ्युदय के अवसर से वंचित किया, अपितु उनको जीवन के सभी क्षेत्रों में कमजोर कर दिया।—— इसीलिए जितनी जल्दी उनकी आकांक्षा की पूर्ति की जायेगी, देश के हित में होगा।''
इस कथन से स्पष्ट है कि बाबा साहब का भाषण राष्ट्र की एकात्मता के भाव को प्रकट करने वाला था। वस्तुत: 'आरक्षण' सामाजिक विषमता को समाप्त करने का सकारात्मक उपाय है। डॉ.आंबेडकर आरक्षण को लम्बे समय तक रखने के पक्ष में नहीं थे।
संविधान अनुसूचित जाति और जनजाति को लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका तथा ग्राम पंचायत में अनुच्छेद 330, 332 के अनुसार कुछ सीटें आरक्षित करता है। इसकी पृष्ठभूमि सन् 1932 के पूना समझौते से प्रारम्भ हो गयी थी। पूना में महात्मा गांधी तथा बाबा साहब के बीच एक समझौता हुआ था। अंग्रेज सरकार चाहती थी कि मुसलमानांे की तरह वंचित वर्ग का आरक्षण पृथक निर्वाचन क्षेत्र के आधार पर बने। तभी महात्माजी रेम्जे मैकडानल्ड अवार्ड के विरुद्ध आमरण अनशन पर बैठ गये थे। बाबा साहब ने समाज हित में पृथक निर्वाचनक्षेत्र प्रणाली  की मांग छोड़कर आरक्षित चुनाव क्षेत्र को स्वीकार कर लिया। साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली में अस्पृश्य वर्ग को 78 स्थान मिले थे और पूना समझौते में 151 स्थान मिले। तब से आरक्षित चुनाव क्षेत्र और संयुक्त मतदान प्रणाली का प्रारम्भ हुआ। भारत के संविधान ने इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया।

अब आरक्षण के सैद्धांतिक पक्ष पर विचार करना प्रासंगिक होगा। सदियों से हिन्दू समाज में आर्थिक, सामाजिक स्तर पर विषमता रही है। इस विषमता ने ही हिन्दू समाज को ऊ ंच-नीच, छूत-अछूत के पारस्परिक भेद-भाव में जकड़ दिया है। इसीलिए सवणार्ें की तुलना में अछूत समझे जाने वाले वर्ग घोर उपेक्षा और घृणा के पात्र बने रहे, और समाज में घोर उपेक्षा के अभिशाप को झेलते रहे हैं। ऐसी स्थिति में क्या समाज को सबल बनाने के लिए दुर्बल घटक को उन्नति का अवसर प्रदान नहीं किया जाना चाहिये? राष्ट्र की उन्नति तथा सामाजिक  जीवन के सभी क्षेत्रों में सभी वगार्ें की सहभागिता अनिवार्य है। एक वर्ग सब प्रकार की सुविधा का उपभोग करे तथा दूसरा वर्ग दु:ख, दैन्य में पलता रहे तो इससे देश में एकात्मता तथा समता का विकास नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति का सम्यक निरूपण अब्राहम लिंकन के मार्मिक शब्दों में इस प्रकार किया है ''विभाजित घर अधिक दिन टिक नहीं सकता।''(अ ँङ्म४२ी ्रि५्रिीि ंॅं्रल्ल२३ ्र३२ी'ा उंल्ल ल्लङ्म३ २३ंल्लि) एक उल्लेखनीय घटना भारत के इतिहास में अंकित है। 1818 ई. में पेशवा और अंग्रेजांे की लड़ाई हुई। अंग्रेजों की सेना में महार जाति (अस्पृश्य) के सिपाही थे। इन्होंने पेशवा की सेना को हराया। पेशवा के शासनकाल में वंचितों पर अत्याचार चरम सीमा मंे था। अत: अत्याचार और उत्पीड़न की ऐसी पीड़क मनोदशा में उनमें भारी विषाद, निराशा और उदासीनता की भावनाओं का उदय होना सर्वथा स्वाभाविक ही था। अपने शासक के प्रति उनकी निष्ठा डावांडोल थी। उन्हें देशी और विदेशी शासन में कोई भेद नहीं अनुभव होता था। हमें इतिहास  से सबक  लेकर अपने वंचित  वर्ग को न्याय, सम्मान, समानता का अवसर प्रदान करना होगा। तभी हम इनकी राष्ट्र  के सभी क्षेत्रों में सहभागिता को प्रेरित और उत्साहित कर सकते हैं। जब राष्ट्र की निर्मिति में वंचित वर्ग का योगदान रहेगा, तो  वे राष्ट्र-रक्षा के लिए प्राणों की बाजी भी लगा देंगे।
हमारे संविधान में समानता का अधिकार है, उसमें अवसर की समानता का उल्लेख है। समानता की बात कहना सरल है, परन्तु मिलना कठिन है। समानता समान क्षमता वालों के बीच रह सकती है। परन्तु निर्बल और सबल के बीच समता सम्भव नहीं है। एक सज्जन ने राजर्षि शाहू महाराज से प्रश्न किया कि आप अवसर की समानता के सिद्धांत को क्यों छोड़ रहे हो? राजर्षि शाह महाराज सज्जन को अश्वशाला में ले गये। अश्वशाला के प्रमुख अधिकारी को आदेश दिया कि घोड़ों को चना खिलाओ और घोड़ांे को खुला छोड़ दो। घोड़े चना खाने के लिए दौड़े। जो घोड़ा सबल था, उसने दुर्बल घोडे़ को चना खाने नहीं दिया। इसी प्रकार समाज का सम्पन्न वर्ग विपन्न वर्ग को लाभ उठाने का कभी भी अवसर नहीं देगा। युक्तिसंगत आरक्षण सामाजिक जीवन को सशक्त बनाता है। सम्पन्न वर्ग को आत्मीय भाव से वंचितों और शोषितों को उत्थान के उपयुक्त अवसर प्रदान करने ही होंगे।
यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि वर्तमान घटनाओं ने 'आरक्षण नीति' को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है। सत्ता की लिप्सा में नेतागण आरक्षण पर राजनीति कर रहे हैं। लंबे समय से सत्ता पर काबिज दल ने आरक्षण का उपयोग जातीयता को बढ़ावा देने के लिए किया। आरक्षण की ओट में एक जाति को दूसरी जाति से लड़वाकर सत्ता-सुख प्राप्त करना ही उनका स्वार्थ रहा। वी.पी. सिंह ने केन्द्र में सत्ता हथियाने के लिए मंडल आयोग का सहारा लेकर जातीय संघर्ष की शुरुआत की थी। अब हिन्दू समाज की कोई भी जाति बहाना बनाकर आरक्षण की मांग उठा रही है। गुजरात, हरियाणा, राजस्थान मंे यह सिलसिला जारी है। महाराष्ट्र के मराठा भी आरक्षण की मांग उठाते रहे हैं।  बदलते परिदृश्य में अगड़ी जातियां पिछड़ी जातियों में सम्मिलित होना चाहती हैं। गुजरात की पटेल जाति ने कुछ वर्ष पहले आरक्षण का विरोध किया था। अब वही नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रही है, जबकि यह वर्ग समाज मे आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न है।  तमाशा यह है कि ताकतवर जातियां आरक्षण के लाभ को हड़पना चाहती हैं। वस्तुत: जिनको आरक्षण मिलना चाहिये उनको मिला नहीं।
समरस समाज व्यवस्था के लिए आरक्षण-नीति की भूमिका औचित्यपूर्ण है, परन्तु         पनर्मूल्याकंन की आवश्यकता है। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण नीति को जारी रखना ही चाहिये, परन्तु इसके साथ-साथ कुछ अन्य जातियां पिछड़ी और गरीब हैं उनको आरक्षण मिलना लाजमी है। सरकार व्यावहारिक और न्यायसंगत मापदण्ड तय करने के लिए विशेषज्ञों की समिति का गठन करे। यह समिति गरीबी का आधार पारिवारिक आय को बनाये। इसके साथ-साथ संविधान प्रदत्त आरक्षण नीति का पुनर्मूल्यांकन हेतु आयोग का गठन करे।  नवगठित आयोग उच्चत्तम न्यायालय के दिशा निर्देश को ध्यान में रखते हुए समीक्षा करे। न्यायालय का मानना है कि 'क्रीमीलेयर' को हटाकर अन्य परिवारों और वर्गों को  आरक्षण मिले।
यह आयोग अस्पृश्य जातियों की गणना करेे, उनको आरक्षण का लाभ कितना मिला, विकास, शिक्षा और सामाजिक स्तर का आकलन करे। इसके साथ-साथ सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं का दायित्व बनता है कि समरस समाज को बनाये रखने के लिए हिन्दू समाज की सभी जातियों, बिरादरियों की सद्भावना बैठकों का आयोजन समय-समय पर करती रहें। सामाजिक जीवन में मेल-जोल, समान उत्सव, परिवार मिलन का आयोजन भी होता रहे। समाज में मन्दिर, श्मशान, जल सभी के लिए सुलभ हो। आरक्षण-नीति सामर्थ्य सम्पन्न, शोषण-        मुक्त, समता युक्त समाज जीवन खड़ा करने     का साधन है।

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