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हमारा प्राचीन ज्ञान और दुनिया का विज्ञान

by
Sep 14, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Sep 2015 12:16:41

 मोरेश्वर जोशी
छले 68 वषोंर् में अर्थात् स्वतंत्रता के बाद भारत के संबंध में पूरी दुनिया में जितनी जानकारी थी उसमें पिछले कुछ वषोंर् में ज्यादा रुचि आती दिखी है। इसका कारण यह है कि दुनिया भर में भारत के बारे में सकारात्मक सोच रखने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। चाहे वे यूरोप के रोमा हों, दक्षिण अमरीका के माचूपीचू हों अथवा आस्ट्रेलिया पार न्यूजीलैंड के माओरी, सभी में फिर से अपनी जड़ों से जुड़ने की इच्छा पैदा होती दिख रही है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है  जून, 2015 को दुनिया में मनाया गया अंतरराष्ट्रीय योग दिवस। आज भारत के कई पुराने मित्रों एवं प्रत्यक्ष संबंधित लोगों में परस्पर संबंध स्थापित होने की खुशी मनाई जा रही है। लेकिन इसका और एक बड़ा परिणाम यह है कि हजारों वर्ष पूर्व भारतीय सभ्यता के प्रसारकों के पूरी दुनिया में पहुंचने का पुन: स्मरण हो रहा है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि हालांकि भारतीय लोग दुनियाभर में पहुंचे थे और इसके प्रमाण पूरी दुनिया में मिल रहे थे, लेकिन भारत में ही इस पर विश्वास करने के लिए कई लोग तैयार नहीं थे। इस संदर्भ में दक्षिण पूर्व एशिया में कुछ हिंदू मंदिरों के मिलने के कारण वहां हजारों वर्ष पूर्व  हिंदू, होंगे, हमारी सोच यही मानने तक सीमित थी। लेकिन मंगोलिया के लोगों को भारतीय सभ्यता से खुद के जुड़े होने का गर्व है। बाल्टिक देशों में संस्कृत भाषा प्रचलित थी एवं भारतीय विज्ञान उन्हें अपना लगता था, ऐसी बातों पर भारत के जानकार लोग भी विश्वास करने के लिए तैयार नहीं होते थे। जो स्थिति बाल्टिक अथवा मंगोलिया जैसे सुदूर देशों की थी वही दक्षिण अमरीका या आस्ट्रेलिया जैसे देशों की भी थी।
कई बार इस जानकारी के प्रामाणिक समाचार भी आते थे, फिर भी भारत में ही उन पर संदेह किया जाता था कि यह कैसे हो सकता है अथवा यह परिकल्पना है। आज साफ दिख रहा है कि जहां-जहां भी भारतीय लोग अपनी सभ्यता की जीवनशैली लेकर गए वहां के जीवन पर उसका गहरा परिणाम हुआ है। इस संदर्भ में भारत के लोगों को ही इस बारे में आज अपनी गलतफहमियां दूर करने की आवश्यकता है।
हमारे अपने लोगों से हम दूर हो गए, इसका कारण यह रहा था कि पिछले एक हजार साल तक यहां हमारी सभ्यता को ही तहस-नहस कर देने वाली गुलामी रही थी। दूसरे, एक हजार वर्ष का बिछोह काफी लंबा होता है। वास्तव में पिछले 65 साल में ये सभी बातें सामने लाए जाने में बाधा नहीं थी। लेकिन जिन्होंने पिछले एक हजार साल से इस  देश को लूटा, अत्याचार और अन्याय किए उन्हीं के आज के प्रतिनिधियों की मदद से चलने वाली सरकारों में यहां के अपने पुराने आत्मीय लोगों को फिर से जोड़ने का मुद्दा किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था। आज स्थिति ऐसी दिखती है कि जैसे जैसे इस विषय की अनुभूति हमें होगी, हमारा अपनी ही जीवनशैली की ओर देखने का दृष्टिकोण बदलता जाएगा। उसी तरह हमारा आत्मविश्वास भी बढ़े बिना नहीं रहेगा।
पिछले एक हजार साल की गुलामी जिस तरह से आज के हालात का बड़ा कारण है, उसी तरह इतिहास की उपेक्षा भी एक बड़ा कारण है। लेकिन पूर्व में ऐसा क्यों हुआ, इसमें ज्यादा उलझे बिना आज भी इस बात का विचार करें, तो काफी कुछ उपलब्ध होगा। हमारे लोग दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक कैसे पहुंचे, इसका जितना महत्व है उतना ही महत्व यह जानने में है कि वहां के लोगों ने उसे स्वीकार क्यों किया। खैर, इसके पीछे की वजह तो सामने आएगी ही, लेकिन हमें पहले आश्चर्य की इस भावना से बाहर आना होगा कि हमारे लोग क्या पूरी दुनिया में कैसे पहुंच सकते हैं। पिछले दो हजार वषोंर् में पश्चिम एशिया में पले -बढ़े दो सेमेटिक पंथ, ईसाइयत और इस्लाम पूरी दुनिया में फैले, इसमें संदेह नहीं है। उसी तरह भारत का बौद्ध मत पूरे विश्व में फैला था, यह मान लेने में हमें अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता। आज भी चीन, जापान, मंगोलिया, म्यांमार, श्रीलंका सहित करीब 30 देशों में  बौद्ध धर्म मुख्य धर्म है। उसी के अनुसार और  तीन-चार हजार वर्ष पीछे जाएं तो वैदिक सभ्यता और योग सभ्यता वाले लोग किस तरह बाहर गए, इसके निशान भी  दिखने लगेंगे।
इसमें एक बात सच है कि हमारे लिए रोजमर्रा के जीवन में अधिक खोजबीन करना संभव नहीं है। लेकिन आज समय ऐसा आया है कि भारतीय सभ्यता की पुरातनता का अनुसंधान जिस तरह पुराने ग्रंथों और मठ-मंदिरों में मिल सकता है उसी तरह विज्ञान के शोधकायोंर् में भी मिल सकता है। इस दृष्टि से हैदराबाद (भारत) और जर्मनी की एक संस्था के शोध काफी महत्वपूर्ण हैं। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एण्ड मोलिक्युलर बायोलॉजी संस्था द्वारा घुमन्तु समुदाय के 10 हजार रक्त-नमूनों की 'वाई क्रोमोसोम' जांच में हर एक नमूने से स्पष्ट हुआ है कि उनका मूल भारत में था। आस्ट्रेलिया में डिंगो कुत्ते का चार हजार वर्ष पूर्व का जीवाश्म मिला था। जर्मन शोधकर्ताओं ने पाया कि वह मूलत: भारत से था। उसके आधार पर अनेक स्थानों पर मूलत: भारतीय रहे लोगों के जीवाश्म मिलने शुरू हुए। गहन शोधकार्य करने पर यह स्पष्ट हुआ कि भारतीय लोग चार हजार साल पहले आस्ट्रेलिया पहुंचे थे अर्थात् जीवाश्म और 'वाई क्रोमोसोम' के आधार पर यह सिद्ध होने की अपनी सीमाएं हंै, क्योंकि इस दौरान काफी समय बीत चुका होता है।  जीवनशैली पर प्रभाव का शोधकार्य करना प्रतिभा और अध्ययन का विषय है। आज भी यूरोप, पश्चिम एशिया, अफ्रीका के कई देशों में भारतीय जीवनशैली एवं भारतीय दर्शन के प्रभाव दिखते हैं। लेकिन पर्याप्त सबूतों की जरूरत तो होती ही है। आज भी सैकड़ांे स्थानों पर  इस बारे में प्रमाणों के भंडार भरे पड़े हैं। उनकी जांच करने की जरूरत है।

 भगवान बुद्ध के समय में बौद्ध धर्म का क्षेत्र केवल मगध और कौशल प्रदेशों तक ही सीमित था। बाद में मथुरा, उज्जयिनी, तक्षशिला, भरूच, सौराष्ट्र, आंध्र, तमिलनाडु और श्रीलंका तक पहंुचा था। इस धर्म का प्रभाव जिस तेजी से भारत में हुआ उससे कहीं अधिक तेजी से भारत के बाहर हुआ। सीरिया, ग्रीस, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका, अफगानिस्तान, ईरान, मंगोलिया, मंचूरिया, चीन जैसे क्षेत्रों में वह बढ़ता गया। सम्राट अशोक ने इसके प्रसार के लिए अपने दूत भेजे थे। उसी तरह विदेशी प्रसारक भी बड़े पैमाने पर इसमें मदद देने के लिए आगे आए। मिस्र के टलेमी उसका एक बड़ा उदाहरण हैं।  टलेमी के सौतेले भाई मैगेरस ने पूरे यूरोप में बुद्ध धर्म का प्रचार किया। भारत में उसका स्वरूप निरीश्वरवादी था, लेकिन कर्मसिद्धांत और पुनर्जन्म का उसमें समावेश होने के कारण भारतीय विचार परंपरा में उसका स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है। विदेशों में तो आज भी चीन, बर्मा, तिब्बत और जापान में बौद्ध देवताओं के मंदिर हैं। जैसे प्रज्ञापारमिता, श्वेततारा, अवलोकितेश्वर, मैत्रेय, श्वेतजंबल आदि। इन मंदिरों की संख्या हजारों में है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सभी बातें ऐतिहासिक चरण में हैं। भारतीय सभ्यता के अध्यात्म, योग, आयुर्वेद जैसे विज्ञानों के दुनिया भर में प्रसार के चिन्ह उसके भी पार कई सदियों तक के हैं।
आज फिर नवचेतना का समय आया है, यह भुलाया नहीं जा सकता। पिछले एक हजार वर्ष के दौरान  हमारे ग्रंथ जलाए गए, यह दुर्भाग्यपूर्ण  और वेदनादायक बात तो है, लेकिन फिर भी उस प्रतिकूल समय में भी उस दौर के अग्रणी लोगों ने उनमें से अनेक ग्रंथ तिब्बत, नेपाल, बर्मा, चीन, कंबोडिया जैसे देशों में स्थानांतरित कर दिए थे, इसके सबूत मिल रहे हैं। वहां से अन्य कई ग्रंथ भी मिल रहे हैं। तूफान के गुजरने के बाद जिस तरह समंदर में फंसा नाविक तूफान में क्या नष्ट हुआ और क्या बचा रहा, इसका अनुमान लेता है, कुछ वैसी ही स्थिति हमारी थी। हमारा तूफान तो एक हजार साल पुराना था। आज भी एशिया, यूरोप, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में प्रमाण मिल रहे हैं, लेकिन उस अनुपात में अमरीका में प्रमाण काफी पुराने हैं।
 भारतीय योग विद्या और वेद विज्ञान के  दुनियाभर में विस्तार पर विचार करते समय इस बात का भी इसी पैमाने पर विचार होना चाहिए कि ये भारतीय विज्ञान विश्व के आकर्षण क्यों बने। इन विधाओं के विस्तार में योग अध्ययन एक बहुत छोटा सा उदाहरण है। योगाभ्यास किसी भी व्यायाम का विकल्प नहीं है, किसी अध्यात्म का  विकल्प नहीं है और किसी धर्म का भी विकल्प नहीं है। लेकिन वह एक ऐसी विधा है जिसमें व्यायाम तो होता ही है, साथ ही धर्म के समृद्ध अध्ययन की तैयारी भी होती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से देखा जाए तो बेहद गंभीर बीमारियां योगाभ्यास से ठीक होनी शुरू होती हैं, यह पूरे विश्व का अनुभव है। जो चिंतन योगाभ्यास का है वही आयुर्वेद, संगीत, न्याय, व्याकरण का भी है। आयुर्वेद की दृष्टि से रोगी की बीमारी ठीक करने का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उसका स्वास्थ्य पूरी तरह से ठीक रहना अर्थात् मनुष्य का उचित स्वरूप प्राप्त होना ही महत्वपूर्ण होता है। योग, आयुर्वेद के विज्ञान को विश्व, खासकर पश्चिमी दुनिया ने समझना शुरू कर दिया है। संगीत का भारतीय विज्ञान के रूप में परिचय होना शुरू हुआ है। इन तीन विज्ञानों की तरह न्याय और व्याकरण जैसे विज्ञान और साथ ही पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा का भी उद्देश्य वही है। भारतीय विज्ञान की व्यापकता और पश्चिमी विज्ञान की आधुनिकता, इन दोनों का एकत्रित विचार हो तभी उसे नई गति मिलेगी। सूचना तकनीक की अनूठी गति के कारण हर तरह के विज्ञान का एक-एक मुद्दा कई विज्ञानों की मदद से प्रगाढ़ हुआ है। इसलिए उसका परिणाम भी उतना ही व्यापक है, इस बारे दो राय होने का कारण नहीं है। लेकिन योग व आयुर्वेद के सहित प्रत्येक भारतीय विज्ञान का अंतिम लक्ष्य मनुष्य का कल्याण है, इसलिए उनका महत्व भी उतना ही व्यापक है।
आज सूचना तकनीक ने अन्य सभी विज्ञानों को प्रभावित किया है। उनकी तुलना भारतीय विज्ञानों से करनी है अथवा नहीं, इसका निर्णय उन क्षेत्रों के जानकार करेंगे। लेकिन एक बात सच है कि किसी भी विज्ञान को संभालने के लिए आवश्यक कुंजीपटल की तुलना में भारतीय विज्ञान को संभालने वाला कुंजीपटल कम्प्यूटर के 'की बोर्ड' से भी सरल एवं अधिक प्रभावी था। वह अत्यंत कम श्रम में अधिग्रहित किया जा सकता था। त्रिदोष सिद्धांत, पंचमहाभूत सिद्धांत और सप्तधातु सिद्धांत की परिभाषा में केवल मुख से उच्चारण होने वाली पद्धति से अत्यंत कूट विषयों का चिंतन किया जाता था। इन सूत्रों के आधार पर अथवा कुंजीपटल की सहायता से एक शास्त्र आत्मसात होते ही, अन्य शास्त्रों का भी आकलन किया जाता था। आज दुनिया के वैज्ञानिक विकास के बीच व्यक्ति के विकास का उद्देश्य सामने रखकर भारतीय ऋषि-मुनियों ने जो विकास किया था, उसे देखकर आश्चर्य होता है। आज भी हम देखते हैं कि योगाभ्यास में किसी आसन में रुचि आने के साथ-साथ उसके महत्व एवं उपयोग पर नजर जाती है। उसी तरह जब भारतीय ज्ञान संपदा पूरे विश्व में पहुंची होगी तब वहां उस काल के लोगों में भारतीय विषयों में इसी तरह रुचि पैदा हुई होगी।
 आज इस पूरे  विषय की ओर नए नजरिए से देखने का समय आया है। यह काम जल्दबाजी से नहीं होगा, लेकिन अब इसमें और देर भी नहीं की जा सकती। अपनी जिम्मेदारियां संभालते हुए इस काम के लिए समय देने को युवाओं को आगे आने की आवश्यकता है।

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