आवरण कथा - समता और सम्मान
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आवरण कथा – समता और सम्मान

by
Sep 14, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Sep 2015 11:00:23

पुरानी गांठें, गंुजल भरी उलझनें, परत दर परत जमीं सलवटें और पेचों में फंसी पेचीदगियां सुलझने में, सुधरने में वक्त लगता ही है। पर जब वे सुलझती हैं और उलझनें दूर होती हैं तो मन भीतर तक चहक उठता है, दिल में राहत महसूस होती है, आगे की राह सुहानी दिखने लगती है। कुछ ऐसा ही हुआ है ओआरओपी के मामले में। लंबे समय से आंदोलनरत सैनिकों की उलझनें, दिक्कतें दूर करने के लिए भारत सरकार ने 5 सितम्बर, 2015 को भरी प्रेस वार्ता में घोषणा की कि केन्द्र सरकार सैनिकों की इस मांग को मानती है, ओआरओपी लागू करती है, जुलाई, 2014 से यह योजना लागू होगी, आधार वर्ष 2013 होगा, बकाया राशि का भुगतान चार अर्द्धवार्षिक किश्तों में दिया जाएगा जबकि सैन्य विधवाओं को यह राशि एकमुश्त दी जाएगी, एक सदस्यीय कमेटी इस योजना के तमाम पहलुओं को देखेगी और 6 महीने में अपनी रपट जारी करेगी। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर संजीदा छवि वाले हैं, सो सैनिकों ने उनके द्वारा की गई इस घोषणा का दिल खोलकर स्वागत किया। उन्होंने राहत महसूस की कि कम से कम इस सरकार ने पहले की सरकारों की तरह मीठी-मीठी बातों का झुनझुना नहीं थमाया, झूठे वादे नहीं किए, ठोस काम किया, गुणा-भाग किया और दो महीने के अंदर इस पर अमल शुरू हो जाने की बात कही। सैनिकों के दिल को राहत मिलनी ही थी। 85 दिन से नई दिल्ली के दिल जंतर मंतर पर बैठे पूर्व सैनिकों ने सरकार के इस फैसले पर खुशी जताई, हालांकि कुछ बातों को और स्पष्ट करने की बात भी कही और चूंकि मामला पुराना है, पेचीदा है, इसलिए लिखित आदेश होने तक आंदोलनरत पूर्व सैनिकों के एक गुट ने प्रतीकात्मक रूप से आंदोलन जारी रखने की बात कही।   
'73 के बाद से अब तक यमुना में बहुत पानी बह चुका है, कई सरकारें आईं और चली गईं लेकिन किसी ने सैनिकों की इस जायज मांग के प्रति न गंभीरता दिखाई, न किसी सरकारी महकमे से इस पर नजर भर डालने को कहा। ठंडे बस्ते में डाला जाता रहा यह मुद्दा आखिरकार नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार ने सुलझाया है। आखिर यह मुद्दा है क्या, चार दशक से उठती आ रही इस मांग को मानने में पहले की सरकारों ने  ढिलाई क्यों दिखाई, इसका लाभ किसे मिलेगा, क्यों मिलेगा, कैसे मिलेगा, कब मिलेगा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो किसी न किसी रूप में सामने आते रहे हैं। इन पर एक-एक कर चर्चा करेंगे तो बात साफ समझ में आती जाएगी।     
 ओआरओपी यानी 'वन रैंक वन पेंशन' यानी एक सा पद एक सी पेंशन। भारतीय सेना के तीनों अंगों से सेवानिवृत्त होने वाले हमारे रणबांकुरों की बरसों से चली आ रही थी यह मांग, कि 'हम जिस पद से रिटायर हुए हैं उसी पद से हमारे बाद रिटायर होने वाले जवान/अफसर के बराबर की हमें पेंशन दो'। 1973 तक यही होता भी था। पर उस साल तीसरे वेतन आयोग ने कह दिया कि, फौजियों को भी पेंशन दूसरी सरकारी नौकरियों की तर्ज पर ही मिला करे। हंगामा खड़ा होना था, सो हुआ। फौजी देश की सुरक्षा में चौबीसों घंटे सन्नद्ध रहते हैं, सीना तानके मोर्चा संभालते हैं, दुश्मन को खदेड़कर देश के स्वाभिमान की रक्षा करते हैं, हम चैन से अपने घर-बार में मस्त रहें इसके लिए वे अपने घर-बार से दूर गर्म रेगिस्तान में, बर्फ ढके ग्लेशियरों पर पहरा देते हैं। जाहिर है सैनिकों को यह बात नहीं पच सकती थी, और पची भी नहीं। आंदोलन शुरू हो गया। मांग की जाने लगी कि 'हमें सरकारी बाबुओं की तरह मत देखो। हमारी उनसे बराबरी मत करो। हमारी पेंशन हमारे रैंक के हिसाब से दो। जिस पद से कोई जवान, सूबेदार, अफसर रिटायर हुआ है उसको उसी पद से उसके बाद में रिटायर होने वाले जवान, सूबेदार, अफसर के बराबर पेंशन दो, समय से पहले रिटायर हो जाने वाले सैनिक को भी पेंशन की सुविधा दो।' 1973 में शुरू हुआ था वह आंदोलन। तब आंदोलन में जुटे पूर्व सैनिकों को लगा था कि हमारी इस मांग को सरकार अनदेखा नहीं करेगी, कोई हल जरूर निकालेगी। लेकिन तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सलाहकारों ने इसे गौर करने लायक नहीं समझा। सैनिक '71 के युद्ध में देश को जिता चुके थे। उनको लगा, आज नहीं तो कल सरकार उनकी बात को वजन देगी। पर ऐसा नहीं हुआ। होते-होते 42 साल गुजर गए। किसी ने इस बीच सुध नहीं ली। '99 में कारगिल युद्ध में भी रणबांकुरों ने बर्फ ढकी चोटियों पर गजब की वीरता दिखाते हुए पाकिस्तान के दांत खट्टे किए। यानी सशस्त्र सेनाओं ने अपने कर्तव्य को पूरी निष्ठा के साथ निभाया। लेकिन 1999 बीता, 2000 बीता, 2010 बीता। ज्यादातर कांग्रेस की सरकारें रहीं, जिनकी नीति न जय जवान की थी, न जय किसान की। लूटो, खाओ और खिलाओ की आपाधापी में देश के महत्वपूर्ण मुद्दे अछूते रहे। साउथ ब्लॉक में वक्त नहीं था किसी के पास। क्यों नहीं था? सैनिकों की सुध लेने को मना किसने किया था?
लेकिन आज आंदोलन से जुड़े रहे ज्यादातर सैनिक संतुष्ट हैं और सरकार को भर-भर धन्यवाद दे रहे हैं। जंतर मंतर पर धरना देने वाले फौजियों की तादाद अब उतनी नहीं रही, विरोध अब सिर्फ प्रतीकात्मक रह गया है। 5 सितम्बर को रक्षा मंत्री द्वारा इस मामले में सारे किन्तु-परन्तु दूर कर देने के बाद अगले दिन यानी 6 सितम्बर को फरीदाबाद (हरियाणा) में एक रैली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पूर्व सैनिकों की मांग को पूरी तरह सम्मान के साथ स्वीकारते हुए घोषणा की कि अब इस ओआरओपी योजना को लागू करने में देर नहीं की जाएगी। देश की सेवा करने वाले और शहीद होने वाले सैनिकों का सम्मान सर्वोपरि है। जरूरी है राष्ट्रनीति, न कि राजनीति। प्रधानमंत्री के इस कथन के बाद अब संदेह की गुंजाइश ही कहां बची थी।
पूरे मामले पर पाञ्चजन्य से बात करते हुए वाइस एडमिरल (सेनि) शेखर सिन्हा ने कहा कि इसमें संदेह नहीं है कि 40 साल से लटके विषय पर आज हमें एक उपलब्धि प्राप्त हुई है। 1973 तक ओआरओपी योजना लागू थी, पर फिर उस पर रोक लगा दी गई। 37 साल की उम्र में रिटायर होने के बाद बढ़ती महंगाई के इस दौर में एक फौजी मामूली सी पेंशन पर गुजारा करने को मजबूर था। इस दृष्टि से ओआरओपी योजना उनके लिए एक राहत की तरह ही है। योजना के लागू होने से पहले इसे लेकर जो संदेह जाहिर किए गए हैं उनके बारे में वाइस एडमिरल सिन्हा ने कहा, 'इसके क्रियान्वयन में जो कठिनाइयां हैं वे भी धीरे-धीरे दूर हो जाएंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। आज सेना के तीनों अंगों के अफसर, जवान फौजी परिवारों की तीसरी पीढ़ी से आते हैं, उनको आर्थिक दृष्टि से सबल बनाने के लिए यह एक बड़ा कदम है। इसके लिए इस सरकार का धन्यवाद है।'
ओआरओपी के लिए सरकार पर 10 से 12 हजार करोड़ रु. का अतिरिक्त आर्थिक भार पड़ेगा, लेकिन सरकार पूरी तैयारी के साथ इस पर आगे बढ़ने का मन्  ा बना चुकी है। इस सरकार की वैसी टालमटोल की फितरत नहीं है जैसी इससे पहले कांग्रेसनीत सरकार की रही थी और जिसके वित्त मंत्री चिदम्बरम ने बिना जोड़-बाकी की कसरत किए जाने कैसे 500 करोड़ रु. इस मद में देने को कहा भर था, जो ऊंट के मुंह में जीरा बराबर भी न रहते। पर उनको टालना था सो टाल गए। इसीलिए जंतर मंतर पर आंदोलन पर बैठे पूर्व सैनिकों के प्रति कांग्रेसियाई सहानुभूति जताने पहंुचे राहुल गांधी की वहां ऐसी छीछालेदर हुई कि मुंह छुपाकर निकल जाना पड़ा। महंगाई के इस दौर में जवानों का घर कैसे चलता है, उनको शायद इस बात का रत्तीभर एहसास नहीं हुआ कभी।
सेना में शामिल जवानों को 15 साल की और अफसरों को 20 साल की सेवा के बाद पीएमआर की सुविधा मिलती है। मोटे तौर पर 35 साल की उम्र में रिटायर होने वाले जवान 3-4 हजार रु. की पेंशन पर घर चलाने को मजबूर होते हैं, ज्यादा हुआ तो किसी सिक्योरिटी एजेंसी में नाममात्र तनख्वाह पर गार्ड की नौकरी मिल जाती है। तो क्या दो-तीन बच्चों के परिवार का इतने में गुजारा चल जाता है? नहीं। देश के लिए जान हथेली पर रखने वाले उस जवान को हर वक्त पैसे की तंगी सालती है। ऐसे में अब ओआरओपी योजना लागू होने के बाद उस जवान को 9-10 हजार रु. की पेंशन मिलेगी।
दिल्ली के पालम क्षेत्र के निवासी फ्लाइंग ऑफिसर (सेनि) आर. डी. नांगिया के शब्दों में उसी टीस की कुछ झलक मिली। पाञ्चजन्य से बात करते हुए भावुक होकर उन्होंने सरकार को कई बार धन्यवाद दिया यह योजना लागू करने के लिए। सेना में 1962 में शामिल होने के बाद फ्लाइंग ऑफिसर नांगिया ने 62, 65 और 71 के युद्धों में भाग लिया, जांबाजी से कर्तव्य निभाया। अगस्त 2001 में सेवानिवृत्त हुए। तब उनको करीब 4000 रु. पेंशन मिलती थी जो आज थोड़ी-थोड़ी बढ़ते हुए 13 हजार तक पहंुच पाई है। ओआरओपी की घोषणा के बाद उनके दिल को टटोला तो उनका कहना था, जो मुद्दा 40 साल से लटका था उसे इस सरकार ने अभी महज 16 महीने के कार्यकाल में ही बड़ी समझदारी से सुलझाया है। हालांकि उनकी साफगोई तब और झलकी जब हमने उनसे पूछा कि यह योजना लागू होने के बाद आपकी पेंशन कितनी हो जाएगी? उन्होंने बस इतना कहा, 'मैंने इसका हिसाब ही नहीं लगाया पर इतना तय है कि अब थोड़ी सम्मानजनक पेंशन मिलेगी।' एक और बात उन्होंने बताई कि योजना के तहत नीचे की रैंक के सैनिकों से ज्यादा अफसर रैंक वालों को लाभ मिलेगा, क्योंकि राशि का 97 फीसदी हिस्सा अफसरों के बकाया के लिए निर्धारित किया गया है और 3 फीसदी जवानों के लिए। ये अंतर दूर होना चाहिए। कुछ मिलाकर अब उनको उतनी ही पेंशन मिलेगी जितनी 2014 में इस पद से रिटायर होने वाले को मिलती है। इसी बात पर कर्नल (सेनि) सूरजभान मलिक कहते हैं कि आज जो पूर्व सैनिक 70-80 साल के हो चुके हैं उनको इस योजना से बहुत राहत मिलेगी। इसके लिए हम आज की राजग सरकार के आभारी हैं।
जंतर मंतर जाकर आंदोलन में शामिल रहे विंग कमांडर (सेनि) जसबीर चड्ढा भी इस सरकार के फैसले से खुश दिखे। हमसे बातचीत में उन्होंने कहा कि बात सिर्फ पैसे की नहीं थी, बड़ा मुद्दा है सेना का गौरव लौटाना। उनको इस बात की चिंता है कि नौजवान सेना की तरफ आकर्षित नहीं हो रहे हैं। पिछले 10 साल में बड़े-बड़े मैनेजमेंट संस्थानों से कितने ही नौजवान निकले हैं पर उनमें से एक भी सेना में भर्ती नहीं हुआ है। कारण साफ है। उनको लगता है यहां आर्थिक रूप से कोई भविष्य नहीं है, घर-परिवार ठीक से चलाने लायक पैसा नहीं मिलता। इतना ही नहीं, जिन परिवारों के लोग पीढि़यों से फौज में शामिल होते रहे हैं आज उन्हीं के बच्चे सेना से दूर जा रहे हैं। दूसरी नौकरियों में इतना पैसा दिया जाता है। पहले की सरकारों ने सेना से यह भेदभाव क्यों किया? उन्होंने जोश भरे लहजे में कहा कि किसी सेना का असली दमखम उसके सैनिक होते हैं, हथियार और बाकी मशीनरी तो बाद में आती है। सैनिकों का गौरव हो तो वे बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना कर सकते हैं। उनको अनदेखा करना देश की सुरक्षा की अनदेखी करने के बराबर है। इसलिए धन्यवाद है इस सरकार का जिसने इतने साल से टाले जाते रहे सेना के गौरव से जुड़े इस मुद्दे को सुलझाया है।
इसमें कोई संदेह-शुबहा नहीं है कि ओआरओपी का मुद्दा सैनिकों की आन से जुड़ा रहा है। यह उनको इतने भीतर तक झकझोर गया था कि फरवरी 2009 में विभिन्न राज्यों से हजारों की तादाद में नई दिल्ली में इकट्ठे होकर पूर्व सैनिकों ने उस समय देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को अपने-अपने मेडल लौटा दिए थे। राष्ट्रपति भवन के सामने मेज पर परमवीर चक्र, महावीर चक्र, वीर चक्र और दूसरे तमगों का अंबार लग गया था। सब के सब राष्ट्रपति भवन के नुमाइन्दे को लौटाए गए थे। लेकिन तबकि सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। दूसरी तरफ 2013 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित होने के फौरन बाद हरियाणा के रेवाड़ी में एक रैली में नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक तौर पर  घोषणा की थी कि देश के सैनिकों को अब और अपमान नहीं सहना होगा, अपनी जायज मांग के लिए अब और इंतजार नहीं करना होगा। उनकी सरकार बनते ही इस दिशा में निर्णायक कदम बढ़ाया जाएगा। और वही हुआ। नई दिल्ली में कुर्सी संभालने के 16 महीने बीतते न बीतते ओआरओपी योजना लागू करने की घोषणा हो गई। इस समय देश में 26 लाख से ऊपर पूर्व सैनिक हैं और 6 लाख से ज्यादा सैनिकों की विधवाएं हैं जिनको इस योजना के लागू होने पर सीधा फायदा होगा। फिलहाल जो घोषणा की गई है उसमें कई ऐसी चीजें हैं जिन पर पूरी स्पष्टता की मांग कुछ पूर्व सैनिक कर रहे हैं। जैसे, वीआरएस और पीएमआर का धंुधलका, समीक्षा की 5 साल की अवधि जबकि आंदोलनकारी सैनिक 2 साल में समीक्षा की मांग कर रहे थे। सरकार द्वारा प्रस्तावित एक सदस्यीय न्यायिक समिति और 6 महीने में रपट सौंपने की बात के बरअक्स पूर्व सैनिकों की मांग है समिति सीधे रक्षा मंत्री के अंतर्गत काम करे और रपट एक महीने में दे। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर कुछ और स्पष्टता की मांग है। जैसे, सरकार ने 'वीआरएस लेने वाले सैनिकों को ओआरओपी के दायरे से बाहर' रखने की बात कही तो पूर्व सैनिकों का एक बड़ा वर्ग संशय में पड़ गया कि ये फौज में वीआरएस जैसी चीज कहां से आ गई। सेना में तो पीएमआर यानी समय-पूर्व रिटायरमेंट ली जाती है। इस पर कर्नल (सेनि) सूरजभान मलिक ने नौकरशाही पर उंगली उठाई। उनका कहना था कि बड़े नौकरशाह सेना के प्रति पता नहीं क्यों तिरछी नजर रखते हैं। हमारी जायज मांग थी कि पीएमआर लेने वालों को भी वन रैंक वन पेंशन के दायरे में रखा जाए, पर यह बात कहां से आ गई कि 'सेना में वीआरएस लेने वालों को इसका लाभ नहीं मिलेगा'? हमारा शांतिपूर्ण और फौजी अनुशासन में चला पूरा आंदोलन कुछ लोगों को रास नहीं आया और वीआरएस जैसी बातें उछाली गईं।
सारी बात होती है नीयत की। ओआरओपी पर मौजूदा केन्द्र सरकार ने जिस तत्परता और तैयारी के साथ कदम बढ़ाया है उससे इतना तो सूरज के उजाले की तरह साफ हो गया कि इस सरकार की मंशा नेक है। जो एकाध बात अटकी महसूस हो भी रही है तो उस पर सही फैसला लिया जाएगा, इसका तो भरोसा सबको है। भारत की सशस्त्र सेना बहादुरी और दमखम में दुनिया में अपनी अनूठी साख रखती है। कारगिल की पहाडि़यों पर हमारे जवानों ने जो गौरवगाथा लिखी है, जो छाप छोड़ी है, वह आने वाली कई पीढि़यों तक भारत की शूरवीरता का परचम लहराती रहेगी। वक्त के दौर में आती रहीं सलवटें सुलझती रही हैं, सुलझती रहेंगी।          -आलोक गोस्वामी

 

यह है ओआरओपी और उसके प्रावधान
– ओआरओपी 1973 से सैनिकों की एक रैंक एक पेंशन की मांग रही थी।
– 42 साल  बाद राजग सरकार ने यह योजना लागू करने की घोषणा की है।
-इसके तहत, उदाहरण के लिए, 1980 में लांसनायक पद से सेवानिवृत्त होने वाले सैनिक को 2014 में इसी पद से सेवानिवृत्त होने वाले सैनिक के  बराबर ही पेंशन मिलेगी।
– एक सदस्यीय कमेटी छह माह में तमाम बारीकियों पर विचार करके रपट सौंपेगी।
– सरकार ने इस मद में 10 से 12 हजार करोड़ रु. देने की घोषणा की है जो 2013 को आधार वर्ष मानकर जुलाई 2014 से बकाया राशि का भुगतान करेगी, सैनिकों को 4 अर्द्धवार्षिक किश्तों में और सैन्य विधवाओं को एकमुश्त।

सार्थक हुआ 'जय जवान' का नारा
नई दिल्ली में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने सेवानिवृत्त सैनिकों के लिए 'वन रैंक, वन पेंशन' देने की घोषणा की। इसके बाद इस मामले में कुछ राजनीतिक दलों ने अनेक भ्रांतियां पैदा करने की कोशिश की। 6 सितम्बर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फरीदाबाद की सभा में इन भ्रांतियों को दूर करते हुए कहा कि सभी प्रकार के सेवानिवृत्त सैनिकों को 'वन रैंक, वन पेंशन' दी जाएगी। इसके बाद करीब 26 लाख सेवानिवृत्त सैनिकों और उनके परिवार वालों ने जमकर खुशियां मनाईं। बात खुशी मनाने की ही है।  पूर्व सैनिक 42 वर्ष से 'वन रैंक, वन पेंशन' की लड़ाई लड़ रहे थे। इस दौरान कितनी सरकारें आईं और गईं, लेकिन किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केवल 16 महीने में इस मुद्दे को हल करके यह साबित कर दिया है कि वे जो कहते हैं, वही करते हैं। उन्होंने 'जय जवान' के नारे को सार्थक किया है।
आखिर यह 'वन रैंक, वन पेंशन' है क्या? 'वन रैंक, वन पेंशन' के तहत वर्षों पहले सेवानिवृत्त हुए एक सैन्य अधिकारी को उसी पद पर आज की तारीख में सेवानिवृत्त होने वाले सैन्य अधिकारी के बराबर ही पेंशन मिलेगी। यही पुराने जवानों और आज की तारीख में सेवानिवृत्त होने वाले जवानों के साथ भी होगा। बशर्ते इन अधिकारियों/ जवानों के पद और नौकरी की अवधि समान हों। उदाहरण के लिए, 1970 या उसके बाद भी सेवानिवृत्त होने वाले फौजियों को आज की तारीख में सेवानिवृत्त होने वाले फौजियों के बराबर ही पंेशन मिलेगी।  
'वन रैंक, वन पेंशन' की मांग 1973 से ही की जा रही थी। उससे पहले सेनाकर्मियों को उनके अन्तिम वेतन का 70 प्रतिशत हिस्सा पेंशन के रूप में मिलता था। यानी जिस फौजी का अन्तिम वेतन 10,000 रु.  होता था, उसे 7,000 रु. पेंशन मिलती थी। जबकि अन्य सरकारी कर्मचारियों को उनके अन्तिम वेतन का 30 प्रतिशत भाग पंेशन के रूप में मिलता था। 1973 में तृतीय वेतन आयोग ने कहा कि फौजियों और अन्य सरकारी कर्मचारियों को उनके अन्तिम वेतन का 50 प्रतिशत हिस्सा पेंशन के रूप दिया जाए और इसे लागू कर दिया गया। सेना के अधिकारियों और जवानों ने उसी समय इसका विरोध किया था। सरकार ने उस समय उनकी मांग को लागू करने का वादा किया था। इसके बावजूद यह मामला 2015 तक लटकाया जाता रहा।
फौजी 'वन रैंक, वन पेंशन' के लिए बराबर संघर्ष कर रहे थे। संप्रग सरकार के समय भी फौजियों ने इसके लिए धरना-प्रदर्शन किया था। उस समय की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल से भी फौजी मिले थे और विरोधस्वरूप उन्हें अपने पदक वापस कर दिए थे। फौजियों ने अपने रक्त से हस्तक्षारित पत्र भी राष्ट्रपति को सौंपा था।
इसके बाद 13 सितम्बर, 2013 को नरेन्द्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। इसके दो दिन बाद यानी 15 सितम्बर, 2013 को रेवाड़ी में पूर्व सैनिकों की एक रैली को सम्बोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि यदि उनकी सरकार बनी तो 'वन रैंक, वन पेंशन' लागू की जाएगी। इसके बाद राज्यसभा की याचिका समिति, जिसके अध्यक्ष थे भगत सिंह कोश्यारी, ने भी सिफारिश की कि 'वन रैंक, वन पेंशन' दी जाए। 2014 के प्रारंभ में पूर्व सैनिकों ने राहुल गांधी से भी भेंट की थी। इसके बाद तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने इसके लिए केवल 500 करोड़ रु. निर्धारित किए थे। यह बहुत ही कम राशि थी। इससे कुछ नहीं होने वाला था।
अब यह योजना 1 जुलाई, 2014 से लागू मानी जाएगी। बकाया राशि छह-छह महीने में चार किश्तों में दी जाएगी, लेकिन फौजियों की विधवाओं को यह एक ही साथ मिलेगी। इससे सिपाही से लेकर ब्रिगेडियर पद तक के सैन्यकर्मियों को लाभ मिलेगा। ब्रिगेडियर से ऊपर के सैन्य अधिकारियों को पहले से ही समान पेंशन मिलती है।
कुछ लोग कह रहे हैं कि सैन्यकर्मियों को 'वन रैंक, वन पेंशन' देने से अन्य विभागों के कर्मचारी भी इसकी मांग करने लगेंगे। लोगों को समझना चाहिए कि फौज में सबसे नीचे का व्यक्ति 35-37 वर्ष में सेवानिवृत्त हो जाता है, जबकि अधिकारी 54 वर्ष में। लेकिन अन्य विभागों में काम करने वाले 60 वर्ष के बाद ही सेवानिवृत्त होते हैं। उन्हें काफी समय नौकरी करने का अवसर मिलता है। इसलिए फौज से उनकी तुलना ठीक नहीं है।

 ओआरओपी-इतिहास के आईने में

1973      सशस्त्र बल में वन रैंक वन पेंशन लागू थी, तीसरे वेतन आयोग ने इसे बाकी सरकारी महकमों की पेंशन के बराबर कर दिया।
1980    इस  दशक में वन रैंक वन पेंशन को लेकर मुहिम तेज हुई।
1982     तत्कालीन प्रघानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्व सैनिकों की मांग से कोरी सहमति जताईं।
1984    केपी सिंह देव की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी,जिसने 62 सूत्री सिफारिशें सौंपीं। लेकिन इंदिरा गांधी के निधन के बाद मामला ठंडे बस्ते में चला गया।
1989    वीपी सिंह की सरकार ने ओआरओपी लागू करने  की  बजाय पेंशन बढ़ा दी।
1991    तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव भी इस पर प्रस्ताव पारित नहीं करा सके।
2001    अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कमेटी तो बैठी पर कोई फैसला नहीं ले सकी।
2003    रक्षा कमेटी ने सिफारिश की ,लेकिन सरकार ने वह खारिज कर दी।
2008     पूर्व सैनिकों का दिल्ली के जंतर मंतर पर बड़ा प्रदर्शन हुआ।
2009    सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को ओआरओपी पर आगे बढ़ने का निर्देश।
2010    सम्बंधित मामले में बनी स्थायी समिति द्वारा इसे लागू करने की सिफारिश।
2013    भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने इसे लागू करने का वादा किया।
2014    अंतरिम बजट में प्रस्ताव मंजूर,500 करोड़ रुपये का बजट रखा गया। पहले पूर्ण बजट में इसके लिए 1000 करोड़ रुपये अलग से रखने की बात कही।
2015    दिल्ली के जंतर मंतर पर जुटे पूर्व सैनिक अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे।
2015     5 सितंबर को सरकार ने ओआरओपी को मंजूरी देते हुये इसे दो महीने के भीतर लागू करे का ऐलान किया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी व विशेषज्ञों का धन्यवाद जिनके मार्गदर्शन में इतना पुराना मुद्दा हल हो सका।                                              
-मनोहर पर्रिकर, रक्षा मंत्री
वन रैंक वन पेंशन मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी की सकारात्मक पहल पर बधाई।
-जनरल वी. के. सिंह, केन्द्रीय विदेश राज्य मंत्री व पूर्व सेनाध्यक्ष
वन रैंक वन पेंशन का मसला चार दशकों से लंबित पड़ा हुआ था, जो अब साकार हो सका। केन्द्र सरकार पूर्व सैनिकों के कल्याण हेतु प्रतिबद्ध है।
-कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर, केन्द्रीय सूचना व प्रसारण राज्य मंत्री
वन रैंक वन पेंशन को सैद्धांतिक रूप से मंजूर करने के लिए सरकार की सराहना होनी चाहिए, लेकिन यह कहना कि पूर्व सैनिकों की 98 फीसद मांगें मान ली गई हैं, शायद यह पूरी तरह से सही नहीं है।
-दीपक कपूर, पूर्व सेना प्रमुख

ओआरओपी लागू होने से जवानों की आर्थिक स्थिति बेहतर तो होगी। जवानों, लांसनायकों के स्तर पर इससे काफी फर्क पड़ेगा। उनकी पेंशन में अच्छी बढ़ोत्तरी होने की उम्मीद जगी है। दरअसल हमारा मुख्य संघर्ष तो सेना की साख वापस लौटाने का है। आज का नौजवान सेना में शामिल होने से कतराता है क्योंकि उसे दूसरी सेवाओं में अच्छा वेतन और भत्ते मिलते हैं। सेना में अफसरों की कमी है, सब जानते हैं। इसलिए नई पीढ़ी को सेना की तरफ आकर्षित करने के लिए अच्छा वेतन और सुविधाएं देनी ही चाहिए। ओआरओपी से नीचे की रैंक वालों को ज्यादा लाभ पहुंचने वाला है। जिस जवान को महज 3-4 हजार की पेंशन मिलती थी अब वह 9-10 हजार होगी तो उसका घर अच्छे से चलेगा। सेना में जवानों, अफसरों की कमी चिंता का विषय है। यह बात देश की सुरक्षा से सीधे तौर पर जुड़ी है। सेना में सबसे अहम होता है मानव संसाधन। अगर वही कम हो तो सेना की ताकत कम ही होती है। मशीनरी और हथियारों से महत्वपूर्ण होता है सेना में संख्याबल जिसके बूते विएतनाम जैसा छोटा देश अमरीका जैसी महाशक्ति के छक्के छुड़ा देता है। हमारे जवान को अपनी पेंशन तक के लिए ऐसा संघर्ष करना पड़े, यह अच्छी बात तो नहीं है। पर इस सरकार के इरादे नेक लगते हैं तभी तो ओआरओपी के लिए सकारात्मक माहौल बना है।
                    -विंग कमांडर (सेनि) जसबीर चड्ढा

इसमें संदेह नहीं है कि 40 साल से लटके विषय पर आज हमें एक उपलब्धि प्राप्त हुई है। 1973 तक ओआरओपी योजना लागू थी, पर फिर उस पर रोक लगा दी गई। हो ये रहा था कि 37 साल सेवा देने के बाद बढ़ती महंगाई के इस दौर में एक फौजी मामूली सी पेंशन पर गुजारा करने को मजबूर था। इस दृष्टि से ओआरओपी योजना उनके लिए एक राहत की तरह ही है। इसके क्रियान्वयन में जो कठिनाइयां हैं वे भी धीरे-धीरे दूर हो जाएंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। आज सेना के तीनों अंगों के अफसर, जवान फौजी परिवारों की तीसरी पीढ़ी से आते हैं, उनको आर्थिक दृष्टि से सबल बनाने के लिए यह एक बड़ा कदम है। इसके लिए इस सरकार का धन्यवाद है।
-वाइस एडमिरल (सेनि) शेखर सिन्हा

 ओआरओपी लागू करने की घोषणा से हम पूर्व सैनिकों को बहुत राहत मिली है। इसमें संदेह नहीं कि यह मामला 40 से ज्यादा साल से लटकाया जाता रहा था, लेकिन मोदी सरकार ने इस पर एक कदम आगे बढ़ते हुए इसके समाधान की कोशिश तो की। मैं हृदय की गहराई से प्रधानमंत्री को धन्यवाद देता हूं। लेकिन इसके साथ मेरी कुछ शंका भी है। जवानों और अफसरों को मिलने वाली बकाया राशि के आवंटन को लेकर थोड़ी अस्पष्टता है। लेकिन हमें उम्मीद है यह जल्दी ही दूर हो जाएगी। कुल मिलाकर ओआरओपी पर हुई घोषणा एक तरह से 40 साल लंबी लड़ाई की एक उपलब्धि
कही जाएगी।
 -फ्लाइंग आफिसर (सेनि) आर. डी. नांगिया  

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