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उत्तराखण्ड राज्य की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में अरबों रुपए के खनन घोटाले का खुलासा हुआ है। यह जानकारी सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मिली है। भ्रष्ट अधिकारियों ने बाढ़ के बाद किसान के खेत में जमा रेत-बजरी को किसान का बताकर खनन माफियाओं के माध्यम से बेच दिया। जानकारी के अनुसार पिछले तीन साल में खनन माफियाओं ने अरबों रुपए का माल नदियों से निकालकर बाजार में बेच दिया। मामला सुर्खियों में आया तो मुख्यमंत्री हरीश रावत बोल रहे हैं कि यदि गलत हुआ है तो वे विशेष जांच दल से जांच करवाने को तैयार हैं।
कोयला आवंटन घोटाले की तर्ज पर ही यह घोटाला आरटीआई कार्यकर्ता योगेश साहनी से मिली जानकारी में खुलकर सामने आया है। उत्तराखण्ड सरकार ने खनन पट्टों को देकर अवैध तरीके से खनन करवाने में उत्तर प्रदेश-उत्तराखण्ड जमींदारी विनाशक व भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 का ही उल्लंघन कर डाला। इस अधिनियम के अनुसार बाढ़ के साथ बहकर आये रेत, बजरी और पत्थर पर सरकार का स्वामित्व होता है। अधिनियम की धारा 18 में स्पष्ट लिखा गया है कि 'एसडीएम' द्वारा जारी प्रमाणपत्र में भूमि यदि जलमग्न है तो उस भूमि पर किसान का भूमिधरी का अधिकार समाप्त हो जाता है। वहीं अधिनियम 132 यह कहता है कि किसान इस स्थिति में केवल क्षतिपूर्ति का ही अधिकार रख सकता है। ऐसा ही आदेश उच्चतम न्यायालय ने 24 मार्च, 1976 को भगवानदास बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में दिया था, जिसमें कहा गया है कि किसान की भूमि जिसमें नदी का बहाव आया हो और उसमें रेत, रोड़ी और पत्थर साथ आया हो, प्रशासन द्वारा जलमग्न किए जाने पर उक्त भूमि पर सरकार का स्वामित्व हो जाता है। ऐसी खनन सामग्री बाद में सरकार द्वारा नीलाम की जाती है न कि पट्टे देकर ठेकेदार से उसका खनन कराया जा सकता है। इन तमाम अधिनियमों और उच्चतम न्यायालय के आदेशों को अनदेखा करते हुए राज्य सरकार ने भूमि के पट्टे जारी कर दिए जिसमें किसानों के साथ, पट्टे धारकों से अनुबंध कर उन्हें खनन का अधिकार दे दिया गया।
इस बात पर भी गौर नहीं किया गया जिनसे पट्टे का अनुबंध किया जा रहा है, उन किसानों की भूमि के कागजात बैंक में गिरवी रखे हुए हैं। बिना बैंक की सहमति ऐसा अनुबंध नहीं किया जा सकता था। आरटीआई कार्यकर्ता योगेश साहनी बताते हैं कि राज्य में 600 से अधिक खनन पट्टे सरकार ने अपने चहेते कांग्रेसी ठेकेदारों के नाम जारी कर दिए। उन्होंने कालसी नदी व चकराता की मिसाल देते हुए बताया कि पट्टे में 200 गज भूमि के चुगान के लिए पांच वर्ष का समय देकर 300 ट्रक माल औसतन रोजाना नदी से निकाला जा रहा है। इसकी कीमत करीब तीन अरब रुपए की होती है।
ऐसी 14 नदियों में से 500 से अधिक स्थानों पर खनन अवैध तरीके से जारी है, जबकि उच्चतम न्यायालय द्वारा चुगान की अधिकतम सीमा तीन माह निर्धारित की गई। इस तरह से समय सीमा और खनन क्षेत्र में चुगान को लेकर पूरी तरह से घालमेल किया गया है, जबकि अधिनियम 331-क के अनुसार भूमि पर गैर कृषि कार्य करवाने के लिए 'लैंडयूज' बदलवाना जरूरी होता है, जो कि जेड. ए. श्रेणी की कृषि भूमि का हो ही नहीं सकता। इस संबंध में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत, राष्ट्रीय प्रवक्ता अनिल बलूनी, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रकाश पंत ने संयुक्त रूप से अध्ययन कर बताया कि उत्तराखण्ड सरकार ने करीब 1100 करोड़ रुपए का नुकसान सरकारी खजाने से किया है। वहीं हरिद्वार से भाजपा के सांसद डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक कहते हैं कि छह माह पूर्व वे इस विषय को लोकसभा में भी उठा चुके हैं। हरिद्वार में गंगा में खनन के विरुद्ध अनशन करने वाले वयोवृद्ध संत शिवानंद जी महाराज कहते हैं कि नदियों के किनारे खनन नहीं हो सकता, खनन के लिए नदी के दोनों तरफ एक चौथाई क्षेत्र छोड़ा जाना अनिवार्य है, लेकिन उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद सरकार नदी किनारे खनन पट्टे जारी कर रही है। संपदा को वन विभाग की सरकारी किसान की बताकर खनन माफियाओं की जेब भरकर किसान नेताओं ने अपने हित साध लिए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता मुकेश कुमार इस मुद्दे पर नैनीताल उच्च न्यायालय में भी चले गए हैं, जहां न्यायाधीश आलोक सिंह की पीठ इस पर अपना फैसला सुनाएगी।
भ्रष्टाचार पर केन्द्र से कानून बनाने की गुहार
उत्तराखण्ड सरकार खनन पट्टों में स्वयं को फंसता देख अब नीति आयोग के समक्ष खनन अधिनियम, भूमि अधिनियम में नये सुधार करने की मांग कर अपनी करतूतों पर पर्दा डाल रही है। राज्य के प्रमुख सचिव ने हाल ही में नीति आयोग की बैठक में कृषि भूमि पर खनन संबंधी कानूनों को बदले जाने की मांग रखी है। दरअसल राज्य की भ्रष्ट नौकरशाही ने अपने स्तर पर नीतिगत निर्णय लेकर उत्तर प्रदेश-उत्तराखण्ड जमींदारी विनाशक एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 की मूल अवधारणा को ही प्रभावित कर दिया। अब जब पेच फंसा तो गेंद केन्द्र के पाले में डालने की चाल चल ली। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता अनिल बलूनी कहते हैं कि सरकार ने अधिनियम को तो प्रभावित किया ही है। साथ ही साथ उच्चतम न्यायालय के आदेश, वन अधिनियम 1980, स्टॉम्प ड्यूटी अधिनियम को भी प्रभावित किया है, इसलिए इस मामले की सीबीआई जांच होनी चाहिए।
दिनेश
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