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बेलगाम खनन के कारण खतरे में पड़ी अमूल्य ऐतिहासिक धरोहर
क्या कोई भी सरकार लालकिले या ताजमहल के आसपास खनन या खुदाई की अनुमति दे सकती है, वह भी कुछ सीमेंट कंपनियों के कहने पर, नहीं। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत के कुछ पुराने ऐतिहासिक स्थलों में से एक, शौर्य भूमि चित्तौड़ के किले के पास ऐसा किया जा रहा है। यह वही किला है जो बप्पा रावल, महाराणा कुंभा, महाराणा प्रताप जैसे वीरों का घर और श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त मीराबाई का आश्रय रहा है। इस किले में उनकी यादें, उनके चिह्न आज भी मौजूद हैं। ऐसा नहीं है कि किले के पास जो हो रहा है, वह किसी की जानकारी में नहीं है। राज्य सरकार भलीभांति इससे परिचित है। उसी की अनुमति ये सब हो रहा है। यह बात दीगर है कि राजस्थान सरकार के खनन मंत्री राजकुमार रिनवा इस विषय पर कहते हैं 'मैंने खनन के लिए किसी भी कंपनी के लाइससेंस का नवीनीकरण नहीं किया है और न ही वहां पर किसी को भी खनन की अनुमति है। हालांकि सरकार खनन कंपनियों के साथ इस मामले की सर्वोच्च न्यायालय में पैरोकारी जरूर कर रही है। जिस सरकार का काम ऐतिहासिक धरोहरों को बचाने का होना चाहिए वह इस तरफ से बिल्कुल उदासीन बैठी है। यही नहीं वह खनन को पूरा सहयोग भी दे रही है। खनन के लिए किए जाने वाले विस्फोटों का किले पर असर पड़ा, इसका नतीजा निकला कि किले के कई महत्वपूर्ण हिस्सों- विजय स्तंभ, मीराबाई मंदिर समेत कई स्थानों पर दरारें पड़ गई हैं। साथ ही खनन के चलते किले के पास स्थित वन्य जीव अभयारण्य में वन्य जीवन प्रभावित हो रहा है। किले के पास गोचर भूमि (चारागाह क्षेत्र की जमीन) पर खनन किया जा रहा है, जो नियम विरुद्ध है। इस कारण किसानों को अपने पशुओं को चराने के लिए गोचर भूमि नहीं मिल पा रही है। खनन के लिए किए जाने वाले बड़े-बड़े विस्फोटों से किले के आसपास स्थित गोचर भूमि पर बड़ी-बड़ी झीलें बन गई हैं, जिससे गोचर भूमि कम होती जा रही है। जानकारों का कहना है कि विस्फोट के कारण जो झीलें बनी हैं उनका पानी भी विस्फोट से निकलने वाले रसायनों के कारण दूषित हो चुका है। इसलिए उस पानी का प्रयोग भी नहीं किया जा सकता। वर्ष 1964 में चित्तौड़ किले के पास पहली बार खनन की अनुमति दी गई थी। तब से लेकर आज तक अनगिनत बार यहां के लोगों द्वारा खनन के विरोध में आवाजें उठाई गईं। कई बार कुछ समय के लिए खनन बंद भी हुआ, लेकिन सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपए का राजस्व देने वाली कंपनियों के आगे किसी की नहीं चली। खनन आज भी बदस्तूर जारी है।
संविधान के अनुच्छेद 49 और 51 ए (एफ) के अनुसार सरकार का कार्य ऐतिहासिक धरोहरों को संवारने व उनका संरक्षण करने का होता है, जबकि यहां ऐसा नहीं हो रहा है। इसके अलावा प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम 1904 व प्राचीन स्मारक व पुरातत्व स्थल एवं शेष अधिनियम 1958 के नियमों के अनुसार भी सरकार का काम ऐसे स्मारकों के संरक्षण का है, लेकिन सरकार इन नियमों की पूरी तरह अवहेलना कर रही है। दरअसल इस किले के आसपास चूना पत्थर के खनन का काम होता है। यहां पर कई बड़ी औद्योगिक इकाइयां हैं जिनमें सीमेंट बनाया जाता है।
वर्ष 2004 से किले के आसपास किसी भी तरह के खनन केे लिए 'खनन पट्टे' के लाइसेंस का नवीनीकरण नहीं किया गया है लेकिन उसके बाद भी लगातार यहां पर खनन हो रहा है। दरअसल सरकार के खनन विभाग ने एक नियम बना रखा है। इस नियम के तहत यदि आपके लाइसेंस के नवीनीकरण का समय खत्म हो चुका है तो भी जब तक सरकार आपको खनन के लिए प्रतिबंधित न करे तब तक आप खनन कर सकते हैं।
चित्तौड़ के ऐतिहासिक दुर्ग को बचाने के लिए चित्तौड़ के रहने वाले भवरसिंह ने वर्ष 2011 में राजस्थान उच्च न्यायालय की जोधपुर पीठ में याचिका दायर की थी। जिसके तहत उच्च न्यायालय ने वर्ष 2012 में किले के आसपास होने वाले खनन पर पूरी तरह रोक लगा दी। साथ ही जिन कंपनियों के पास खनन के लिए लाइसेंस थे उन्हें निरस्त कर दिया और कंपनियों पर पांच करोड़ का जुर्माना लगा दिया। वहीं तत्कालीन कांग्रेस सरकार उच्च न्यायालय के आदेश को मानने की बजाय उसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में चली गई। वर्ष 2013 में सत्ता बदली और राजस्थान में भाजपा की सरकार बनी। नई सरकार ने भी वही रवैया अपनाया और उच्च न्यायालय के आदेश को लागू करने की बजाए उसने तत्कालीन कांग्रेस सरकार की तरह इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में जारी रखा।
यह मामला कई बार राजस्थान विधानसभा में भी उठाया गया। यहां पर आश्वासन दिए गए कि राज्य सरकार चित्तौड़ के ऐतिहासिक किले को बचाएगी, उसे कोई नुकसान नहीं होने देगी लेकिन अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। सरकार कंपनियों के साथ मिलकर खनन किए जाने की पैरवी करने में जुटी है। यहां तक कि राजस्थान के खनन मंत्री राजकुमार रिनवा स्वयं विधानसभा में यह कह चुके हैं जिस जमीन पर खनन हो रहा है वह चारागाह की जमीन है, वह किले के आसपास के क्षेत्र में खनन पर प्रतिबंध लगवाएंगे। खनन के खिलाफ याचिका दायर होने के बाद इस विषय में राजस्थान उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसआई), 'जियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया' और 'इंडियन ब्यूरो ऑफ माइन्स' से इस संबंध में रपट प्रस्तुत करने को कहा था। जिसमें खनन से होने वाले नुकसान के बारे में स्थिति स्पष्ट करने को कहा गया। इस पर पुरातत्व विभाग ने न्यायालय में प्रस्तुत अपनी रपट में कहा कि खनन की वजह से किले को नुकसान पहुंच रहा है। खनन के लिए जो विस्फोट किए जाते हैं उसकी वजह से किले में दरारें पड़ रही हैं। 'जियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया और इंडियन ब्यूरो ऑफ माइन्स' ने रपट दी कि खनन की वजह से किले को नुकसान हो रहा है। इसके आधार पर न्यायालय ने अपना निर्णय दिया और खनन पर रोक लगा दी।
इस आधार पर राज्य सरकार और खनन करने वाली कंपनियां दोनों सर्वोच्च न्यायालय में चले गए। वहां उन्होंने आधार बनाया कि एएसआई का क्षेत्र किसी भी ऐतिहासिक स्मारक के 200 मीटर के दायरे तक ही सीमिति होता है और बाकी जो दोनों एजेंसियां हैं वे इस विषय में विशेषज्ञता नहीं रखती इसलिए खनन से नुकसान हो रहा है या नहीं इसके लिए अलग एजेंसी से जांच कराई जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की अपील पर 'सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट' (सीबीआरआई) रुड़की से इस दावे की जांच करवाने को कहा।
जानकारों का कहना है कि अभी तक जो भी जांचें की गईं उनके लिए जो विस्फोट हुए वे जिन भी एजेंसियों ने किए उनकी क्षमता काफी कम थी, जिनके आधार पर उन्होंने रपट बनाई और न्यायालय में प्रस्तुत की। जबकि खनन कंपनियां आज तक खनन के लिए जो विस्फोट करती रही हैं वे काफी बड़े विस्फोट रहे हैं। ऐसे में इन जांच एजेंसियों की रपट को इस बात के लिए सही आधार मानना कि खनन से किले को कोई नुकसान नहीं हो रहा सही नहीं है।
उल्लेखनीय है कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने खनन से किले को होने वाले नुकसान के बारे में जांच करने के निर्देश दिए तो साथ में यह भी कहा कि इसका खर्चा खनन कराने वाली कंपनियां उठाएंगी। ऐसे में सवाल उठता है कि सीबीआरआई ने जो रपट माननीय सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत की क्या वह पूरी तरह निष्पक्ष थी? बहरहाल सीबीआरआई ने जो रपट न्यायालय में प्रस्तुत की वह हास्यास्पद लगती है। सीबीआरआई ने अपनी जांच करने के बाद सितंबर 2014 में जो रपट न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की, जिसमें कहा गया कि किले के पास बंदर बहुत हैं। वे गर्म पत्थरों पर पेशाब कर देते हैं। जिसमें 'एसिड' होता है, जिसकी वजह से पत्थर चटक जाते हैं और दरारें पड़ जाती हैं। इसके अलावा किले में आने वाले पर्यटकों के चलने से जो कंपन होता है। उसकी वजह से किले को नुकसान हो रहा है।
यदि दूसरे प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों की बात करें तो ताजमहल में सबसे ज्यादा पर्यटक आते हैं। ताजमहल में पर्यटकों का आना बरकरार रहे व उसकी रंगत बनी रहे इसलिए आगरा शहर से सारी औद्योगिक इकाइयों को हटा दिया गया। यहां तक कि ताजमहल संरक्षित रहे इसलिए इसके आसपास के इलाके को 'नो फ्लाइंग जोन' (यानी उसके ऊपर से कोई हवाई जहाज भी उड़कर नहीं जा सकता) घोषित कर दिया गया। इसके अलावा आगरा से करीब 40 किलोमीटर दूर फतेहपुर सीकरी के पास भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के अनुसार खनन बंद हैं। सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2012 के आदेश के अनुसार 'एंशियेंट मोन्यूमेंट प्रिजर्वेेशन एक्ट 1904' व 'एंशिय् ोंट मोन्यूमेंट्स एंड ऑर्केलॉजीकल साइट्स एंड रिमेन्स एक्ट 1958' के तहत यहां किसी तरह का खनन नहीं हो सकता। चित्तौड़ किले के पास खनन का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि यदि दूसरे पर्यटन स्थलों के आसपास खनन पर रोक लगाई जा सकती है तो फिर शौर्य के प्रतीक रहे ऐतिहासिक चित्तौड़ किले के आसपास ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
किले के पास पड़ता है 'बस्सी' वन्य अभयारण्य
चित्तौड़ किले के पास भेरडा में बड़ी खदानें हैं यहां पर लगातार खनन किया जाता रहा है। यदि नक्शा देखें तो यहां से 10 किलोमीटर के अंदर 'बस्सी वन्य अभ्यारण्य' है। इस अभ्यारण्य में तेंदुआ, चौसिंगा, चीतल व चिंकारा जैसे वन्य प्राणी रहते हैं। नियमानुसार किसी भी अभ्यारण्य के 10 किलोमीटर के दायरे में तभी खनन किया जा सकता है जबकि उसे 'स्टेंडिंग कमेटी ऑफ द नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ' से अनुमति मिली हो। लेकिन जब हमने उप वन संरक्षक वन्य जीव चित्तौड़गढ़ के कार्यालय से इस संबंध में जानकारी चाही तो वहां ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला जिसमें कंपनियों ने प्रशासन को इस संबंध में कोई जानकारी दी हो।
चित्तौड़ का प्रथम साका
दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने विक्रमी संवत् 1356 में चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। उस समय रावल समरसिंह के पुत्र रतनसिंह चित्तौड़ के शासक थे। उनका विवाह सिंहल के राजा की पुत्री पद्मिनी से हुआ था। वह अनुपम सुंदरी थीं। महारानी पद्मिनी के सौन्दर्य के बारे में जब खिलजी को पता चला तो उसने उन्हें पाने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। खिलजी ने किले पर घेरा डाल दिया, लेकिन वह चित्तौड़ को जीत नहीं सका। लगातार घेराबंदी से किले में रसद का अभाव हो गया। तब राजपूतों ने केसरिया बाना पहन लिया। केसरिया बाना पहनने का अर्थ किले में मौजूद सभी पुरुषों ने तय कर लिया कि वह किले से बाहर निकलकर खिलजी की सेना से अंतिम युद्ध करेंगे यदि जीते तो किले में वापस आएंगे नहीं तो वहीं लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो जाएंगे। कहते हैं उस समय पद्मिनी के नेतृत्व में 16 हजार राजपूत युवतियों व अन्य महिलाओं ने अपनी अस्मिता बचाने के लिए किले में जौहर किया था। उन सभी ने सामूहिक रूप से किले में चिता सजाकर उसमें प्रवेश कर लिया। यह चित्तौड़ का प्रथम साका कहलाया। वहीं रावल रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना पहनकर राजपूतों ने किले के दरवाजे खोल दिए और भूखे सिंहों की भांति दुश्मन पर टूट पड़े। गौरा व उनके भतीजे बादल ने इस युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाया। बादल की आयु उस समय मात्र 12 वर्ष बताई जाती है। आज भी गौरा बादल की वीरता के बखान मेवाड़ क्षेत्र में बड़े गर्व से गाए जाते हैं। बादल के बारे में गाया जाता है कि बादल बारह बरस रो, लडि़यो लाखां साथ, सारी दुनिया पेखियो, वो खांडो वे हाथ अर्थात बादल 12 वर्ष का था। वह लाखों के संग लड़ा। सारे संसार ने उसके हाथ व खांडे की सराहना की है।
चित्तौड़ का दूसरा साका
चित्तौड़ का दूसरा शाका महाराणा विक्रमादित्य के समय पर हुआ। चित्तौड़ पर गुजरात के बादशाह बहादुरशाह ने आक्रमण किया था। तब राजमाता कर्मावती के नेतृत्व में 13 हजार क्षत्राणियों ने चित्तौड़ किले में स्थित विजय स्तंभ के सामने जौहर किया था। इस युद्ध में 33 हजार वीर मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान हुए थे। कहते हैं समय के अभाव में जो स्त्रियां जौहर नहीं कर सकी वे अफीम खाकर मृत्यु को प्राप्त हो गईं। उन्होंने अपने बालकों को तालाबों में फेंक दिया। करीब 3 हजार बालकों के शवों को किले में स्थित तालाबों और बावडि़यों में जाल डालकर निकाला गया। केसरिया बाना पहने हिन्दू वीरों ने
युद्ध में इतनी मारकाट मचाई थी कि भैंस का एक बच्चा जिसे स्थानीय भाषा में पाड़ा कहते हैं, वह खून में बहता हुआ बाहर के दरवाजे तक आ गया था। इस जगह को आज भी पाड़ा पोल कहते हैं।
चित्तौड़ का तीसरा साका
चित्तौड़ का तीसरा साका सन् 1538 में हुआ। उस समय महाराणा उदयसिंह का चित्तौड़ के सिंहासन पर अधिकार था। अकबर ने चित्तौड़ को जीतने के लिए घेरा डाल दिया। राजपूत सरदारों ने आपस में परामर्श किया और यह निर्णय लिया कि महाराणा, राजकुमार और रनिवास सहित दुर्गम पर्वतों में चले जाएं और किले की रक्षा का भार जयमल राठौड़ को दे दिया जाए। जब अकबर किले को नहीं जीत पाया तो उसने जयमल को संदेश भिजवाया कि यदि चित्तौड़ के किले पर मुझे कब्जा दे दोगे तो मैं आपका सम्पूर्ण राज्य आपको लौटा दूंगा और साथ में बहुत से प्रदेश भी भेंट करूंगा। इस पर जयमल ने प्रत्युत्तर में अकबर को कहलवाया कि 'है गढ़ म्हारो हूं धणी, असुर फिरे किम आंण, कूंची गढ़ चितौड़री, दीणी मुझ दीवाण'। जयमल लिखै जबाव जब, सुणज्यो अकबर शाह, आण फिर गढ़ ऊपरां, पडियां धड़ पतसाह।
अर्थात यह दुर्ग मेरा अपना है। मैं इसका स्वामी हूं। इस दुर्ग की चाबियां मुझे भगवान एकलिंगजी के दीवान महाराणा ने सौंपी हैं। असुरों की दुहाई यहां कैसे फिर सकती है। अकबर तुम्हारी दुहाई किले पर तब ही फिर सकती है, जबकि हमारे धड़ इस धरती पर पड़ेंगे अन्यथा हमारे जीवित रहते तुम दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सकते। जब अकबर ने सेना नहीं हटाई और राजपूत वीरों को कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया तो उन्होंने साका करने का व राजपूतानियों ने जौहर करने का निश्चय किया। किले में चार स्थानों पर जौहर हुआ। राजपूत वीरों ने केसरिया वस्त्र पहने और किले के दरवाजे खोल दिए। सेनापति जयमल राठौड़ अकबर की गोली से घायल हो गए थे। चलने में असमर्थ जयमल के लिए राठौड़ कल्लाजी आगे आए। उन्होंने जयमल को कंधे पर बिठाया। दोनों हाथों में तलवारें लिए दोनों राठौड़ों का चतुर्भुज रूप देखकर रण क्षेत्र में भगदड़ मच गई। मुगलों से लड़ते हुए दोनों वीरगति को प्राप्त हुए। –चितौड़ से लौटकर आदित्य भारद्वाज
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