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गीता प्रेस की स्थापना विक्रम संवत् 1980 तद्नुसार 1923 के मई महीने में धर्मानुरागी सेठ जयदयाल गोयन्दका ने की थी। उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करना बहुत प्रिय था। वे इसी में जीवन की समस्त दार्शनिकता का दर्शन करते थे। धीरे-धीरे उनकी पूरी गतिविधि गीता पर केन्द्रित हो गई। वे गीता का प्रचार-प्रसार करने में जुट गए और गीता छपवाकर वितरित करने लगे, लेकिन छपाई में होने वालीं त्रुटियों ने उन्हें विचलित कर दिया। गोरखपुर के व्यवसायी घनश्यामदास जालान उनके बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने सुझाव दिया कि ये त्रुटियां तभी ठीक हो सकती हैं जब अपनी प्रेस होगी। उनका यह सुझाव गोयन्दका जी को बहुत अच्छा लगा और उन्होंने गोरखपुर के पुराने मुहल्ले उर्दू बाजार में 10 रु. महीने पर किराए के मकान में प्रेस की शुरुआत कर दी। वही पौधा आज विशाल वट वृक्ष बन गया है। आज गोरखपुर में गीता प्रेस का भव्य भवन है। इसे लोग एक तीर्थस्थल के रूप देखते हैं। गोयन्दका जी का कोलकाता में बड़ा करोबार था। आज भी उनकी समस्त व्यावसायिक और धार्मिक गतिविधियां कोलकाता स्थित 'गोबिन्द भवन' से संचालित होती हैं। उनके व्यवसाय से जो लाभ होता है उसी से गीता प्रेस के घाटे को पाटा जाता है।
गीता प्रेस ने मुख्यत: मूल, मौलिक ग्रंथ और उनके अनुवाद बहुत ही अच्छे ढंग से प्रकाशित किए हैं, जिन्हें पढ़कर हम बड़े हुए हैं।
-कपिला वात्स्यायन, संस्कृतिकर्मी
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