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भव्य-दिव्य संस्कृत की रूपगर्विता पुत्री- हिन्दी की यह परिभाषा हम सभी ने सुनी या पढ़ी होगी। संदेह नहीं कि एक भाषा के रूप में हिन्दी अपने संस्कृत के मायके से काफी आगे निकल चुकी है। अब वह स्वयं एक परिवार है, सैकड़ों बोलियों वाले विशाल परिवार की मुखिया है।
लेकिन सत्य यह भी है कि आज भी इस मुखिया का परिवार लगभग खानाबदोश है। वह बाजार और सत्ता के पायदान नहीं चढ़ सका है। चढ़ा भी है, तो सिर्फ अपने कंधों पर ढोकर दूसरों को वहां तक पहुंचाने के लिए। आपने देखा होगा, हिन्दी में विज्ञापन देती विदेशी कंपनियां, रोमन लिपि में लिखे हिन्दी भाषण पढ़ते नेता। हिन्दी का जनाधार है, और उसका शोषण करने के लिए तो बाजार भी है और दरबार भी। लेकिन प्रश्रय देने के लिए?
बाजार से, दरबार से भाषा का क्या संबंध? संबंध है। इन दो से ही नहीं, लिपि से, शब्दकोशों से, की-बोर्ड से, तकनीक-उत्पादन और विपणन की शब्दावलियों से, न्यायपालिका की शब्दावलि से, फिल्मों में प्रयुक्त भाषा से और न जाने कितने पहलुओं से, सबसे संबंध है। भाषा न तो सिर्फ बोलचाल का खिलौना होती है, न शोषण का उपकरण और न सिर्फ साहित्य की सजावट।
पहले एक उदाहरण देखिए। पाकिस्तानी पंजाब में बोलचाल की भाषा के तौर पर आज भी पंजाबी प्रयुक्त होती है। लेकिन वहां उसे मार-मार कर अरबी लिपि में ढालने की चेष्टा की गई है, उसके लिए देवनागरी और गुरुमुखी लिपियों को समाप्त कर दिया गया है। पंजाबी के कई शब्द अरबी लिपि में लिखे ही नहीं जा सकते हैं। परिणाम यह है कि पाकिस्तानी पंजाब में पंजाबी की स्थिति किसी ऐसी लावारिस वस्तु जैसी हो गई है, जिसका प्रयोग तो सभी करते हैं, लेकिन उसकी देखभाल, उसका रखरखाव कोई नहीं करता। परिणाम- पाकिस्तान में सिन्धी और अन्य भाषाओं की तरह पंजाबी भी नष्ट हो रही है, लगभग हो चुकी है। उसका न कोई बाजार है, न दरबार।
भारत में हिन्दी की स्थिति पर चर्चा करें, तो तुरंत अंग्रेजी का नाम जरूर आ जाता है। अंग्रेजी हमने शौक से नहीं सीखी। हम पर दो सौ वर्ष राज करके, राजसत्ता और राजशक्ति के बूते हम पर जबरन थोपी गई है। हिन्दी इसके विपरीत है, और इस नाते वह उस परतंत्रता का प्रतिकार भी है। स्वतंत्रता मिलने के इतने वर्ष बाद भी। इस बिन्दु पर सैकड़ों तर्क तुरंत टूट सकते हैं, जो हिन्दी की इस या उस कमजोरी को रेखांकित करते होंगे। लेकिन किसी भी कमजोरी के लिए हिन्दी दोषी नहीं है। उसे पाला-पोसा ही किसने? वह तो आज भी जो कुछ है, सिर्फ अपने दम पर है। अंग्रेजों और अंग्रेजी के आने के पहले तक फारसी राजभाषा रही, और उसके फौरन बाद अंग्रेजी आ गई। रही सही कसर उन्होंने निकाल दी, जो सपने भी अंग्रेजी में देखते थे। हम अंग्रेजों की परतंत्रता से निकलकर अंग्रेजी की परतंत्रता में प्रवेश कर गए।
भारत आज भी पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता देखा जा सकता है। इंडिया बनाम भारत की बहस का एक पहलू निश्चित रूप से हिन्दी बनाम अंग्रेजी है। जनाधार भारत का है, बाजार और दरबार इंडिया का। सिर्फ दरबारी होने से कुछ नहीं होता। क्वीन्स इंग्लिश सहित इतिहास में कई भाषाएं दरबारों में ही दफन भी हुई हैं। लेकिन सिर्फ जनाधार से भी कुछ नहीं होता। इस पहेली का उत्तर इस बात में है कि शक्तिशाली कौन साबित होता है। अगर हिन्दी को एक पखवाड़े के नाम से आगे की स्थिति में ले जाना है, ताकि वह इंडिया को पछाड़ते हुए भारत के स्वाभिमान, उन्नति और गौरव का उपकरण बन सके, तो उसे शक्तिशाली भी बनाना होगा। उसमें रूप, जय, गुण, यश, विद्युतावेश, प्रकाश और चुंबकत्व की शक्तियां देनी होंगी। इस आशय का निर्णय कर लेने के बाद और पूर्ण शक्ति से उसके क्रियान्वयन के बाद भी हिन्दी को उस स्थिति में लाने में कई वर्ष लगेंगे।
भारत के दो प्रधानमंत्री हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र तक ले जा चुके हैं। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के प्रयास भी तेजी पर हैं। माने सत्ता के शिखर से इच्छाशक्ति साफ दिखती है। इस देश से अंग्रेजी को खदेड़ने वाली हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ही आगे बढ़ेगी। स्वयं भारत के भी बढ़ने का यही एक मार्ग है। हवा में निश्चित हिन्दी है, वह सर्वत्र अपनी ऊर्जा बिखेरेगी। सिर्फ समय की प्रतीक्षा है। दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन और हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी के इस बढ़ते यश पर आयोजित है यह विशेष प्रस्तुति।
ल्ल पाञ्चजन्य ब्यूरो
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