|
वषोंर् पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने गंगा-मीकांग सहज सम्बंध की संकल्पना रखी थी। मीकांग वह नदी है जो हिमालय से निकलकर 4300 किमी बहने के बाद विएतनाम में सागर से मिलती है। विश्व की सबसे लंबी नदियों में उसका समावेश होता है। इस नदी के किनारे बसे देशों यानी म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया और विएतनाम भारत के बंधु जैसे हैं। इन पांच देशों में लगभग प्रत्येक का धार्मिक एवं आध्यात्मिक जाप गंगा किनारे के सारनाथ और बोधगया को पुकारता है। अटल जी द्वारा शुरू किए प्रयासों को उसी तरह से गति मिलती तो इस सारे इलाके का एक साथ विकास हुआ होता। दुर्भाग्य से इस दौरान चीन ने इस हिस्से पर अपना दबदबा बढ़ाया। अब तो चीन ने इस इलाके के सागर में सैन्य अभ्यास की शुरुआत भी कर दी है। दक्षिण चीन सागर में स्थित काफी सारे खनिज और हर वर्ष होने वाले तीन लाख करोड़ रुपयों के व्यापार पर नियंत्रण पाना, यही चीन का उद्देश्य है। इन पांचों देशों में उसका भय व्याप्त है। आगामी नवंबर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस हिस्से का दौरा करने वाले हैं। तब गंगा-मीकांग मैत्री का प्रयास पुन: गति लेगा, ऐसी आशा है।
भारत की दृष्टि से इसमें पूर्वी एशिया के म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया, लाओस और विएतनाम के संदर्भ में भारत से मित्रता का नया पर्व शुरू हो रहा है। ये पांच देश सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के संबंधी हैं। लेकिन पिछले 10 वषोंर् में चीन ने इस इलाके में अपना स्वतंत्र स्थान बनाया है। दक्षिण चीन सागर में प्रति वर्ष होने वाले तीन लाख करोड़ रुपए के व्यापार और प्रचुर खनिज भंडार की ओर उस महाकाय देश की नजर है। आज ये पांच देश चीन से भी सहयोग कर रहे हैं लेकिन उनकी प्राथमिकता भारत है, क्योंकि भारत आक्रामक भूमिका नहीं लेगा, इस बारे में वे देश आश्वस्त हैं।
मीकांग से निकलती हर एक उपनदी के किनारे बसे तीर्थस्थानों में बौद्ध धर्म की जो साधना चलती है उसके प्रतिस्वर गंगा के किनारे वाराणसी के निकट सारनाथ और बोधगया में गूंजते हैं, ऐसी भावना है। भारत और इन पांच देशों की जीवनशैली एक जैसी है। संपन्नता भी एक समान है और दरिद्रता भी एक समान। बहुतांश समस्याएं एक समान हंै। भारत में जिन कृषि उत्पादों का अभाव है वे यहां से मंगाए जा सकते हैं और वहां के युवाओं में भारत की शिक्षा, औद्योगिकीकरण, विज्ञान-तकनीक, व्यापार का बड़े पैमाने पर उपयोग हो सकता है।
यह नदी इन पांचों देशों की जीवनरेखा है। इलाके की सबसे बड़ी नदी होने के कारण यहां घटने वाली हर बात मीकांग को साक्षी रखकर होती है। इस इलाके में नदियों का विस्तृत जाल है। ऐसा नहीं कि सभी नदियां मीकांग से मिलती हैं। 15 वर्ष पूर्व जब इस इलाके से संबंध का सूत्र तैयार किया गया था, उस समय उसे 'गंगा-मीकांग सहयोग' का ही नाम दिया गया था। भारत की महत्वपूर्ण नदियां जैसे गंगा, यमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र हिमालय में मानसरोवर से ही उद्गम पाती हैं। मीकांग नदी का उद्गम मानसरोवर से न होकर हिमालय में पूरब की ओर बहते एक सरोवर से होता है। 4300 किमी दूरी पार कर वह विएतनाम के दक्षिणी सिरे पर हिंद महासागर से मिलती है। यह विश्व की सबसे लंबी छह नदियों में से एक है। यह नदी कहीं भी भारत से नहीं गुजरती अथवा भारत को स्पर्श करते हुए भी नहीं जाती। फिर भी इस नदी के किनारे-किनारे बड़े पैमाने में बौद्ध स्तूप हैं। उसका काफी हिस्सा चीन में है। यह नदी लाओस और म्यांमार की सीमा पर चीन से प्रवेश करती है। वहां से वह थाईलैंड, कंबोडिया की यात्रा करते हुए विएतनाम में हो चि मिन्ह शहर के पास सागर से मिलती है। गंगा नदी के तीर पर हरिद्वार से लेकर ब्रह्मावर्त, प्रयागराज, वाराणसी, गया और गंगासागर तक तीर्थस्थानों की एक मालिका है। यही स्थिति मीकांग नदी की है। इस नदी पर विशाल बांध हैं। बांधों की नहरें भी नदियों की तरह बड़ी हैं। विद्युत निर्माण के प्रकल्प हैं। खेती को जल आपूर्ति करने वाले अनेक प्रकल्प हैं। मछलियां पकड़ने की स्वतंत्र शैली है और नदी के प्रवाह में बड़े पैमाने पर पर्यटन का व्यवसाय है। किसी भी बड़ी नदी के संदर्भ में पानी के लिए विवाद होते ही हैं। वैसे ही मीकांग नदी के पानी पर भी विवाद है। फिर भी इस नदी के जीवन में एकरसता है।
देश के सत्ताधारियों के पास अगर देश के भविष्य को लेकर दूरदर्शिता हो तो उस देश का सवांर्गीण विकास होता है। अटल जी ने पूर्व की ओर म्यांयार, लाओस, थाईलैंड, कंबोडिया और विएतनाम के सामने गंगा मीकांग सहयोग का प्रस्ताव रखा था। इससे पूर्व इस इलाके के लिए आसियान एकमात्र संगठन था जिसकी स्थापना सन् 1967 में हुई थी। लेकिन क्षेत्रीय विकास के संदर्भ में उसका विस्तार काफी बड़ा था जो आस्ट्रेलिया तक पहुंचता था। म्यांमार से विएतनाम तक के देशों की विशेषता यह है कि भारत से वे जमीन से जुड़े हुए हैं और उनमें सांस्कृतिक एकरसता भी है। यहां के आम लोगों की समस्याएं समान हैं। इसलिए सबने साथ मिलकर आगे बढ़ने का निर्णय किया। पहले पर्यटन, शिक्षा, सभ्यता, परिवहन और सूचना के आदान-प्रदान का उद्देश्य तय किया गया। गंगा और मीकांग नदियों की घाटी में रहने वालों के पिछली कई सदियों से सांस्कृतिक संबंध हंै इसलिए इन दोनों घाटियों के लोग एक साथ आएं तो सबको फायदा होगा, इस बारे में सभी आश्वस्त हुए। इस संदर्भ में विदेश मंत्री स्तरीय पहली बैठक 9 से 13 नवंबर 2000 को लाओस में हुई। इसमें एजेंडा तय किया गया। दूसरी बैठक 28 जुलाई 2001 को हनोई में हुई जिसमें अगले छह वर्ष का कार्यक्रम तय किया गया। तीसरी बैठक 20 जून 2003 को नामपेन्ह में हुई जिसमें हर एक देश में आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर क्या किया जा सकता है, इसके लिए एजेंडा बनाया गया।
इस दौरान कई कामों को गति मिली। लेकिन बाद में सन् 2007 तक कुछ नहीं हुआ। दिलचस्प बात यह है कि वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी उस समय विदेश मंत्री थे। जनवरी 2007 में बैठक फिलिपीन्स में हुई थी। फिलिपीन्स कोई गंगा-मीकांग सहयोग संधि वाला देश नहीं था। भारत ने मीकांग नदी घाटी वाले 100 बौद्ध भिक्षुओं को भारत आने का आमंत्रण दिया। उसी वर्ष अगस्त 2007 में भारत द्वारा कंबोडिया में कपड़ा उद्योग की एक व्यापक प्रदर्शनी आयोजित करने का निर्णय हुआ। साथ ही भारत द्वारा इस हिस्से के 50 छात्रों को भारत में शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियां देने का निर्णय किया गया। उसके बाद अगली बैठक 5 वर्ष बाद नई दिल्ली में हुई जिसमें चार विषय और जोडे़ गए। इस में संक्रामक रोगों का उपचार, खाद्य सुरक्षा योजना, साथ ही प्राकृतिक संपदा की रक्षा जैसे विषयों को तरजीह मिली। वास्तव में विदेश संबंधों में कूटनीति के आधार पर बढ़ने वाले इस कार्यक्रम में यद्यपि वृद्धि हुई, फिर भी भारत सहित उन छह देशों के लोगों द्वारा एकत्र होकर जन सहभागिता में वृद्धि की बात आगे नहीं बढ़ी। इसका कारण यह रहा कि भारत में बाद में आने वाली सरकार में जनजीवन की सहभागिता को लेकर कोई उत्साह नहीं था और दूसरे यह कि इसी दौरान इस क्षेत्र में चीन की आवाजाही बढ़ी इसलिए मूल कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ नहीं पाया।
इसी दौरान चीन की अगुआई वाली ग्रेटर मीकांग परियोजना, जिसमें एशियन डेवलेपमेंट बैंक प्रत्यक्ष सहभागी था, सामने आई। इसके आधार पर उसने हर एक देश के अर्थतंत्र में मदद करने के बहाने उसमें दखल देना शुरू किया। इसलिए भारत और इन देशों को साथ लेकर चलने की दिशा का एजेंडा बिल्कुल छोटा हो गया। इसका मतलब यह नहीं कि सन् 2000 में भारत द्वारा शुरू किए गए कार्यक्रम का कोई उपयोग नहीं हुआ। पहले 3-4 वषोंर् में उस इलाके का भारत से व्यापार 1़ 75 अरब डालर से 3़ 75 अरब डालर पर आ गया। यात्रियों की संख्या में 140 प्रतिशत वृद्धि हुई। खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से भी काफी आदान-प्रदान हुआ। इन पांचों देशों के संदर्भ में नालंदा विश्वविद्यालय में जो अवसर एवं पाठ्यक्रम अपेक्षित थे उसमें आगे नहीं बढ़ा गया। इन पांचों देशों से मुक्त व्यापार अनुबंध होते हुए भी व्यवसाय में अधिक वृद्धि नहीं हुई।
पिछले 15 वर्ष में 'गंगा-मीकांग इनिशिएटिव' में पर्यटन, सभ्यता, शिक्षा और संपर्क जैसे चार विषय तय किए गए और बाद में उसके आठ विषय बनाए गए। इस विषय में और भी बढ़ोतरी की जा सकती है, लेकिन वास्तव में वे कुल कितने होते हैं, इस आधार पर आगे विस्तार करना आवश्यक है। इसमें पर्यटन को महत्व देने का कारण है। हर एक हिंदू व्यक्ति को जीवन में काशी, रामेश्वरम में, अयोध्या, वृंदावन, चारधाम, बारह ज्योतिलिंर्ग, 52 शक्तिपीठ, तिरुपती, पंढरपुर जाने की इच्छा होती है। उसी तरह हर एक बौद्ध की इच्छा भारत में सारनाथ, बोधगया, अजंता जैसे 30-35 स्थानों पर जाने की होती है। अर्थात् यह भावना इन पांच देशों तक ही सीमित नहीं है। चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, श्रीलंका के श्रद्धालुओं की भी यही इच्छा होती है। कई लोग ऐसा करते भी हैं लेकिन आज यह काफी खर्चे वाली बात है। हमारे यहां के मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय लोगों तथा उन देशों के इन्हीं वगोंर् के लोगों में कोई फर्क नहीं है। यह पूरी यात्रा एशिया का हर आम श्रद्धालु रेल के दूसरे दर्जे के डिब्बे से कर सके, यह वास्तव में हर एक सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन आज इन यात्राओं के लिए जीवनभर की पूंजी लगानी पड़ती है। अटल जी के कार्यकाल में इस पर्यटन को महत्व दिया गया था। गंगा-मीकांग सहयोग योजना में इसका समावेश प्राथमिकता से था। पिछले 1000 वषोंर् में भारत में दासता की स्थिति थी। इसी दौरान काफी बड़े पैमाने पर तीर्थस्थान और नालंदा जैसे कई विश्वविद्यालय और अध्ययन केंद्र जलाए गए। शिक्षा के विषय का इस अनुबंध में समावेश होने के कारण दक्षिण पूर्वी एशिया के युवाओं में चेतना का संचार हुआ था। दरिद्रता बड़े पैमाने पर है। इसलिए वहां के युवाओं को भारत के कालेजों में प्रवेश देते समय महत्व देना चाहिए, यह विचार उस समय हुआ था। 500 युवाओं को छात्रवृत्ति देने का प्रस्ताव सामने आया था। कुछ अंश में उस पर अमल भी हुआ।
सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था आपस में संपर्क। भारत और ये पांचों देश कृषिप्रधान देश हैं। इन दोनों भूभागों के किसानों और ग्राहकों के आपस में संपर्क के लिए दिल्ली-हनोई महामार्ग की योजना सामने आई थी। आपस में सब्जी, वस्त्र, गृहोपयोगी चीजें आदि सस्ते में मिलें इसके लिए जिस तरह इन महामागोंर् का उपयोग होना चाहिए उसी तरह लोगों में मेलजोल के लिए इन मागोंर् का अधिक उपयोग होना चाहिए। यही विचार गंगा-मीकांग मित्रता अनुबंध के समय सामने आया था। वास्तव में इन देशों की सरकारों की बजाय वहां के आम लोग इसमें कितना सम्मिलित होते हैं, इस पर इस परियोजना की सफलता निर्भर करती है। हर एक देश भारत को लेकर आस्था, जिज्ञासा, भक्ति, प्रेम और अपनेपन से भरे हैं, इसका अहसास वहां जाए बिना नहीं होगा। एक बात तो सच है कि भारत में आज बने नए राजनीतिक वातावरण से विश्व के अनुभव भी भारत के लिए पोषक बने हैं। इससे परिचित भी होना चाहिए और इसका अनुभव भी लेना चाहिए। -मोरेश्वर जोशी
टिप्पणियाँ